अल्लाह एक हक़ीक़त का नाम है न की फिक्र का


इस दुनिया में अल्‍लाह एक हक़ीक़त है जिसके वजू़द को मेहसूस किया जाता है ना कि वोह एक फिक्र है जिसको दिमाग में रखा जाता है। दुनिया में इस धरती पर कई ऐसे लोग है, खास तौर से पश्‍चिमी दुनिया में जो इस बात पर ईमान रखते है के अल्‍लाह (खुदा) है और उसमें वोह ईमान रखते है। लेकिन उनका ईमान और आस्‍था इस बात पर है के अल्‍लाह एक फिक्र का नाम है ना कि हक़ीक़त का।

उनका कहना है कि अल्‍लाह के वजू़द में यकीन रखना असल में एक फिक्र (सोच) है और यह अच्‍छी फिक्र है! वोह ऐसा इसलिए भी कहते है के काफी लम्‍बे समय से इंसान इस बात को समझता आ रहा है और इस बात पर यकीन करता हुआ आ रहा है और वोह अपने आप को किसी शक्ति के आगे सुपुर्द कर देता है, और इस तरीक़े से वोह बुराई से दूर रहता है और अच्‍छाई की तरफ आगे बढ़ता है। ऐसा इस सोच की वजह से हो पाता है जो कि वोह खुदा के बारे में अपने दिमाग में रखता है।

इसलिए वोह कहते है कि यह एक अन्‍दरूनी रूकावट है जो कि बाहरी रूकावटों से गुनाह/अपराध से रोकने के मामले में उसे बहुत ज्‍़यादा मुतास्सिर करती है। इसलिए वोह मानते है के खुदा में ईमान होना चाहिए, और खुदा में ईमान की हौसला अफ्जाई की जानी चाहिए, ताके लोग अच्‍छे बने रहे और एक दूसरे को भलाई की तरफ हौसला अफ्जाई करते रहे ताके उन्‍हें अंदरूनी तौर पर भलाई की तरफ रग़बत मिलें और इसको वोह ''धार्मिक रूकावट'' के नाम से पुकारते है . . . . . ।

ऐसे लोग बडी़ आसानी से नास्तिकता की तरफ आकर्षित होते है और वोह अपनी आस्‍था या अपने अक़ीदे से पलट जाने के बहुत करीब होते है. जब वोह बिना सोचे समझे खुदा को मानने की तरफ बड़ता है तो किसी भी वक्त वोह अपने अक़ीदे से या अपनी आस्‍था से फिर सकता है । अगर वोह अल्‍लाह तआला को महसूस नही करता, उसके वजू़द को महसूस नही करता, उसको समझता नही है और ना ही उसके वजू़द से प्रभावित होता है तो वोह खुदा के वजू़द का इंकार कर देगा और अल्‍लाह पर ईमान नही रखेगा।

इससे भी ज़रूरी बात यह है के अल्‍लाह पर ईमान को अगर सिर्फ एक सोच समझा जाए ना कि हक़ीक़त, तो इससे बुराई को भी एक सोच ही समझा जाएगा ना कि एक हक़ीक़त। उसके बाद एक इंसान किसी भी अमल को उस हद तक ही अमल में लाएगा जब तक कि वोह उस अच्‍छाई को एक फिक्र की तरफ समझेगा और फिर वोह उसे जब चाहेगा उसे छोड़ देगा।

आखिर क्‍या वजह है इस तरह की ईमान रखने की। इस तरह के ईमान रखने की वजह यह है के यह लोग खुदा को मानने के ताल्‍लुक से अपनी अक्‍़ल का इस्‍तमाल नही करते और अक्‍़ल के ज़रिए अल्‍लाह पर ईमान तक नही पहुँचते। ज़िन्‍दगी की सबसे पेचिदा समस्‍या का हल तलाश नही करते, जो कि एक फितरी सवाल है यानी क़ायनात, इंसान और हयात के बारे में और ज़िन्‍दगी के पहले और ज़िन्‍दगी के बाद और इनका आपस में क्‍या सम्‍बन्‍ध है बल्‍के वोह उसी पर ही भरोसा करते है जो कुछ उन्‍हें डिक्‍टेड (बता दिया गया/ या सुनी सुनाई बात) कर दिया गया है, उनके डिक्‍टेड करने वाले लोगों की तरफ से जिनके सामने वोह अपने आप को इस समस्‍या के समाधान के लिए सूपुर्द कर देते है और आस्‍था और ईमान रखने वाले बन जाते है, बिना उस चीज़ के वजू़द के समझे हुए जिस पर वोह ईमान रखते है।

उनमें से कई लोग कोशिश भी करते है अपने दिमाग को इस्‍तमाल करने की, मगर उन्‍हें इस बात का जवाब दिया जाता है के धर्म को समझना अक्‍़ल से परे है और उनको मज़बूर किया जाता है के वोह खामोश हो जाए। हक़ीक़त यह है के अल्‍लाह एक हक़ीक़त है ना कि एक फिक्र (विचार) और उसके वजू़द को महसूस किया जा सकता है और उसकी कुदरत को देखकर और समझकर छूआ जा सकता है।

हक़ीक़त यह है के अल्‍लाह तआला एक सच्‍चाई है ना कि विचार (फिक्र) है और उसके वज़ूद महसूस किया जा सकता है हालॉंकि उसकी असली फितरत (वस्फ) को समझना नामुम्‍किन है या इंसान की बुद्धि के लिए मुम्‍किन नही है।

क्‍या आप देखते नही है के एक इंसान एक आसमान में उड़ने वाले हवाई जहाज की गड़गडा़हट की आवाज सुनता है, लेकिन उसको देख नही सकता, क्‍योंकि वोह कमरे के अंदर बैठा हुआ है। हालॉंकि आवाज सुनने की क्षमता के कारण उसे उसके वज़ूद का लगातार अहसास होता रहता है। हालॉंकि वह उसे देखता नही है और वोह उसको महसूस नही करता, अपने आप में यानी कि उसकी ''फितरत'' को।

इस तरह वोह हवाई जहाज के वजू़द को आसमान में होने पर ईमान लाता है, उसकी आवाज को सुनने के सबब यानी वोह इस बात को क़बूल करता है यक़ीन के साथ, पूरे इत्‍मिनान के साथ के हवाई जहाज का वजू़द है। इससे यह पता लगता है के हवाई जहाज के वजू़द को महसूस करना इस बात से अलग है के उसकी फितरत को पहचाना या समझा जाए।

उसके वजू़द का अहसास एक अक्‍़ली चीज़ है जिसको उसकी आवाज़ के अहसास से महसूस किया जा सकता है। चूँनाचे हवाई जहाज का वजू़द एक हक़ीक़त है ना कि एक फिक्र (सोच) इसके अलावा जिन चीज़ों को महसूस किया जाता है उन्‍हें समझा भी जाता है : यानी उनका वजू़द एक निश्‍चित (कतई) मामला है क्‍योंकि उनको महसूस किया जाता है और उनको देखा जाता है और दूसरों की ज़रूरत होना भी एक कतई मामला है क्‍योंकि इसको भी देखा जाता है और महसूस किया जाता है। इसी तहर आसमानी ग्रह भी ज़रूरतमंद है अपनी व्‍यवस्‍था के लिए ; और उसी तरह आग भी जलने के लिए, इस बात के लिए कि उसका कौन इस्‍तमाल करेगा और इससे पता लगता है कि हर महसूस की जाने वाली चीज़ किसी चीज़ की ज़रूरत में है।

जो ज़रूरतमंद है वोह कभी भी अब्‍दी (eternal) और अनन्‍त नही हो सकता, क्‍योंकि अगर वोह अब्‍दी है तो वोह दूसरो के बिना चल सकता था, तो इससे नतीजा निकला के ज़रूरतमंद होना का दूसरा माअने यह है के वोह अब्‍दी नही है। इसलिए हर वोह चीज़ जो महसूस की जाती है, उसे पैदा किया गया है और यह एक निश्‍चित मामला है, क्‍योंकि जो भी खत्‍म होने वाली चीज़ें है, उसका मतलब यह है कि उसका कोई खालिक है।
इस मख्‍लूक को महसूस करना जिस तरीक़े से हवाई जहाज की अवाज को महसूस किया जाता है. यह एक निश्‍चित और क़तई मामला है और उसी तरह से उस खालिक के वजू़द का जिससे यह बाकि मख्‍लूक निकली है या पैदा हुई है. उसी तरह से जिस तरह से हवाई जहाज का वजू़द है. जिससे अवाज़ निकल रही है और यह एक निश्‍चित मामला है. इसलिए मख्‍लूक के खालिक के होने का वजू़द एक क़तई मामला है।

इससे पता चला कि इंसान मख्‍लूक को महसूस करता है अपने हवासे खमसा से और अपने दिमाग से और उनके वजू़द को महसूस करने से वोह उनके खालिक के वजू़द को भी यकीनी तौर पर महसूस कर सकता है। यानी खुदा का वजू़द एक हक़ीक़त है जिसे इंसान अपने हवासे ख़मसा से महसूस करता है और ना कि यह सोच/फिक्र है जो इंसान अपने दिमाग में रखता है। इससे नतीजा निकलता है के खालिक को अब्‍दी होना चाहिए, क्‍योंकि अगर वोह अब्‍दी नही है तो इसका मतलब वोह ज़रूरतमंद है और अगर वोह ज़रूरतमंद है तो वोह खुद मख्‍लूक है।

चूँकि प्रकृति भी अब्‍दी और अनन्‍त नही है ऐसा इसलिए है क्‍योंकि वोह एक खास अनुपात और एक खास हालत में रहती है। इससे पता चलता है कि वोह इस अनुपात और इस हालत की मोहताज़ और ज़रूरतमंद है। कोई भी माद्दा (प्रदार्थ) अब्‍दी नही है, क्‍योंकि वोह भी इस बात का मोहताज़ और ज़रूततमंद है के वोह एक हालत से दूसरी हालत में तब्‍दील नही हो सकता, सिवाए इस हालत के एक खास अंदाज में और खास अनुपात में मल्‍टीप्‍लाई होता है और वोह इस अनुपात से बंधा हुआ होता है।


 इससे पता लगता है के वोह मोहताज़ और ज़रूरतमंद है। उसी तरह से प्रकृति भी खालिक नही है, क्‍योंकि ना तो वोह अमर और अब्‍दी है और प्रदार्थ भी खालिक नही है क्‍योंकि वोह भी अब्‍दी नही है। अक्‍़ल से यह बात साबित होती है के खालिक अल्‍लाह सुबाहनहू व ताअला है जो सर्वोपरि है यानी कि सबसे अमर और अब्‍दी है जिसको लोग अल्‍लाह या खुदा या ईलाही या दूसरे नामों से जानते है जो कि सबसे पुराना और अब्‍दी खालिक है। इससे पता लगा कि अल्‍लाह एक हक़ीक़त है जिसके वजू़द को महसूस किया जा सकता है हर तरफ उसकी तखलीक़ के वजू़द से। जब इंसान अल्‍लाह से डरता है तो वोह ऐसे वजू़द से डर रहा होता है जो हक़ीक़त में मौजूद है और उसके वजू़द को अपने हवासे खमसा (इंद्रिया) से महसूस करता है। जब इंसान अल्‍लाह की ईबादत करता है, तो वोह ऐसे वजू़द की ईबादत करता है जो कि हक़ीक़त में मौजू़द है और उसके वजू़द की मौजूदगी को (उसकी मखलूक़ के वजूद से) देख सकता है । इसलिए इंसान अल्‍लाह से डरता है उसकी ईबादत करता है और उसकी रज़ा चाहता है यकीन के साथ और इसमें कोई शक़ की गुंजाईश नही होती यानी कि जब वोह अल्‍लाह ताअला की रज़ा चाहता है तो वोह एक ऐसे वजू़द की रज़ा चाहता है जो हक़ीक़त में मौजूद है और उसके वजू़द को महसूस किया जा सकता है।  
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