रमज़ान का महीना नुसरत का महीना है

माहे रमज़ान में मुस्लिम देशों की अफ़्वाज (फौजें) को चाहिये की ख़िलाफ़त के क़ियाम के लिए नुसरत फ़राहम करें

بسم اللہ الرحمن الرحیم
रमज़ान वो महीना है जिसमें अल्लाह سبحانه وتعالى अपनी रहमतों के खज़ाने खोल देता है। ये वो महीना है जिसमें दोज़ख़ के दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं, शयातीन को ज़ंजीरों में जकड़ दिया जाता है, जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं, रोज़े रखे जाते हैं, तरावीह पढ़ी जाती है और उस रात में इबादत नसीब होती है जो हज़ार रातों से बेहतर है! ये रमज़ान का ही महीना था जिसके दौरान इस उम्मत ने अज़ीमतरीन कामयाबियां हासिल कीं। ये रमज़ान ही का महीना है जिसमें इस्लामी फौज का सबसे ताक़तवर हथियार, यानी अल्लाह पर ईमान, अपनी बुलंदियों पर पहुंच जाता है। उम्मत के गुज़रे हुए पूरे दौर में इस मसले की एहमियत को इस रमज़ान 1434 हिजरी में समझना बहुत ज़रूरी है। आज उम्मत की अफ़्वाज (फौज) की तादाद 60 लाख से भी ज्‍़यादा है यहां तक कि अपने बदतरीन दुश्मनों की फौज से भी कई गुना ज़्यादा। जहां तक हथियारों का ताल्लुक़ है हमारी अफ़्वाज के पास टैंक, जंगी हवाई जहाज़, जंगी समुद्री जहाज़ यहां तक के ऐटमी सलाहियत भी मौजूद है। लेकिन इन सबके बावजूद उम्मत दुश्मनों में घिरी हुई है चाहे वो फ़लस्तीन में हो या शाम में, अफ़्ग़ानिस्तान में हो या इराक़ में। ये दुश्मन ना तो बूढ़ों का लिहाज़ करते हैं और ना औरतों, बच्चों का, यहां तक के जानवरों और दरख़्तों तक को तबाह बर्बाद कर देते हैं। यही वक़्त है कि उम्मत के बेटे, चाहे उनका ताल्लुक़ फौजों से हो या वो आम शहरी हो, लाज़िमन रमज़ान को एक बार फिर मुसलमानों के लिए कामयाबी का महीना बनाने के लिए सोचें और काम करें।
अल्लाह سبحانه وتعالى अपनी मुक़द्दस किताब क़ुरआन में फ़रमाता हैं :

وَمَا النَّصْرُ إِلاَّ مِنْ عِندِ اللّہِ الْعَزِیْزِ الْحَکِیْم
''वर्ना मदद तो अल्लाह ही की तरफ़ से है जो ग़ालिब और हिक़मतों वाला है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरे आले इमरान:126)
और अल्लाह سبحانه وتعالى फ़रमाता हैं :
إِن یَنصُرْکُمُ اللّہُ فَلاَ غَالِبَ لَکُمْ وَإِن یَخْذُلْکُمْ فَمَن ذَا الَّذِیْ یَنصُرُکُم مِّن بَعْدِہِ وَعَلَی اللّہِ فَلْیَتَوَکِّلِ الْمُؤْمِنُون
''अगर अल्लाह तुम्हारी मदद करे तो तुम पर कोई ग़ालिब नहीं आ सकता और अगर वो तुम्हें छोड़ दे तो इसके बाद कौन है जो तुम्हारी मदद करे? ईमान वालों को अल्लाह तआला ही पर भरोसा रखना चाहिए।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरे आले इमरान:160)
ये आयात उन ईमान वालों को जिनकी आँखें अल्लाह की आयात पढ़ते हुए भीग जाती हैं ये यक़ीन दिलाती हैं कि इस उम्मत के पास जो सबसे ज़बरदस्त हथियार है वो अल्लाह سبحانه وتعالى की मदद और नुसरत का वाअदा है। जी हाँ, यक़ीनन, इस्लामी तारीख मे खिलाफत की फौज अपने रब के हुक्म के मुताबिक़ इस क़दर तैय्यारी करती थीं कि दुश्मनों के दिलों में इनका रोब और ख़ौफ़ क़ायम हो जाए चाहे इसके लिए उन्हें मिज़ाईल बनाने पड़ें या ताक़तवर समुद्रि या हवाई तैय्यार करनी पड़े लेकिन वो कामयाबी के लिए अल्लाह سبحانه وتعالى से ही दुआ और उसी पर निर्भर करती थीं। उस खिलाफते इस्लामी मे यक़ीनन फौज की क़ियादत (नेतृत्‍व) अपने दुश्मन पर क़ाबू पाने के लिए ज़बरदस्त मंसूबा बंदी करती थी लेकिन वो कामयाबी के लिए अल्लाह سبحانه وتعالى ही की तरफ़ रुजू करती थी कि वो उनके मंसूबों को कामयाब बनाए। यक़ीनन यह वोह वक्त था जब मुस्लिम अफ्सरान को एक मुखलिस रियासत की सरपरस्ती हासिल थी जो अल्लाह के दीन इस्लाम को नाफ़िज़ कर रही थी और जिसने उम्मत को ख़िलाफ़त के झंडे तले यकजा (एकट्ठा) कर रखा था लेकिन इसके बावजूद वो कामयाबी को यक़ीनी बनाने के लिए अल्लाह ही पर भरोसा करते थे।
लिहाज़ा मुस्लिम अफ़्वाज (फौज) दिन में अल्लाह की राह में जिहाद करती थीं और अल्लाह से कामयाबी हासिल करने के लिए रातों को जागा करती थीं ताकि वो अल्लाह का कुर्ब हासिल करें और अल्लाह سبحانه وتعالى ईमान वालों की आँखें, कान और हाथ बन जाएं। ईमान की ये क़ुव्वत ज़बरदस्त फ़ौजी सलाहीयतों के साथ मिलकर एक ऐसी क़ुव्वत में ढल जाती थी कि जिसके नतीजे में मुस्लिम फौजें ऐसी ऐसी कामयाबियां हासिल करती थीं जिनके बारे में कुफ़्फ़ार सोच भी नहीं सकते थे। इस तरह दुश्मन कुफ़्फ़ार की फौज ये समझने लगीं कि ये इंसानों की नहीं बल्कि जिन्‍नो की फ़ौज है जिनका ख़ून सुर्ख़ नहीं बल्कि नीला है। और कुफ्रिया अफ़्वाज के जर्नलज़ सदीयों तक मुसलमानों की फ़ौजी सलाहीयतों पर रश्‍क करते थे यहां तक कि जर्मनी की अफ़्वाज (फौज) के जनरल रूमेल ने कहा कि ''मैदाने जंग में उसकी कामयाबी का खु़फ़ीया नुस्ख़ा ख़ालिद बिन वलीद की फ़ौजी मंसूबा बंदीयां और चालें हैं।''
तो आज मुस्लिम सरज़मीनों की फौजें रमज़ान के महीने में किस किस्म की कामयाबी की जुस्तजू करती हैं?
ज़वा बदर : 17 रमज़ान 2 हिजरी ग़ज़वा बदर के मुताल्लिक़ क्या खयाल है? मुस्लिम अफ़्वाज (फौज) के पहले और सबसे बेहतरीन कमांडर, रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم), जो तमाम अंबिया के सरदार हैं, के मुताल्लिक़ सोचें जो मुसलमानों को अरबों के सबसे ताक़तवर क़बीले क़ुरैश के ख़िलाफ़ बदर के मुक़ाम पर मुसलमानों को ज़बरदस्त कामयाबी दिलाते हैं। सोचें अपने बहादुर बाप-दादाओं के मुताल्लिक़ कि मैदाने जंग में उनकी कितनी तादाद थी, अपने दुश्मन के मुक़ाबले में किस क़दर अस्‍लाह (हथियारों) की क़िल्लत थी कि वो बारी बारी ज़रा बक्तर पहनते थे। उनका दुश्मन तादाद में उनसे तीन गुना ज़्यादा था लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद वो अपने दुश्मन के सामने, जिसे जंगें लड़ने का नसलों का तजुर्बा (अनुभव) था, एक मज़बूत और मुत्तहिद फ़ौज की तरह लड़े। उस वक़्त को याद करें जब रहमतलिल्‍ल आलमीन, रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मामूली से मामूली जुज़ियात (बारीकियों) को सामने रखते हुए मैदाने जंग में फौज की सफ़ बंदी की और फिर इस तरह अल्लाह سبحانه وتعالى से दुआ मांगी जैसे उनके इख्तियार (हाथ) में कुछ भी नहीं है और अल्लाह से कामयाबी की दुआ की। तो रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से बढ़ कर क्या मिसाल हो सकती है कि सिर्फ़ अल्लाह ही है जिसके इख्तियार में कामयाबी है जैसा कि ख़ुद अल्लाह سبحانه وتعالى ने अपनी किताब में ऐलान किया कि :

وَلَقَدْ نَصَرَکُمُ اللّہُ بِبَدْرٍ وَأَنتُمْ أَذِلَّۃٌ فَاتَّقُواْ اللّہَ لَعَلَّکُمْ تَشْکُرُون
''जंगें बदर में अल्लाह ने ऐन उस वक़्त तुम्हारी मदद फ़रमाई थी जबकि तुम निहायत गिरी हुई हालत में थे, इसलिए अल्लाह ही से डरो! ताकि तुम्हें शुक्रगुज़ारी की तौफ़ीक़ हो।'' (तर्जुमा मआनिए कुरआनर, सूरे आले इमरान:123)
फ़
तह मक्का : 20 रमज़ान 8 हिजरी को मक्का फ़तह हुआ। एक ऐसे वक़्त में जब रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) इस्लाम की दावत को जज़ीरतुल अरब से बाहर फैलाने के लिए अमली क़दम उठा रहे थे। अल्लाह سبحانه وتعالى ने मुसलमानों को जज़ीरतुल अरब में अपने सबसे बड़े दुश्मन क़ुरैश मक्का पर फ़तहे नसीब फ़रमाई। फ़तहे मक्का ने जज़ीरतुल अरब में बसने दूसरे अरब क़बीलो पर उनके असरो रसूख़ का ख़ात्‍मा कर दिया जिसके नतीजे में पूरे जज़ीरतुल अरब में इस्लाम की दावत में हाइल तमाम रूकावटें दूर हो गईं और इस्लामी रियासत बहुत तेज़ी से फैलने लगी। रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की क़ियादत (नेतृत्‍व) में दस हज़ार मुसलमानों ने रोज़े की हालत में मक्का की जानिब सफ़र शुरू किया यहां तक कि वो अलक़दीद पहुंच गए। अबू सुफ़ियान को इस बात का मौक़ा दिया गया कि वो अलग-अलग क़बीलो को देख सके जो अब इस्लामी रियासत के झंडे तले मुत्तहिद एक सख़्त जान और जंगजू फ़ौज में बदल चुके थे। इस नज़ारे को देखकर अबू सुफ़ियान इतना मायूस हुआ कि उसे शिकस्त का यक़ीन हो गया और फिर किस तरह मुसलमानों ने एक मुनज़्ज़म (संघठित) मंसूबे के तहत, अल्लाह की मदद के साथ अपने दुश्मन को एक ही दिन में बगै़र किसी लड़ाई के शिकस्त से दो-चार कर दिया। तौहीद की शमा को मुसलमानों के दिलों में रोशन और मज़बूत करने के बाद फ़तेह मक्का एक अहम तरीन कामयाबी थी जिसके बाद अरब जज़ीरे से बाहर के इलाक़े भी अब इस्लामी रियासत के साए में आने के लिए तैय्यार थे। फ़तह मक्का के बाद अल्लाह سبحانه وتعالى ने फ़रमाया कि :

إِذَا جَاء نَصْرُ اللَّہِ وَالْفَتْحُ ط وَرَأَیْْتَ النَّاسَ یَدْخُلُونَ فِیْ دِیْنِ اللَّہِ أَفْوَاجا
''जब अल्लाह की मदद और फ़तह आ गई और लोग जौक़ दर जौक़ अल्लाह के दीन (यानी इस्लाम) में दाख़िल होने लगे।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरे अलनसर:1-2)
रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की रूखसत के बाद भी उम्मत ने अपनी फौज को इस्लाम की रोशनी से मुनव्वर किए रखा। वो रिसालत के हवाले से अपनी ज़िम्मेदारी से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे क्योंकि रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) सिर्फ़ किसी एक ज़माने या किसी एक क़ौम के रसूल ना थे बल्कि वो तमाम लोगों के लिए और रहती दुनिया तक के रसूल थे। लिहाज़ा मुसलमानों ने रमज़ान की बरकत से फ़ायदा उठाया और आने वाली कई सदीयों तक अपने दुश्मनों पर कामयाबियां हासिल करते रहे। ना सिर्फ़ ये कि रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के जाने के बाद बल्कि सहाबाओं और ताबईन के जाने के बाद भी कई सदीयों तक मुसलमान इस मुबारक महीने में अल्लाह سبحانه وتعالى से कामयाबी मांगते रहे और अल्लाह سبحانه وتعالى मुसलमानों को कामयाबियां अता करता रहा।
अं
दलुस की सरज़मीन 28 रमज़ान 92 हिजरी में इस्लामी सलतनत का हिस्सा बनी। ख़लीफ़ा अल वलीद की हिदायत पर मूसी बिन नसीर ने तारिक़ बिन ज़ियाद को स्पेन की फ़तह के लिए रवाना किया। तारिक़ बिन ज़ियाद की क़ियादत (नेतृत्‍व) में सात हज़ार की फ़ौज ने शुमाली अफ़्रीक़ा से समुंद्र को पार किया और पहाड़ी पर मौजूद किले को फ़तह किया। ये पहाड़ी बाद में जबलुल तारीक़ के नाम से मशहूर हुई। फिर इसने जुनूबी स्पेन में पेशक़दमी की। इसके बाद मूसा बिन नसीर भी इस मुहिम में शामिल हो गए और एक बड़ी फ़ौज के साथ ''तरीफ़ा'' पर उतरे और ''सवीली'' और ''कारमोना'' को फ़तह किया।

लीबी जंगों के दौरान जंग हित्तीन भी माहे रमज़ान के दौरान 584 हिजरी (1187 CE) में पेश आई। कर्क के ईसाई बादशाह ने 1187 CE में, जिसको अरनात कहा जाता था, मुसलमानों के एक क़ाफ़िले पर हमला किया जो हज के लिए जा रहा था। इसने बेरहमी का प्रदर्शन किया और मर्दों को तशद्दुद (ज़ुल्‍म) का निशाना बनाया और औरतों की बेहुर्मती की। हाजियों को क़त्‍ल करते हुए अरनात ने कहा कि ''जाओ मुहम्मद से मदद मांगो अगर वो तुम्हारी मदद कर सकता है।''
जब इस वाकिए की ख़बर सलाहउद्दीन अय्यूबी को पहुंची तो ग़ुस्से के बावजूद उसने बादशाह अरनात के नाम एक नर्म पैग़ाम भेजा। ख़त में सलाहउद्दीन ने उससे मुतालिबा किया कि वो मुआहिदा अमन की पासदारी करे, तमाम क़ैदीयों को रिहा कर दे और जो कुछ लूटा है उसे वापिस कर दे। लेकिन बादशाह अरनात ने ऐसा करने से इन्‍कार कर दिया। ईसाईयों ने हित्तीन के मुक़ाम पर 50 हज़ार की फ़ौज जमा की। ईसाईयों की क़ियादत (नेतृत्‍व) यरूशलम, कर्क और त्रिपोली के बादशाहों ने की लेकिन उन्हें इबरतनाक शिकस्त हुई। ईसाईयों के कई शहज़ादों और नाइटज़ को क़ैदी बना लिया गया। ये अल्लाह का फ़ैसला था कि सलाहउद्दीन बादशाह अरनात से टकराए जिसने हाजियों का क़तले आम किया था। बादशाह अरनात को अपने हाथों से क़त्‍ल करने से पहले सलाहउद्दीन ने उससे कहा कि ''वो उसे इसलिए क़त्‍ल कर रहा है कि उसने रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की शान में गुस्ताख़ी की थी और मासूम मुसलमानों को क़त्‍ल किया था।''

न जालूत की जंग: तातारियों की यलग़ार के ख़िलाफ़ ऐन जालूत का मार्का भी मुसलमानों के लिए एक इंतिहाई ज़बरदस्त कामयाबी पर ख़त्म हुआ। ये टकराव रमज़ान 658 हिजरी (1260 CE) में हुआ था। 656 हिजरी के आख़िर में तातारियों ने इस्लामी ख़िलाफ़त के ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त मुहिम शुरू की, जिसके नतीजे में दारुल खिलाफा बग़दाद पर तातारियों का क़ब्‍ज़ा हो गया, ख़लीफ़ा मुसतासिम बिल्‍लाह को क़त्‍ल कर दिया गया और इस्लामी रियासत के दो तिहाई हिस्से पर तातारियों का क़ब्‍ज़ा हो गया। मुसलमानों के आख़िरी मज़बूत इलाक़ों, मिस्र और मराक़श की जानिब बढ़ते हुए तातारियों ने मिस्र के अमीर, महमूद सैफउद्दीन क़ुदज़ के नाम एक धमकी आमेज़ ख़त भेजा जिसमें कहा गया था कि: हमने तुम्हारी ज़मीनों को तबाह, बच्चों को यतीम, लोगों को क़त्‍ल, औरतों की इज़्ज़तों को तारतार और उनके सरदारों को क़ैद कर लिया है। क्या तुम ये समझते हो कि तुम हम से बच सकोगे? कुछ ही अर्से में तुम जान जाओगे कि तुम्हारी जानिब क्‍या आ रहा है।।।। सैफउद्दीन क़ुदज़ ने एक सख़्त जवाब दिया। उसने तातारी प्रतिनिधी को क़त्‍ल कर दिया और उनकी लाशों को शहर में लटका दिया जिसके नतीजे में जहां एक तरफ़ उसकी फ़ौज और रिआया (प्रजा) की हिम्मत में इज़ाफ़ा हुआ तो दूसरी जानिब दुश्मन, उनके जासूस और उनके हमदर्द ख़ौफ़ज़दा हो गए। इस अमल ने जहां मुसलमानों में जोशोख़रोश पैदा कर दिया वहीं तातारियों को ये एहसास भी हुआ कि वो एक ऐसे सरबराह का सामना करने जा रहे हैं जिसका तजुर्बा उन्हें इससे पहले कभी नहीं हुआ है। क़ुद्ज़ ने मुसलमानों को जंग के लिए तैय्यार किया। उसकी क़ियादत (नेतृत्‍व) में मुसलमानों ने ईमान, इत्तिहाद और ज़रूरी साज़ो सामान के साथ दुश्मन का सामना करने की तैय्यारी की। क़ुद्ज़ ने आलिमों और हुक्‍मरानों की मदद तलब की कि वो इस्लाम की दिफ़ा (रक्षा) और इस्लामी सरज़मीनों की आज़ादी के लिए अपना किरदार अदा करें। फिर जुमा 25 रमज़ान 658 हिजरी को मुसलमानों ने ऐन जालूत के मुक़ाम पर अपने दुश्मन का सामना किया। क़ुद्ज़ ने मैदाने जंग में मुसलमानों का नेतृत्‍व (क़ियादत) किया। जंग की शुरूआत में तातारियों को बरतरी हासिल हो गई। इस सूरते हाल को देखकर क़ुद्ज़ एक पहाड़ी पर चढ़ गए, अपना लोहे का ख़ौल सर से उतार फेंका और चिल्‍लाए ''वा इस्‍लाम वा इस्‍लाम'' फौज को अल्लाह (سبحانه وتعالى) के दुश्मनों के सामने डटे रहने और उनसे जंग करते रहने की तरग़ीब दी। क़ुद्ज़ के सुर्ख़ चेहरे, उसकी तलवार की फर्तीयों और दुश्मनों से भिड़ता देख कर मुसलमानों में हिम्मत पैदा हुई और मुस्लिम फौज ने जंग का पलड़ा अपने हक़ में पलट दिया और उस वक़्त तक लड़ते रहे जब तक तातारी फ़ौज तितर बित्तर हो कर मैदाने जंग छोड़कर भाग नहीं गई। इस्लाम और मुसलमानों को फ़तेह नसीब हुई। तातारियों ने जब देखा कि मशरिक़ में उनकी ताक़त कमज़ोर पड़ रही है और मुसलमान दुबारा ताक़त पकड़ रहे हैं तो वो अपने आबाई (पैतृक) इलाक़ों की तरफ भाग गए जिसके नतीजे में क़ुद्ज़ के लिए शाम (मौजूदा शाम, फ़लस्तीन, लेबनान वग़ैरा) को आज़ाद करवाना आसान हो गया और एक हफ़्ते में इस मक़सद को हासिल कर लिया।
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