चांद, इस्लाम और साईंस

चांद के मसले को लेकर ओलमाऐ एकराम ने एक नशिस्त का एहतिमाम किया गया जिस में साईंसी माहिरीन के इलावा शहर के मशहूर ओलमा ने शिरकत की। ये नशिस्त इन हज़रात के ज़रीया मुनज़्ज़म की गई थी जिन्हें ग़ालिबन इस बात से तशवीश है कि चांद को लेकर रमज़ान और ईद के वक़्त अफ़रातफ़री का माहौल हो जाता है।

साईंस के माहिरीन को इस मज़हबी नशिस्त में बुलाए जाने का मक़सद समझ से बालातर था, इस लिए कि मुंतज़मीन का मक़सद ये मालूम हो रहा था कि इस्लामी एतबार से चांद का हर शहर या मुल्क में मुख़्तलिफ़ होना ज़रूरी या कम अज़ कम मुम्किन है कि नहीं, जबकि साईंसी माहिरीन ने अपनी दानिस्त में जो साबित किया वो इस तसव्वुर के ऐन मुख़ालिफ़ था। इन का मौक़िफ़ ये था कि चांद का सारी दुनिया में एक ही होना ज़रूरी है और अलैहदा अलैहदा दिन होना नामुमकिन है।

इस तज़ाद से अलग हट कर, जब ओलमा की बारी आई तो उन्हों ने अपना मौक़िफ़ रखने से पहले कहा कि चांद को देखने के लिए साईंस का सहारा लिया जाना सही नहीं होगा क्योंकि इस्लाम में रमज़ान और ईदैन को चांद के दिख जाने पर मौक़ूफ़ किया गया है ना कि इस के होने ये ना होने पर। ज़ाहिर है कि चांद दिखे या ना दिख पाए वो आसमान में मौजूद तो रहता ही है और उस को समझने के लिए साईंस का कोई किरदार भला क्या हो सकता है? ओलमा का ये मौक़िफ़ यक़ीनन इस्लामी एतबार से दुरुस्त था, लेकिन क़ाबिले ग़ौर बात ये है कि जब मुंतज़मीन को यही साबित करना था कि हर शहर का चांद मुख़्तलिफ़ होता है तो फिर साईंसी माहिरीन को बुलाए जाने में क्या मक़सद और मस्लिहत थी?
मजमूई तौर पर प्रोग्राम की ग़रज़ ये मालूम हुई कि हिंदुस्तान भर में और खासतौर पर शहर में कुछ हज़रात इस मौक़िफ़ के हामिल और दाई हैं कि चांद की रुइयत (देखा जाना) जब शरई तौर से किसी भी मुक़ाम पर साबित हो जाए तो वो चांद सारी दुनिया के मुस्लमानों के लिए होगा। ये मौक़फ़ मौजूदा दौर में मुक़ामी ओलमा के मौक़िफ़ के बरख़िलाफ़ है जिन का खयाल है कि हर शहर के लोग अपना अपना चांद देखें और इसी के मुताबिक़ रमज़ान और ईदैन मनाएं।

मुख़्तलिफ़ ओलमा ने अपने इस मौक़िफ़ की ताईद में आयात और अहादीस पेश कीं, जहां तक उन आयात का ताल्लुक़ है जो ओलमा ने पेश कीं, तो इन आयात की किसी भी तफ़सीर में इन आयात से ये इस्तिदलाल नहीं किया गया है कि इन आयात से मुराद हर शहर की रुइयत अलग अलग होना है। ये बात निहायत वसूक़ से कही जा रही है और इसके लिए तफ़सीर इबने कसीर, तफ़सीर जलालेन, फ़तहुलक़दीर, तफ़सीर अलबेज़ावी, तफ़सीरुल क़रतबी वग़ैरा का मुताला किया गया जिन में इन तमाम आयात के ज़िमन में रुइयत हिलाल का कोई तज़किरा ही ज़ेर--बहस नहीं है !

फिर ओलमा ने जो अहादीस अपने मौक़िफ़ की हिमायत में रखी उन में मुंदरजा ज़ैल हैं:
1: चांद दिखने पर रोज़ा रखवावर चांद दिखने पर रोज़े ख़त्म करो इस हदीस को अगर सरसरी तौर पर देखा जाये तो ओलमा का मौक़िफ़ दुरुस्त मालूम होता है, लेकिन इस में क़ाबिले ग़ौर बात ये है कि अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم का ये ख़िताब सिर्फ एक ख़ास शख़्स या ख़ास शहर के लोगों से नहीं बल्कि तमाम उम्मते मुस्लिमा इस हदीस की मुख़ातब है। दार-उल-उलूम देवबंद के मुख़्तलिफ़ फतावा में कहा गया है कि इस हदीस में ख़िताब तमाम उम्मत के लिए है ना कि एक एक शख़्स के लिए अलग अलग। बात माक़ूल भी है, अगर ये मान लिया जाये कि एक शख़्स ने चांद नहीं देखा, तो क्या इस पर रोज़ा रखना फ़र्ज़ ना हुआ? मुलाहिज़ा फ़रमाईए फतावा दार-उल-उलूम देवबंद: जिल्द 6,सफ़ा नंबर 385 और 386 इन फतावा में कहा गया कि कि चांद कहीं भी दिख जाये और उस की तसदीक़ शरई तौर पर हो जाये तो इस का मानना तमाम मुस्लमानों पर ज़रूरी है। लेकिन ताज्जुब इस बात पर हुआ कि तमाम ओलमा जो दार-उल-उलूम ही के फ़ारिग़ हैं और इसी मकतब--फ़िक्र के दाई भी, उन्हों ने ना तो इस फ़तवे का हवाला दिया और ना ही उस को अपनी राय में मल्हूज़ रखा।

2: एक और रिवायत पेश की गई जिस के मुताबिक़ हज़रत अबदुल्लाह इब्ने अब्बास رضي الله عنه ने मुल्के शाम के चांद को तस्लीम करने से इनकार किया था। इस रिवायत को पेश करते वक़्त हक़ायक़ को नज़र अन्दाज़ किया गया, पहली बात तो ये कि इस रिवायत में हुज़ूर अकरम صلى الله عليه وسلم का कोई क़ौल मौजूद नहीं है, बल्कि हज़रत अबदुल्लाह इब्ने अब्बास رضي الله عنه की राय है। ये ज़माना ख़िलाफ़त का ज़माना था और अमीर मुआवीया ख़लीफ़ा थे, हज़रत अबदुल्लाह इब्ने अब्बास رضي الله عنه उन के तै किए हुए हुक्म के ख़िलाफ़ बग़ावत कैसे कर सकते थे, हाँ किसी मुआमला में उन की राय ख़लीफ़ा से मुख़्तलिफ़ हो सकती थी लेकिन आम तौर पर ख़लीफ़ा ही के हुक्म पर अमल किया जाता था। हज़रत अबदुल्लाह इब्ने अब्बास رضي الله عنه बावजूद मुख़्तलिफ़ राय रखने के अहल--मदीना को किसी और दिन ईद करने पर मजबूर ना कर सकते थे और ना उन से ऐसी उम्मीद थी। फिर ये कोई अनोखी बात भी नहीं थी, इस से क़ब्ल हज़रत अबूबकर अलसिद्दीक़  رضي الله عنه  के दौर--ख़िलाफ़त में माल--ग़नीमत की तक़सीम और तलाक़ के मुआमला में हज़रत उमर رضي الله عنه  की राय ख़लीफ़ा के हुक्म के बरख़िलाफ़ थी। ख़लीफाए वक़्त का हुक्म था कि अम्वाल को हर मुस्लमान पर बराबरी से तक़सीम किया जाये जबकि हज़रत उमर رضي الله عنه की राय में साबिक़ून और खासतौर से बद्री सहाबा को ज़्यादा हिस्सा दिया जाना था। इसी तरह ख़लीफ़ा की राय में बैकवक़्त तीन तलाक़ें एक ही तलाक़ मानी जाना थी, जबकि हज़रत उमर رضي الله عنه उन्हें तीन तलाक़े मान कर तलाक़ मुकम्मल होने को सही समझते थे। चूँकि ख़लीफ़ा हज़रत उमर رضي الله عنه नहीं थे, इस लिए अमल दर आमद उन की राय पर नहीं, बल्कि ख़लीफ़ा की राय पर किया गया और किसी ने भी हज़रत उमर رضي الله عنه से अलहदा राय रखने पर बाज़पुर्स नहीं की। फिर जब वो ख़लीफ़ा बने तो अहकाम तबदील हुए और उन के मुताबिक़ अमल किया गया। यही मुआमला यहां था कि हज़रत अबदुल्लाह इब्ने अब्बास رضي الله عنه अपनी राय अलैहदा रखने के मजाज़ थे लेकिन इस रिवायत में कहीं ये नहीं कहा गया कि इन ही राय पर अमल किया गया हो!

3 : तीसरी दलील जो ओलमा ने पेश की वो इख्तिलाफुल मतालेअ की दलील थी। इस के मुताबिक़ मआनी ये लिए जाते हैं कि हर इलाक़ा का मतला अलैहदा होता है लिहाज़ा रुइयत अलैहदा होगी। यहां क़ाबिले ग़ौर बात ये है कि यह इस्तिलाह किसी आयत या हदीस का हिस्सा नहीं बल्कि फुक़हाये इकराम की इस्तिलाह है। इख्तिलाफुल मतालेअ को गो इमाम अहमद इब्ने हम्बल رحمت اللہ علیہ, इमाम शाफ़ई رحمت اللہ علیہ और इमाम मालिक رحمت اللہ علیہ ने किसी हद तक तस्लीम किया है लेकिन वो भी इस से ऐसे मआनी अख़ज़ नहीं करते जिन की रु से चांद दिखने की गवाही दूसरे शहरों में तस्लीम किया जाना ग़लत हो।  इमाम--आज़म हज़रत अबू हनीफ़ رحمت اللہ علیہ ने इख्तिलाफुल मतालेअ को सिरे से मुस्तर्द किया है और उन के तमाम शागिर्दों ने उसी को माना है। यूं अहनाफ़ के मुतक़द्दिम अइम्मा के नज़दीक इख्तिलाफुल मतालेअ की कोई हैसियत नहीं है।
दार उल-उलूम देवबंद का भी यही मौक़िफ़ रहा है, उन के फ़तओं में यही दर्ज है, मुलाहिज़ा कीजिए फतावा दार-उल-उलूम देवबंद : जिल्द 6 सफ़ा 380 इस में वाज़िह तौर पर लिखा है कि चांद का किसी भी मुल्क में दिख जाना तमाम मुस्लमानों के लिए हुक्म शरई की हैसियत रखता है।
अफ़सोस इस बात पर कि ओलमा ने इस हक़ीक़त से भी सर्फे नज़र किया। जनाब मुफ़्तई शहर ने इस हक़ीक़त को तो तस्लीम किया कि हज़रत इमाम--आज़म رحمت اللہ علیہ इख्तिलाफुल मतालेअ को नहीं मानते थे, लेकिन फिर कहा कि बाद के बाअज़ मुताखिरीन ने उस को माना है चुनांचे हम भी उस को ही मानते हैं। उन्हों ने ये नहीं बताया कि बाद के कौन से अइम्मा ने इसे माना है? जबकि ना हज़रत इमाम आज़म رحمت اللہ علیہ इसे मानते थे और ना ही बाद में दार उल-उलूम देवबंद इसे तस्लीम करता है फिर उस मख़सूस राय को ही को मानने की ऐसी क्या ज़रूरत आगई कि इस के ख़िलाफ़ जाने वालों को जो इमाम--आज़म رحمت اللہ علیہ के सही मसलक पर और दार-उल-उलूम देवबंद के फतावा पर अमल पैरा हैं, फ़सादी और शर-पसंद अनासिर तक कह दिया गया?

इस के इलावा इस नशिस्त में कोई और दलील सामने नहीं आई कि क्यों चांद हर शहर में अलग होना है। अलबत्ता कुछ अजीब क़ुदरती हादसों को बतौर दलील पेश किया गया जो दरअसल साईंस से मुताल्लिक़ हैं जबकि इस बेहस में साईंस के किरदार को पहले ही मुस्तर्द किया जा चुका था। मसलन हज़रत नायब मुफ्तीये शहर ने फ़रमाया कि जब हम यहां से जद्दाह के लिए हवाई जहाज़ में अस्र की नमाज़ पढ़ कर बैठते हैं तो वहां जा कर भी अस्र ही का वक़्त होता है जबकि सफ़र में चार घंटा लगे थे। लेकिन जब हम वहां से अस्र पढ़ कर बैठते हैं तो यहां आने पर इशा का वक़्त भी ख़त्म होचुका होता है हालाँकि सफ़र में वही चार घंटे लगे हैं! बाक़ौल उन के यही इख्तिलाफुल मतालेअ है। मौसूफ़ की इत्तिला के लिए अर्ज़ है कि वो मशरिक़ और मग़रिब के सफ़र के हक़ीक़त को मल्हूज़ रखें। या फिर इसी बात को एक दूसरे सफ़र के ज़रीया साबित करने की ज़हमत करें और वो जद्दा से मास्को का सफ़र है या ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न शहर से टोकीयो का सफ़र है जिन में आठ घंटे लगते हैं लेकिन दोनों शुरू के और दोनों आख़िरी मुक़ामात पर वही वक़्त होता है। ऐसा इस लिए है कि ये दोनों सफ़र शिमालन जुनूबन हैं, जिन के मुक़ामात पर वक़्त वही रहता है, मशरिक़--मग़रिब के सफ़र की तरह बदलता नहीं है!

मज़ीद ये कि इस तरह की अजीब बातें शरीयत में दलील नहीं होतीं। शरीयत में हुक्म वो होता है जो क़ुरआन और हदीस में वारिद हुआ हो, ना कि वो जो अक़्ल तस्लीम करे। मिसाल के तौर पर सर्दीयों में चमड़े के ख़ुफ़ को लीजिए, एक बार बावुज़ू हो कर इन्हें पहन लेने के बाद दूसरी बार जब वुज़ू किया जाये तो पैर धोने के बजाय सिर्फ़ ख़ुफ़ के बालाई हिस्सा पर मस्ह कर लेना काफ़ी होता है, जबकि अगर अक़्ल का इस्तिमाल किया जाये तो ख़ुफ़ के तलुओं का मस्ह किया जाना चाहीए था! इसी लिए हज़रत अली رضي الله عنه ने फ़रमाया कि अगर शरीयत का हुक्म अक़्ल का पाबंद होता तो ख़ुफ़ के ऊपरी हिस्सा के बजाय तलुओं का मस्ह किया जाना होता!

एक और बात जो काफ़ी ज़ोर दे कर कही गई वो ये थी कि क्या हम नमाज़ों के लिए सूरज यहां का मानें और ईदैन के लिए चांद मक्का का मानें? बज़ाहिर ये बात काफ़ी मज़बूत नज़र आती है, ताहम हक़ीक़त ये है कि शरीयत में हुक्म ऐसा ही है। अगर मुक़ामी सूरज के वक़्त को ही तस्लीम कर लिया जाये तो इन इलाक़ों में जहां सूरज महीनों में एक ही बार तलूअ होता है,जैसे ग्रीनलैंड वग़ैरा, तो क्या मुक़ामी सूरज की दलील दे कर वहां कई महीनों में एक ही बार नमाज़ अदा की जाएगी? हरगिज़ नहीं, इस के लिए आप को किसी और मुक़ाम पर तलूअ--ग़ुरूब के औक़ात (वक़्तों) के मुताबिक़ अमल करना होगा। उस जगह जहां बरवक़्त सूरज तलूअ नहीं हुआ हो ,वहां भी बहरहाल पाँच वक़्त की नमाज़ होगी और सूरज के ना निकलने को उज़्र नहीं बनाया जायेगा।  फिर हज़रत नायब मुफ़्ती साहिब ने ये एतराज़ किया कि अगर हम मक्का का चांद मानें तो क्या हम नमाज़ भी वहां के वक़्त के मुताबिक़ पढ़ें? जबकि हक़ीक़त ये है कि जब यही ओलमा मसलन लखनऊ की रुइयत को तस्लीम कर लेते हैं तो क्या मग़रिब की नमाज़ वहां के वक़्त के मुताबिक़ पढ़ते हैं या इफ़तार वहां के वक़्त पर करते हैं? मालूम हो कि लखनऊ और भोपाल में ग़ुरूब आफ़ताब क़रीब पंद्रह मिनट के फ़र्क़ से होता है।

एक और अहम बात ये है कि जब शरीयत में रुइयत--हिलाल के मोतबर होने के लिए कोई फ़ासिला मुक़र्रर नहीं किया गया और हज़रत इमाम आज़म رحمت اللہ علیہ ने इख्तिलाफुल मतालेअ को तस्लीम ही नहीं किया तो हम क्यों ना किसी और जगह के चांद को तस्लीम कर ले जहां हम से पहले दिख गया था? इस के जवाब में ओलमा का मौक़िफ़ था कि हुज़ूर अकरम صلى الله عليه وسلم  का इरशाद है कि अगर किसी सबब चांद नज़र ना आए तो तीस रोज़े पूरे करो। सवाल ये उठता है कि तीस रोज़े पूरे करने में तो कोई क़बाहत नहीं, लेकिन हम ने तो पिछले माह ही एक या दो दिन देर से रोज़े शुरू किए थे? अब अगर तीस पूरे करते हैं तो उस दिन रोज़ा रखना पड़ता है जो हराम दिन यानी ईद का दिन है! इस का जवाब दार-उल-उलूम देवबंद के मशहूर बुज़ुर्ग हज़रत अल्लामा रशीद अहमद साहिब गंगोही رحمت اللہ علیہ ने अपनी तसनीफ़ (कौकब दरी ,जो तिरमिज़ी शरीफ़ की शरह है) में दिया है। सफ़ा 336  मुलाहिज़ा फ़रमाईए, लिखा है कि अगर मक्का में रोज़े जुमेरात से शुरू हो गए हों और कलकत्ता में चांद ना दिखने के सबब जुमा से लोगों ने रोज़े रखे हों, फिर बाद में उन्हें मालूम हुआ हो कि मक्का में एक दिन पहले से रमज़ान शुरू हो चुका था तो उन पर लाज़िम आता है कि वो ईद बहरहाल मक्का वालों के साथ मनाएं और अपने पहले रोज़ा, जो छूट गया था, बाद में क़ज़ा--करें!

क्या इस क़दर मोतबर हस्ती के इस क़ौल के बाद चांद के हर जगह अलैहदा दिखने का कोई और जवाज़ बाक़ी रह जाता है? इस मौक़िफ़ के दाई सिर्फ़ हज़रत मौसूफ़ ही नहीं, हिंदुस्तान के बेशतर ओलमा का यही मौक़िफ़ रहा है; हज़रत मौलाना मुफ़्ती किफ़ायत अल्लाह साहब رحمت اللہ علیہ ने अपनी मशहूर--ज़माना किताब तालीम उल-इस्लाम में जो घर घर पढ़ी जाती है ,यही लिखा है और उन्हों ने बजाय मक्का और कलकत्ता के, बंबई और बर्मा की मिसाल दी है। मालूम हो कि कलकत्ता और मक्का का फ़ासिला 5000 किलो मीटर और बंबई और बर्मा का फ़ासिला 3500 किलो मीटर से भी ज़्यादा है जबकि ये हवाई फ़ासिला है ना कि सड़क के सफ़र का फ़ासिला जो इस से ढेड गुना तक ज़्यादा हो सकता है। इन हज़रात ने इन जगहों की मिसालें देते वक़्त ना तो फ़ासिला को मद्द--नज़र रखा और ना ही इन शहरों के अलग अलग मुल्कों में होने को या अलैहदा अलैहदा मतला में होने को ख़ातिर में लाए और ना ही उन के औक़ात में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ होने को वज़न दिया। बल्कि इन तमाम फ़ुरुक़ के बावजूद उन पर चांद का एक ही हुक्म जारी किया।
यह बात अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم की हदीस से ऐन मेल खाती है जो सुनन अबी दाऊद में नक़ल की गई है और लिखा है कि दो बद्दू ऊंटों पर सवार होकर आए और एक दिन पहले चांद के हो जाने की इत्तिला दी जिस को आप صلى الله عليه وسلم ने क़बूल फ़रमाया और रोज़ा तोड़ने का हुक्म दे दिया।

इस नशिस्त में हज़रत मुफ़्ती साहिब ने इस हदीस से इस्तिदलाल तो किया लेकिन कहा कि ये लोग किसी क़रीबी मुक़ाम ही से आए होंगे। यक़ीनन वो लोग किसी नज़दीकी मुक़ाम ही से आए होंगे लेकिन हम ये क्यों भूल जाएं कि अगर चांद को मानने में फ़ासिला का कोई दख़ल होता तो अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ज़रूर उन से फ़ासिला के बाबत पूछते और फ़ासिला कम या ज़्यादा होने पर उन की रुइयत को क़बूल या मुस्तर्द फ़रमाते, लेकिन आप صلى الله عليه وسلم ने ऐसा नहीं किया बल्कि फ़ासिला के बाबत पूछने के बजाय उन से दूसरे सवालात किए कि क्या वो अल्लाह को एक मानते हैं? क्या वो मुहम्मद(صلى الله عليه وسلم) को अल्लाह का नबी मानते हैं और क्या उन्हों ने चांद देखा था? अगर इस मौज़ू में फ़ासिला का ज़रा भी दख़ल होता तो आप صلى الله عليه وسلم यक़ीनन गवाह से फ़ासिला के बारे में पूछते और अगर वो फ़ासिला ज़्यादा बताता तो ये कह करकह तुम बहुत दूर से आए हो, उस की शहादत को मुस्तर्द फ़र्मा देते, जिस से हमारे लिए दलील हो जाती। यही आप صلى الله عليه وسلم का तरीक़ा--कार था कि सवाल--जवाब के ज़रीया उम्मत को दीन सिखाते थे। इस ही से ये वाज़िह हो जाता है कि चांद के मुआमला में फ़ासिला और इख्तिलाफुल मतालेअ ग़ैर मोतबर हैं, नीज़ इमाम अबू हनीफा رحمت اللہ علیہ ने उसी को इख़तियार किया था, फिर आज क्या हो गया है कि बावजूद इमाम आज़म رحمت اللہ علیہ के इख्तिलाफुल मतालेअ को ना मानने के, बावजूद दार-उल-उलूम देवबंद के इख्तिलाफुल मतालेअ को मुस्तर्द करने के फ़तवे के, ओलमा बज़िद हैं कि हर जगह का चांद अलग ही हो। आख़िर इस से क्या हासिल हो रहा है? ये चीज़ इस्लामी यकजहती से भी मुनहरिफ़ है। हदीस में आता है कि तमाम मुस्लमान एक उम्मत हैं,इन का मुलक एक है और उन की जंग भी एक। जिस मज़हब ने ऐसी तालीम दी हो क्या वो अपने अहम दिनों में सिर्फ फासले की बिना पर इस अफरा तफरी को क़बूल कर सकता है? यही बात फतावा क़ाज़ी ख़ानफतावा आलमगीर और फतावा फ़रंगी महल से मनक़ूल है।

नीज़ ये भी ग़ौर कीजिए कि जब हमारे यहां चांद ना दिखे तो हम जबलपूर या दिल्ली से तो शहादत ले लेते हैं ,लेकिन लंदन या मक्का से ना लें या कराची की शहादत को मुस्तर्द कर दें। मुल्क के बदलने से शरीयत तो नहीं बदल जाती। मज़कूर ओलमा हक़ यानी हज़रत अल्लामा रशीद अहमद साहिब गनगोही رحمت اللہ علیہ और मुफ़्ती किफ़ायत अल्लाह साहब رحمت اللہ علیہ के फ़तवे भी यही कहते हैं।
इस के इलावा बरेलवी ओलमा जैसे मौलाना अमजद अली (किताब:बिहार--शरीयत) और आला हज़रत मौलवी अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी رحمت اللہ علیہ  (फतावा रिज़विया) भी यही कहते हैं। हाँ शहादत का शरई तौर पर मोजिब होना सब ने बहरहाल शर्त रखा है, लेकिन शरई तौर से मोजिब इत्तिला को नज़रअंदाज करना और हराम दिन रोज़ा रखना कहाँ से दुरुस्त होसकता है?

ब हदीस और हिंदुस्तान के इन मोतबर ओलमा के फ़तावों ,नीज़ दार-उल-उलूम के फ़तवे जिस की रू से एक ही रुइयत तमाम मुस्लमानों पर, ख़ाह वो कहीं भी हूँ लाज़िमी है, ये गुंजाइश कहाँ रह जाती है कि हम मक्का, मदीना, क़ाहिरा, दमिशक़, बेरूत, लखनऊ, भोपाल या झुमरी तलय्या के चांद में फ़र्क़ करें और एक जगह के चांद को तस्लीम करें और दूसरी जगह की रुइयत को मुस्तर्द करें।


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