बशारत है अजनबियों के लिए जो लोगों के बिगाड़ को दुरुस्त करते हैं

बशारत है अजनबियों के लिए जो लोगों के बिगाड़ को दुरुस्त करते हैं

मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) से रिवायत की है वो कहते हैं के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः

((بدأ الإسلام غریباً وسیعود غریباً فطوبی للغرباء))
इस्लाम अजनबियों की तरह शुरू हुआ और अनक़रीब फिर अजनबी बन जाऐगा। लिहाज़ा अजनबियों के लिए बशारत है।

ग़ुरबा (अजनबी) वो हैं जो अपने वतन और ख़ानदान से दूर हों। दारिमी, इब्ने माजा, इब्ने अबी शैबा, बज़्ज़ार, अबू याला, इमाम अहमद ने सिक़ात सनद से रिवायत की है के हज़रत अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द  (رضي الله عنه) कहते हैं के रसूले अकरम ने फ़रमायाः

((إن الإسلام بدأ غریباً و سیعود غریباً کما بدأ فطوبی للغرباء،قیل ومن الغرباء؟ قال:قال النزاع من القبائل))
बेशक इस्लाम शुरू हुआ तो अजनबी था और अनक़रीब ये दुबारा अजनबी बन जाऐगा। पस हर अजनबी के लिए बशारत-ओ-ख़ुशख़बरी है। पूछा गयाः ये ग़ुरबा  (अजनबी) कौन हैं? आप ने फ़रमायाः जो क़बाइल से दूर हों यानी ग़रीब-उल-वतन।

अल्लिसान में कहा गया है: नज़ाअ़ अल क़बाइल वो अजनबी जो ऐसे क़बाइल के क़रीब रहते हों जिन में से ना हों। इसका वाहिद नज़ीअ़ और नाज़अ़ है ...ये वो शख़्स है जो अपने घर और ख़ानदान से नज़ाअ़ इख़्तियार कर ले यानी दूर हो।

इन ग़ुरबा और अजनबियों की चंद ख़ुसूसियात और उनके मुताल्लिक़ चंद जो कुछ कहा गया हैः
लोगों के बिगाड़ के वक़्त दुरूस्तगी करते हैं: अ़म्र बिन औफ़ बिन जै़द बिन मल्हा अल मुज़नी से मरवी है के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((إن الدین لیأرز إلی الحجاز کما تأرز الحیۃ إلی جُحرھا،ولیعقلن الدین من الحجاز معقل الأرویۃ من رأس الجبل۔إن الدین بدأ غریباً ویرجع غریباً فطوبی للغرباء ا۔ذین یصلحون ماأفسد الناس من بعدی من سنتي))
दीन हिजाज़ में सिमट जायेगा जैसे साँप अपने बिल में सिमट जाता है। बेशक दीन इब्तिदा में अजनबी था और दुबारा अजनबी हो जाऐगा। पस बशारत है उन अजनबीयों को जो मेरे बाद लोगों में मेरी सुन्नत के बिगाड़ की इस्लाह करेंगे।

अबू ईसा ने इस हदीस को हसन कहा है। ये ग़ुरबा और अजनबी सहाबा किराम नहीं हैं। इसलिए के ग़ुरबा बाद में आयेंगे जब लोग जिंदगी में हुज़ूर अकरम  (صلى الله عليه وسلم) के तरीक़े को बिगाड़ देंगे और सहाबा ने इस तरीक़ाऐ मुहम्मदी को बिगाड़ा नहीं और ना ही उनके ज़माने में ख़राब हुआ। इस की दलील सहल बिन साद अल साइदी  (رضي الله عنه)  की हदीस है के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((بدأ الإسلام غریباً و سیعود غریباً کما بدأ فطوبی للغرباء ،قالو یا رسول اللّٰہ و من الغرباء؟ قال: الذین یصلحون عندفساد الناس))
इस्लाम अजनबी हालत में शुरू हुआ और दुबारा अजनबी बन जाऐगा जैसे पहले था। पस अजनबियों के लिए बशारत-ओ-ख़ुशख़बरी है सहाबा ने पूछाः या रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ये ग़ुरबा और अजनबी कौन हैं? फ़रमायाः लोगों के बिगाड़ के वक़्त इस्लाह करने वाले।

अ़ल्लामा हैसमी कहते हैं के इस रिवायत को तिबरानी की अल-कबीर, अल औसत और अलसग़ीर में ज़िक्र किया है और इसके तमाम रिजाल सही हैं सिवाए बक्र बिन सलीम के जो सक़ा हैं। और लफ़्ज़ इज़ा का इस्तिमाल मुस्तक़बिल के लिए होता है और इस में ये दलील मौजूद है के ये बिगाड़ और फ़साद सहाबा (رضی اللہ عنھم) के अहद के बाद रौनुमा होगा।

इन की तादाद कम होगीः अहमद-ओ-तिबरानी ने हज़रत अ़ब्दुल्लाह बिन अ़मरो से रिवायत की है वो कहते हैं के एक दिन में रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के पास था और सूरज तुलूअ़ हो चुका था आप  ने फ़रमायाः

((یأتي قوم یوم القیامۃ نورھم کنور الشمس،قال ابو بکر نحن ھم یا رسول اللّٰہ؟ قال : لا ولکم خیر کثیر ولکنھم الفقراء المھاجرون الذین یحشرون من أقطار الأرض،ثم قال: طوبی للغرباء طوبی للغرباء قیل ومن الغرباء؟ قال: ناس صالحون قلیلٌ في ناس سوء کثیر من یعصیھم أکثر ممن یطیعھم))

क़यामत के दिन एक जमाअ़त आएगी उनकी चमक सूरज की चमक की तरह होगी। हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) ने पूछाः क्या वो हम होंगे? ऐ अल्लाह के रसूल। फ़रमायाः नहीं, बल्कि तुम्हारे लिए तो ख़ैर कसीर है। बल्कि वो फ़क़ीर और मुहाजिरीन होंगे जो दुनिया के हर कोने से जमा किए जाऐेंगे।

फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः ख़ुशख़बरी है ग़ुरबा के लिए ख़ुशख़बरी है ग़ुरबा के लिए। पूछा गयाः ये ग़ुरबा कौन हैं? आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
बहुत सारे बुरे लोगों के दर्मियान थोड़े से नेक लोग हैं, उनकी मासियत करने वाले इताअ़त करने वालों की निसबत ज़्यादा होंगे।

अ़ल्लामा हैसमी अल-कबीर में फ़रमाते हैं के इस रिवायत की असनाद हैं लेकिन एक ही सनद एैसी है जिसे कुतुबे सिहाह में इख़्तियार किया गया है। यहाँ ये बता देना मुनासिब है के ग़ुर्बत-ओ-अजनबीयत का इम्तियाज़ सोहबत के इम्तियाज़ से आली और अफ़ज़ल नहीं है। चुनांचे ये सहाबा से अफ़ज़ल नहीं हैं बल्कि बाअ़ज़ सहाबा सोहबत के अ़लावा दीगर दूसरी ख़ुसूसीयात से मुमताज़ हैं जैसे सहाबा को हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) से अफ़ज़ल क़रार नहीं दिया जा सकता या हज़रत उवैस क़रनी का अपना एक इम्तियाज़ है लेकिन इस वजह से उनको सहाबा से अफ़ज़ल नहीं कहा जा सकता, बल्कि ये ताबई हैं। यही हाल ग़ुरबा और अजनबियों का है।

लोगों की एक ग़ैर मारूफ़ जमाअ़त होगीः हाकिम ने मुस्तदरक मैं तख़रीज की है और कहा है के ये सही उल असनाद है शैख़ैन ने इस की तख़रीज नहीं की है। हज़रत इब्ने उमर (رضي الله عنه)  फ़रमाते हैं के रसूले अकरम  (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((إن للّٰہ عباداً لیسوا بأنبیاء ولا شھداء یغبطھم الشھداء والنبیون یوم القیامۃ لقربھم من اللّٰہ تعالیٰ ومجلسھم منہ،فجثا أعرابي علی رکبتہ فقال یا رسول اللّہ صفھم لنا وحلھم لنا: قال: قوم من أفناء الناس من نزاع القبائل تصادقوا في اللّٰہ وتحابوا فیہ یضع اللّٰہل لھم یوم القیامۃ منابر من نور،یخاف الناس ولا یخافون، ھم أولیاء اللّٰہ ل الذین لا خوف علیھم ولا ھم یحزنون))

अल्लाह के चंद बंदे हैं ना तो वो अन्बिया हैं और ना ही शुहदा। बरोज़ क़यामत उनकी अल्लाह से कुरबत ओ नज़दीकी और मुजालिसत की वजह से अन्बिया और शुहदा उन पर रश्क करेंगे। एक ए़राबी ने घुटनों के बल खड़े हो कर सवाल कियाः उनकी हैयत ओ माहियत बताईए? आप ने फ़रमायाः क़बाइल के अजनबियों की ग़ैर मारूफ़ जमाअ़त है। अल्लाह के लिए बाहम दोस्ती करते हैं और मुहब्बत करते हैं अल्लाह आख़िरत के दिन उनके लिए नूर के मिंबर बनाएगा। लोग ख़ौफ़ज़दा होंगे मगर उन्हें कोई ख़ौफ़ ना होगा ये अल्लाह के वली हैं जिनहें ना कोई दहश्त होगी ना कोई ग़म होगा।

अल्लिसान में हैः अफ़्ना यानी ख़लत-मलत इस की वाहिद फ़्नू है) ये सिफ़त अबू मालिक अशअ़री की हदीस में मौजूद है जिसकी रिवायत इमाम अहमद ा ने इन अल्फाज़ से की हैः और तिबरानी ने अल-कबीर मे (من بلدان شتى) के अल्फाज़ ज़िक्र किए हैं यानी वो मुख़्तलिफ़ इलाकों के होंगे।

रूह इलाही की वजह से आपसी मुहब्बत होगीः रूह अल्लाह का मतलब शरीयते मुहम्मदी है यानी जो चीज़ उनको बाहम एक करती है वो इस्लामी असास और मब्दा है ना के कोई दूसरा रब्त ना नसब ना क़ुराबत, ना मस्लेहत, ना दुनियावी मनफ़ेअ़त। अबू दाऊद ने सिक़ात रिजाल की सनद से तख़रीज की है के हज़रत उ़मर बिन ख़त्ताब (رضي الله عنه) ने कहा के रसूले अकरम  (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((إن من عباد اللّٰہ لأناساً ما ھم بأنبیاء ولا شھداء یغبطھم الأنبیاء والشھداء یوُ القیامۃ بمکانھم من اللّٰہ تعالیٰ،قالوا یا رسول اللّٰہ تخبرنا منھم قال ھم قوم تحابوا بروْح اللّٰہ علی غیر أرحام بینھم ولا أموال یتعاطونھا،فواللّٰہ إن وجودھم لنور وإنھم علی نور،لا یخافون إذا خاف الناس،ولا یحزنون إذا حزن الناس وقرأ ھذہ الآیۃ:(اَلَآ إنَّ اَوْلِیَآءَ اللّٰہِ لَا خَوْفٌ عَلَیْھِمْ وَلَاھُمْ یَحْزَنُوْنَ جخ)))

बेशक अल्लाह सुब्हाना سبحانه وتعالیٰ के चंद बंदे हैं जो ना तो अन्बिया हैं और ना ही शुहदा, मगर बरोज़े क़यामत अल्लाह के नज़दीक उनके मुक़ाम-ओ-मर्तबे को देख कर अन्बिया और शुहदा उन पर रश्क करेंगे, सहाबा ने दरयाफ़्त कियाः ऐ अल्लाह के रसूल उनके बारे में हमें बताईए। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः ये एैसी जमात है जो रूह इलाही के सबब ही बाहम मुहब्बत करती है उनके दरमियान ना ही नसब की रिश्तेदारी है ना ही माल है जो ये लोग लेते देते हों। अल्लाह की क़सम उनके चेहरे नूर के हैं और वोह नूर के मिंबर पर फ़ाइज़ होंगे। जब लोग ख़ौफ़ में मुब्तिला होंगे उनको क़तई ख़ौफ़ ना होगा और जब लोग ग़म से दो-चार होंगे उनको कुछ भी ग़म ना होगा और फिर ये आयत तिलावत फ़रमाई।

اَلَاۤ اِنَّ اَوْلِيَآءَ اللّٰهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَ لَا هُمْ يَحْزَنُوْنَۚ
सुन लो अल्लाह के दोस्तों को ना तो कोई डर है और ना वो ग़मगीन ही होंगे। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीमः यूनुस - 62)

ये सिफ़ात इब्ने उमर (رضي الله عنه)  की हदीस में भी गुज़रीं जिसकी तख़रीज हाकिम ने की है अल्फाज़ हैं:
अल्लाह के लिए दोस्ती और इसी के लिए मुहब्बत करते हैं और अबू मालिक अशअ़री की हदीस में भी ये अल्फाज़ वारिद हुए हैं:

لم تصل بینھم ارحام متقاربۃ
उनके दरमियान क़ुराबत-ओ-रिश्तेदारी नहीं है। उनकी दोस्ती और मुहब्बत आपस में सिर्फ़ अल्लाह के लिए होती है। 

अबू मालिक अशअ़री की एक और हदीस मसनदे अहमद में इन अल्फाज़ से नक़ल की हैः

((لم تصل بینھم أرحام متقاربۃتحابوا في اللّٰہ و تصادفوا))
यानी उनके माबैन कोई आपसी रिश्ता नहीं है (लेकिन) वो बस अल्लाह ही के लिए आपसी दोस्ती और ख़ुलूस रखते हैं। 

इसी तरह तिबरानी ने अबू मालिक से एक और हदीस नक़ल की हैः

उनके दर्मियान कोई आपसी रिश्ता ना होगा जिस के सिले से वो अल्लाह के क़रीब हों, ना ही कोई दुनियावी मुआमला होगा जिस के लिए वो एक दूसरे से मिलें, वो तो बस अल्लाह की रहमत के लिए एक दूसरे से मुहब्बत रखते हैं।

एैसी सनद से रिवायत की है जिस के बारे में अ़ल्लामा हैसमी कहते हैं इसके रिजाल सक़ा हैं और अ़ल्लामा मंज़री ने कहा के इस में कोई क़बाहत नहीं है अ़मरो बिन अ़बसा (رضي الله عنه) कहते हैं के मैंने रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) को फ़रमाते सुनाः

((ھم جُمّاع من نوازع القبائل یجتمعون علی ذکر اللّٰہ تعالیٰ فینتقون أطایب الکلام کما ینتقي آکل الثمرأطایبہ))
ये ग़रीबुल वतन लोगों का एक गिरोह होगा जो ज़िक्र इलाही पर इकट्टा होगा और ये बेहतरीन कलाम को पसंद करेंगे जैसे खाने वाला बेहतरीन फलों को मुंतख़ब करता है।

ये इज्तिमा अ़ला ज़िक्र इल्लाह है जो इज्तिमा लिज़्ज़िक्र इल्लाह से अ़लैहदा है। पहले के मानी ये है के ये उनको बाहम जोड़ता है ख़्वाह ये एक साथ बैठे हों या अलग अलग और मुतफ़र्रिक हों। जबकि इज्तिमा लिज़्ज़िक्र इल्लाह मजालिस्त के इख़्तिताम पर ख़त्म हो जाता है। नीज़ तिबरानी में हसन सनद से रिवायत की है और अ़ल्लामा हैसमी और अ़ल्लामा मुंज़री ने इस की तहसीन की है, हज़रत अबूदर्दा (رضي الله عنه) से मरवी है के वो कहते हैं के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

वो मुख़्तलिफ़ क़बाइल और मुख़्तलिफ़ शहरों के लोग हैं जो अल्लाह के लिए मुहब्बत करते हैं और ज़िक्रे इलाही पर मुज्तमा होते हैं। यानी उनके दरमियान ज़िक्रे इलाही का वास्ता होता है और गुज़िश्ता अहादीस की रौशनी में ये रूह अल्लाह यानी शरीअ़ते इलाही है।

वो एक अ़ज़ीम मर्तबे के हक़दार हैं गरचे वो शुहदा नहीं हैः इसलिए के शुहदा उन पर रश्क करेंगे और इसके ये मानी नहीं है के ये अन्बिया और शुहदा से अफ़ज़ल और बरतर हैं उनका ये एक ख़ास्सा है जिस के ज़रीये ये मुमताज़ होंगे मगर ये फ़ज़ीलत और ख़ास्सा उनको अन्बिया और शुहदा से अफ़ज़ल नहीं बल्कि जुदा बनाएगा जैसा के तफ़्सील गुज़र चुकी है। तिबरानी ने अबू मालिक अशअ़री से एक सनद से रिवायत की है जिस के रिजाल की अ़ल्लामा हैसमी ने तहसीन-ओ-तौसीक़ की है। वो कहते हैं के मैं नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) के पास था तो ये आयत नाज़िल हुईः

يٰۤاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَسْـَٔلُوْا عَنْ اَشْيَآءَ اِنْ تُبْدَ لَكُمْ تَسُؤْكُمْ١ۚ
ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, एैसी चीज़ों के बारे में ना पूछो के वो अगर तुम पर ज़ाहिर कर दी जाऐं तो तुम्हें बुरी लगें (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अल माइदा-101)

रावी कहते हैं के हम रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  से सवाल कर रहे थ, तब आपने फ़रमायाः

((إن للّٰہ عباداً لیسوا بأنبیاء ولا شھداء یغبطھم النبیون والشھداء بقربھم و مقعدھم من اللّٰہ یوم القیامۃ))
अल्लाह के कुछ बंदे हैं ना तो वो अन्बिया हैं और ना ही शुहदा, मगर अन्बिया और शुहदा अल्लाह के नज़दीक उनके कु़र्ब और मुक़ाम-ओ-मर्तबे को देख कर रश्क करेंगे।

रावी कहते हैं एक ऐराबी कोने में बैठा था, अपने घुटनों के बल खड़ा हुआ और अपना हाथ झटका कर बोलाः या रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)! हमें उनके बारे में बताईए। रावी कहते हैं के मैंने आप के चेहराए पुरनूर पर इंतिशार, तग़य्युर और नापसंदीदगी को महसूस किया, फिर रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः

((عباد من عباد اللّٰہ من بلدان شتی وقبائل من شعوب أرحام القبائل،لم یکن بینھم أرحام یتواصلون بھا للّٰہ،لا دنیا یتباذلون بھا،یتحابون بروح اللّٰہ ل یجعل اللّٰہ وجوھھم نوراً یجعل لھم منابر قدام الرحمن تعالیٰ،یفزع الناسولا یفزعون،ویخاف الناس ولا یخافون))

अल्लाह के बंदों में से कुछ बंदे हैं जो मुख़्तलिफ़ शहरों और मुख़्तलिफ़ क़बाइल से हैं। उनके दरमियान कोई रिश्तेदारी ना होगी जिसकी बिना पर वो अल्लाह के लिए मुहब्बत करें ना दुनिया होगी जिस का बाहम तबादला करें बल्कि वो रूह इलाही (शरीयत) की वजह से आपस में मुहब्बत रखते हैं। अल्लाह उनके चेहरे नूर के बना देगा। और रहमान ٰके कदमों ( के सामने) उनके लिए नूर के मिंबर होंगे। लोग उस दिन घबराहट में होंगे और उनको कोई घबराहट ना होगी। लोग उस दिन ख़ौफ़ज़दा होंगे और उनको कुछ ख़ौफ़ ना होगा।

तमाम रिवायतें उनसे शहादत-ओ-नबुव्वत की नफ़ी पर मुत्तफिक़ हैं और उनको ये मर्तबा उनके (मज़्कूरा) औसाफ़ की वजह से अ़ता होगा।

लिहाज़ा ये उनके बाअ़ज़ औसाफ़-ओ-ख़ुसूसीयात थीं, अल्लाह के नज़दीक उनके मुक़ाम ओ मर्तबा तो उनके ताल्लुक़ से हदीसें पहले बयान हो चुकी हैं। चुनांचे तकरार की चंदाँ ज़रूरत ओ हाजत नहीं। और जो शख़्स ग़़ौर ओ फ़िक्र काम में लाए, वो ज़रूर कोशिश करे के जल्द अज़ जल्द रहमान के क़दमों में नूर के मिंबर बनाए। उम्मीद है के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ उसकी ग़ुर्बत पर रहम करे और इस की रग़बत को बरुए कार लाए।
وآخردعوانا أن الحمدللّٰہِ ربّ العالمین

Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.