बिदअत

''बिदअत'' हर वो फे़अल (कार्य) है जो शरअ (शरियत) के मुख़ालिफ़ (विरूध) हो। अलबत्ता कई अफ़आल (कार्यो) के लिए शरअ आम दलील के साथ आई है, चुनांचे उन्हें बिदअत में दाख़िल नहीं किया जाएगा जैसे कैमिस्ट्री की तालीम हासिल करना क्योंकि ये फे़अल (कार्य) इल्‍म हासिल करने की आम दलायल (दलीलों) के तहत है।

यही मामला मसाजिद (मस्जिदों) के गुंबद तामीर करने या बिजली से मस्जिद को रोशन करने का है। इन तमाम मिसालों को बिदअत में शामिल नहीं किया जाएगा बावजूद ये के इनका वजूद रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के ज़माने में नहीं था, ये इसलिए क्योंकि उनके दलायल (दलीलें) आम हैं ।

बिदअत का इतलाक़ (लागू होना) सिर्फ़ उन अफ़आल (कार्यो) पर होता है शरअ ने जिनकी कैफ़ीयत की तहदीद व तकीयद कर दी हो, यानी उनको तय और उनकी हदबंदी (सीमा) कर दी है। शरई नुसूस के इस्तिक़रा से ये समझा गया है कि शरअ ने फ़क़त (सिर्फ) इबादात की कैफ़यात को तय किया है, सिवाए जिहाद के। जिहाद और ग़ैर-इबादात में शरअ ने आमाल की हदबंदी नहीं की बल्कि तसर्रुफ़ात की हदबंदी की है। और तसर्रुफ़ात की ख़िलाफ़वर्जी़ बिदअत नहीं, बल्कि दलील के मुताबिक़ हराम या मकरूह कहलाती है।

मसलन 'जवाइंट स्टाक कंपनी' को बिदअत नहीं कहा जाएगा बावजूद यह कि ये शरअ के मुख़ालिफ़ (विरूध) है, उसे हराम कहा जाएगा क्योंकि ये तसर्रुफ़ात में से है और शरअ में शिरकत के दलायल के मुताबिक़ नहीं। इसी तरह कुफ़्फ़ार (काफिरों) को दावत देने से क़बल (पहले) उनसे क़िताल करना बिदअत नहीं बल्कि नाजायज़ कहलाएगा बावजूद यह के क़िताल आमाल (कार्यो) में से है ना कि तसर्रुफ़ात में से, मगर शरअ ने जिहाद की कैफ़ीयत को तय नहीं किया।

इसी तरह शरअ ने ज़िक्र व दुआ की कैफ़यात को भी खास नहीं किया यानी किसी मुअय्यन वक़्त या मुअय्यन हालत की क़ैद नहीं लगाई। पस नमाज़ के बाद नमाज़ियों का एक दूसरे को तक़ब्बुल अल्लाह कहना बिदअत नहीं है, और यही हाल तस्बीह करने का है कि अगरचे अल्लाह ताअला ने तुलूअ शम्स और मग़रिब के बाद इसका हुक्म दिया है लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि दिन के दौरान या आधी रात को तस्बीह करना बिदअत है, बल्कि ये बाइसे सवाब होगा।

बिदअत की मिसाल ये है कि अल्लाह ताअला ने मग़रिब की तीन फ़र्ज़ रकात बताई हैं लेकिन कोई शख़्स तीन की बजाय क़सदन चार रकात अदा करे। चूँकि यहां तीन रकात मख़सूस (खास) हैं यानी कैफ़ीयत की हदबंदी, तो इसलिए उस शख़्स का ये फे़अल (कार्य) शरअ के मुख़ालिफ़ (विरूध) होगा और इस सूरत में ये बिदअत कहलाएगा जो कि हराम है। इसी तरह अज़ान के अलफ़ाज़ (शब्‍दों) को भी शरअ ने तय कर दिया है, इसलिए इनमें कमी या ज़्यादती करना भी बिदअत कहलाएगा। इस्लाम में बिदअत की कोई तक़सीम नहीं है यानी बिदअते हसना और बिदअते सय्या, बल्कि हर बिदअत मज़मूम (बुराई) है क्योंकि इस बारे में रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का ये फ़रमाने आम है :

کل بدعۃ ضلالۃ
''हर बिदअत गुमराही है।''


जहां तक जमाऐ क़ुरआन, शरई उलूम की तदवीन और दूसरे तकनीकी और इंतिज़ामी उमूर (मामलात) वग़ैरा की बात है, तो उनका बिदअत से कोई ताल्लुक़ (सम्‍बन्‍ध) नहीं, उनके अपने-अपने शरई दलायल (दलीलें) मौजूद हैं। चुनांचे ये कहना ग़लत है कि जिन अफ़आल (कार्यो) को रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) या सहाबाए किराम (رضی اللہ عنھم) ने अंजाम नहीं दिया, या वो उनके ज़माने में वाक़ेअ (घटित) नहीं हुए, तो वो बिदआत हैं, क्योंकि कई अफ़आल (कार्य) ऐसे हैं जिन्हें उन्होंने अंजाम नहीं दिया था और ना ही वो उनके ज़माने में वाक़ेअ हुए थे लेकिन वो, अपने-अपने दलायल (दलीलों) के तहत, शरई नुसूस से साबित हैं। दूसरे लफ़्ज़ों (शब्‍दों) में, आयात व अहादीस के उमूम (मामलात) इन अफ़आल (कार्यो) को शामिल हैं।
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