ख़ालिस इस्लाम पर चलने के सही उसूल

गैर-मुस्लिमों क़ौमो के त्योहार मे कई बार कुछ कम इल्म मुसलमान या सेक्यूलरवादी मुसलमानों भाग लेते हुए देखने मे आते है. यह सिलसिला अब आवाम के कुछ हिस्से तक महदूद नही रहा बल्की कुछ मुस्लिम देशो के हुक्मरान भी ऐसी तक़रीबो मे हिस्सा लेकर लोगों को इसकी क़ौमी अहमियत मुसलमानों के दिलो-दिमाग मे बिठाने की कोशिश करते है. इस तरह से यह मुसलमानो को गैर-इस्लामी तहज़ीब मे ज़म होना सिखाते है.

हिंदुस्तान मे गैर-इस्लामी सियासी पार्टियों के नेता हिंदू और दूसरे मज़हबी प्रोग्रामो मे बडे फख्रिया अंदाज़ मे शामिल होते दिखाई देते है बल्की मुबारकबाद के बडे बडे होर्डिंग को चौराहों पर पेवस्त किया जाता है.

मुस्लिम अवाम के कुछ गिरोह इस पर एतराज़ भी करते है की इन हिन्दुआना रस्म और तहवार को मनाने की इस्लाम में कोई गुंजाइश नहीं। जबकि दूसरे गिरोह का खयाल था कि आख़िर मज़हबी रवादारी और हिंदू मुस्लिम भाईचारे के पेशे नज़र एक तहवार मना ही लिया तो इसमें क्या हर्ज है।

इसी तरह बसंत के हवाले से अवाम में काफ़ी कनफ्यूज़न पाई जाती है। जहां एक तरफ़ अवाम का एक बड़ा हिस्सा उसे अपने मज़हब और रवायात से मुतसादिम (उलट) होने के बाइस पसंद नहीं करता। वही दूसरी तरफ़ मल्टीनेशनल कंपनीयों की इश्तिहारी मुहिमों और सरकारी सरपरस्ती से मुतास्सिर होकर बेशुमार लोग ये दलील पेश करते हैं कि इस्लाम में ख़ुशी मनाने या पतंग उड़ाने की कोई मनाही नहीं तो फिर बसंत मनाना क्योंकर हराम हो गया। यही सूरते हाल कई दूसरे मामलात में भी देखी जा सकती है।

इसी तरह हाल में अमरीका में ''आमना वदूद'' की इमामत में अदा होने वाली मख़लूत (औरत मर्द की एक साथ मौजूदगी वाली नमाज़)  नमाज़े जुमा ज़ेरे बहस रही। इस गिरोह का कहना ये था कि चूँकि औरत की इमामत की मुमानअत में कोई सरीह आयत या हदीस वारिद नहीं हुई लिहाज़ा ऐसा करना जायज़ है। जबकि उम्‍मत इस फे़अल को इसलिए हराम समझती हैं क्योंकि क़ुरआन और सुन्‍नत से औरत की इमामत का कोई सबूत नहीं मिलता।

इसी तरह स्टाक ऐक्सचेंज (शेयर बाजार) को उन लोगों ने जायज़ ठहरा लिया है जिनका कहना है कि इस्लाम में चूँकि स्टाकस के बारे में वाज़ेह दलील मौजूद नहीं, इसलिए ये इक्तिसादी (आर्थिक) गुब्बारा यक़ीनन हलाल होगा।

यही मामला इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राईट्स (intellectual property or Copy Right) और पेटैंट जैसे कई मग़रिबी क़वानीन का भी है जिन्हें हुकूमत ने सिर्फ इसलिए अपनाया और लागू किया है कि वो क़ुरआन और सुन्‍नत की किसी वाज़ेह नस के ख़िलाफ़ नहीं।

एक गिरोह के नज़दीक टी.वी., डिश, केबल इंटरनेट और दूसरी जदीद ईजादात काफ़िरों और शैतान के हथियार हैं जिनसे मुसलमानों को नुक़्सान पहुंच रहा है और इस्लाम में उनकी कोई गुंजाइश नहीं। जबकि दूसरे गिरोह के नज़दीक ये तमाम अशीया जायज़ हैं और इस्लामी हदूद के दायरे में रहते हुए मुसलमानों की बेहतरी और भलाई और इस्लाम की तब्लीग़ के मक़ासिद के लिए इस्तिमाल की जा सकती हैं।

मज़कूरा बाला (ऊपर लिखे) मसाइल और उन जैसे दीगर मसाइल पर उम्मत फ़िक्री तौर पर इंतिशार (बिखराव) का शिकार है जिसकी वजह से हम बहैसियत क़ौम आगे बढ़ने की बजाय एक सीमित दायरे में घूम रहे हैं।

सवाल ये है कि:

* आख़िर इस इंतिशार और उम्मत के मसाइल का हल क्‍या है?

* इस्लाम में किन अशीया (चीजों) का इस्तिमाल हराम है और कौन-कौन से अफ़आल (कार्य) बुरे हैं?
* आख़िर इस्लाम हमें अशीया और अफ़आल के बारे में क्या उसूल फ़राहम (उपलब्‍ध) करता है जिसकी बदौलत हम साईंसी तरक़्क़ी करने के साथ-साथ अपना इस्लामी तशख़्ख़ुस (खासियत) भी बरक़रार रख सकें?

* नीज़ ये कि हम मग़रिब से क्या-क्‍या ले सकते हैं और क्या कुछ लेना क़तअन हराम है?

यक़ीनन इस जवाब के लिए किसी बुनियादी माख़ुज़ (स्‍त्रोत) की तरफ़ रुजू करना ज़रूरी है और हमारे लिए ये बुनियादी माख़ुज़ क़ुरआन और सुन्‍नत ही हैं। पस आईए क़ुरआन और सुन्‍नत की रोशनी में उन मसाइल का जायज़ा लें और देखें कि इस्लाम किस तरह हमारी कनफ्यूज़न दूर करता और एक वाज़ेह हल फ़राहम करता है।

शरीयत अशीया (वस्‍तुओं) और अफ़आल (कार्यो) के माबैन फ़र्क़ करती है और उनसे सम्‍बन्धित दो अलग-अलग उसूल बयान करती है। ये दोनों उसूल कलीदी (fundamental principal) की हैसियत के हामिल हैं क्योंकि ये इस्लामी निज़ाम के बारे में हमारे Paradigm और Frame of Mind (फिक्र के ढांचे) को मुतय्यन करते हैं। फुक़हा ने इन उसूलों की तारीफ़ कुछ इस अंदाज़ में की है :

(1) अलअसल फिल अशिया अल अबाहा
यानी तमाम अशीया अस्लन मुबाह (जायज) हैं सिवाए उनके जिन्हें क़ुरआन या हदीसे नबवी (صلى الله عليه وسلم) ने हराम ठहराया हो।

(2) अलअसल फिल अफआल अल तकीद बिल हुक्‍मुल शरई

यानी तमाम अफ़आल ना तो अस्लन मुबाह हैं ना हराम बल्कि इसमें शारेह (अल्लाह سبحانه وتعالى) के अहकाम को तलाश करके उन पर अमल दरआमद करना फ़र्ज़ है। किसी भी फे़अल पर फ़र्ज़, मंदूब (मुस्तहब), हराम, मकरूह या मुबाह में से कोई एक हुक्मे शरई लागू होता है जिसको शरई दलील की बिना पर जाना जाता है। एक अमल मुबाह भी सिर्फ़ उसी वक़्त माना जाता है जब इसके करने या ना करने का इख्तियार शारेह ने मुकल्लिफ़ को अता किया हो।
ये समझना कि किसी भी अमल से मुताल्लिक़ शरीयत ख़ामोशी इख्तियार कर ले तो वो ख़ुदबख़ुद मुबाह हो जाता है दरहक़ीक़त ग़लती पर मबनी है। क्योंकि शरीयत किसी भी अमल पर ख़ामोश नहीं।

इससे पहले कि इन दोनों उसूलों के तफ़सीली दलायल पेश किये जाए इन उसूलों की एहमियत समझना बहुत ज़रूरी है। गो कि कुरूने ऊला के मुसलमान इन उसूलों के बारे में किसी धुंधलेपन का शिकार ना थे लेकिन गुज़श्ता डेढ़ सदी के दौरान मुसलमानों ने इन दोनों उसूलों में तफ़रीक़ (फर्क़) ना करके बेहद नुक़्सान उठाया। अक्सर लोगों ने अफ़आल का उसूल अशीया (वस्तु/चीज़ो) पर लागू करके हर नई चीज़ पर हुर्मत (हराम) का लेबल लगा दिया। इनका कहना ये था कि इन अशीया की हिल्लत के बारे में चूँकि क़ुरआन और सुन्‍नत से दलील नहीं मिलती लिहाज़ा ये सब हराम हैं।  चुनांचे लाऊड स्पीकर, प्रिंटिंग प्रैस और टेलीफ़ोन वग़ैरा जैसी अशीया भी हराम क़रार पाइं। यूं इस्लाम को एक रजत पसंदाना और जामिद मज़हब बना दिया गया जिसमें टेक्नोलोजी और ईजादात के लिए कोई जगह ना थी।

इसी ग़लती को बुनियाद बनाकर मुशर्रफ़ जैसे सैकूलर हज़रात आज भी इस्लाम पर तान-ओ-तशनीअ (व्‍यंग्‍य) के तीर चलाते और उसे पुराना क़रार देते हैं। दूसरी तरफ़ एक और जमात ने अशीया का उसूले फ़िक़हीया अफ़आल (कार्य/actions) पर भी मुंतबिक़ कर दिया जिसके नतीजे में सरमायादाराना मईशत, अदालती निज़ाम, मग़रिबी तर्ज़ हुक्मरानी वग़ैरा को चंद कॉस्मेटिक तब्‍दीलियों के बाद इस्लामी क़रार देकर क़बूल कर लिया गया।

यूं इस्लाम को महिज़ एक मज़हब बनाकर सरमायादाराना निज़ाम के पहलू में एक मौअदिब ग़ुलाम बनाकर खड़ा कर दिया गया जिसके पास अपना कोई इक्तिसादी (आर्थिक), हुकूमती, अदालती, मुआशरती (सामाजिक) निज़ाम ना था बल्कि इसका काम हर सरमायादाराना क़ानून और उसूल पर ये कह कर हलाल की मुहर सबुत करना था कि क़ुरआन और सुन्‍नत में इस मग़रिबी क़ानून के बारे में कोई सरीह नही वारिद नहीं हुई। ये वही पुरअम्‍न और compatible इस्लाम है जो मौजूदा गलोबलाईज़ीशन के दौर में सरमायादाराना निज़ाम और अमरीका की ज़रूरत है। इस compatible इस्लाम से इस बात का तक़ाज़ा करना कि वो मौजूदा वर्ल्ड आर्डर (सांसारिक आदेश) के मुक़ाबले में इंसानियत को कोई और आर्डर या निज़ाम फ़राहम कर सकता है, दीवाने का ख्‍वाब है।

इस्लाम को रजतपसंदी और मग़रबियत (पश्‍चिम) की मज़कूरा बाला इंतिहाओं (अति) से बचाने के लिए ये बात निहायत ही ज़रूरी है कि हम अशीया (वस्तुओं) और अफ़आल (कार्यों) से मुताल्लिक़ उसूले फ़िक़हीया को बग़ौर समझें और उन उसूलों का इतलाक़ उनके अपने-अपने दायरा कार में करें। आईए अब इन दोनों उसूलों का बग़ौर जायज़ा लें और देखें कि फुक़हाए ने इन उसूलों को किन आयात और अहादीस से अख़ज़ किया है।

पहले उसूल के मुताबिक़ उमूमी तौर पर तमाम अशीया इंसानों के तसर्रुफ़ (इख्तियार) और इस्तिमाल के लिए मुबाह कर दी गई हैं सिवाए वो जिनके बारे में शरीयत ने नही बयान कर दी हो। इस उसूल को दर्जा जे़ल आयात से अख़ज़ किया गया है। मसलन कई आयते क़ुरआनी इजमालन अशीया का मुबाह (जायज़) होना बयान करती हैं। मसलन :

ھُوَ الَّذِىْ خَلَقَ لَكُمْ مَّا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا    ۤ  ثُمَّ اسْتَوٰٓى اِلَى السَّمَاۗءِ فَسَوّٰىھُنَّ سَبْعَ سَمٰوٰتٍ    ۭ  وَھُوَ بِكُلِّ شَىْءٍ عَلِيْمٌ     29؀ۧ
''वो ज़ाते पाक ऐसी है जिसने पैदा किया तुम्हारे फ़ायदे के लिए जो कुछ भी ज़मीन में मौजूद है सबका सब।''  (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलबक़रह : 29)
बाअज़ आयात में उमूमी तौर पर इबाहत बयान की गई है :

اَلَمْ تَرَوْا اَنَّ اللّٰهَ سَخَّرَ لَكُمْ مَّا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ وَاَسْبَغَ عَلَيْكُمْ نِعَمَهٗ ظَاهِرَةً وَّبَاطِنَةً ۭ وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يُّجَادِلُ فِي اللّٰهِ بِغَيْرِ عِلْمٍ وَّلَا هُدًى وَّلَا كِتٰبٍ مُّنِيْرٍ   20؀
''क्या तुम लोग नहीं देखते कि अल्लाह तआला ने तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र कर दिया है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है और इसने तुम पर अपनी नेअमतें ज़ाहिरी और बातिनी पूरी कर दी हैं।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह लुकमान:20)
मज़ीद इरशाद है :

الَّذِىْ جَعَلَ لَكُمُ الْاَرْضَ فِرَاشًا وَّالسَّمَاۗءَ بِنَاۗءً   ۠   وَّاَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَخْرَجَ بِهٖ مِنَ الثَّمَرٰتِ رِزْقًا لَّكُمْ   ۚ   فَلَا تَجْعَلُوْا لِلّٰهِ اَنْدَادًا وَّاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ    22؀

''और बरसाया आसमान से पानी फिर इस (पानी) के ज़रीये फलों को बतौर ग़िज़ा तुम लोगों के वास्ते निकाला।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलबक़रह : 22)
और फ़रमाया :

قُلْ مَنْ حَرَّمَ زِيْنَةَ اللّٰهِ الَّتِيْٓ اَخْرَجَ لِعِبَادِهٖ وَالطَّيِّبٰتِ مِنَ الرِّزْقِ  ۭقُلْ هِىَ لِلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا خَالِصَةً يَّوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭكَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ   32؀
''आप फ़रमाईए कि अल्लाह तआला की पैदा की हुई ज़ीनत को जिसको इसने अपने बंदों के वास्ते बनाया है और खाने पीने की तय्यब (पाक़) चीज़ों को, किस शख़्स ने हराम किया है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलअराफ़ : 32)
अलबत्ता बाअज़ अशीया को मजमूई इबाहत के हुक्म से मुस्तसना (बरी) करके हराम ठहराया गया है मसलन:

اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ بِهٖ لِغَيْرِ اللّٰهِ ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ   ١٧٣؁
''अल्लाह तआला ने तो तुम पर हराम किया है मुर्दार को और ख़ून को (जो बहता हो) और ख़िंज़ीर के गोश्त को और ऐसे जानवर को जो ग़ैरूल्‍लाह के लिए नामज़द कर दिया हो।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलबक़रह : 173)
मज़ीद इरशाद है :

قُلْ لَّآ اَجِدُ فِيْ مَآ اُوْحِيَ اِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلٰي طَاعِمٍ يَّطْعَمُهٗٓ اِلَّآ اَنْ يَّكُوْنَ مَيْتَةً اَوْ دَمًا مَّسْفُوْحًا اَوْ لَحْمَ خِنْزِيْرٍ فَاِنَّهٗ رِجْسٌ اَوْ فِسْقًا اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ بِهٖ   ۚ  فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَاِنَّ رَبَّكَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ   ١٤٥؁
कह दीजिए कि जो कुछ अहकाम बज़रीया वही मेरे पास आए हैं इनमें तो मैं, किसी खाने वाले के लिए जो उसको खाए, कोई हराम ग़िज़ा पाता नहीं मगर ये कि वो मुर्दार (जानवर) हो या ये कि बहता हुआ ख़ून हो।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलअनाम : 145)

चुनांचे तमाम वास्तविक/छूने योग्य (Tangible objects) और ईजादात मसलन टी.वी., डी वी डी, क्लोनशुदा जानवर और पौधे वग़ैरा मुबाह हैं और उन्हें किसी भी क़ौम और मुल्‍क से अख़ज़ किया जा सकता है सिवाए उन अशीया के, जिनके बारे में क़ुरआन और सुन्नत में नही  (मनाही) वारिद हुई हो। पस हम अशीया में से मुजस्समों, बुतों, ख़मरावर (नशीली) ख़मर (शराब) से बनने वाली अशीया वग़ैरा को नहीं अपना सकते क्योंकि उनके बारे में वही मौजूद है। इसी तरह हर वो चीज़, रिवाज या फ़ैशन जो किसी और मज़हब, नज़रिए या क़ौम के साथ ख़ास हो वो भी हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के फ़रमान के मुताबिक़ अपनाना हराम है। क्योंकि हदीसे मुबारका है :
من تشبہ بقوم فھو منھم
''जिसने किसी क़ौम के साथ मुशाबहत इख्तियार की वो इन्ही में से है।'' (अबू दाऊद)

चुनांचे इस हदीस के मुताबिक़ हर शैय जो अस्लन मुबाह थी अब इसलिए हराम क़रार पाती है क्योंकि वो किसी क़ौम, मज़हब या तहज़ीब की निशानी या पहचान बन गई हो। चुनांचे माथे पर कोई रंग लगाना अस्लन (originally) मुबाह है लेकिन चूँकि ये हिंदूओं की मज़हबी रसूम का हिस्सा है और सदीयों से उनके साथ मख़सूस हो चुका है इसलिए हदीस की रू से मुसलमानों के लिए ऐसा करना हराम होगा। चुनांचे मुसलमानों के लिए माथे पर तिलक लगाना या मांग में सिंदूर भरना हराम है। इसी तरह सलीब जैसी मलमूस शए को पहनना या घर में लटकाना भी हराम है क्योंकि ये ईसाईयों के अक़ीदे से निकलती है और उनके लिए ख़ास है।

अलबत्ता अशीया से मुताल्लिक़ उमूमी इबाहत का ये क़ाअदाए फ़िक़हीया अफआले इंसानी पर मुंतबिक़ नहीं होता। अफ़आल से मुताल्लिक़ क़ाअदाए फ़िक़हीया ये है कि हर फे़अल करने से पहले इसके बारे में शरई हुक्म से आगाही हासिल करने के बाद इस हुक्म पर अमल किया जाएगा। क़ुरआन में बेशतर आयात में अल्लाह ने मुसलमानों को अल्लाह के अहकामात पर सख़्ती से अमल करने और ग़ैरूल्‍लाह की इत्तिबा से इज्तिनाब (किनारा करने) का हुक्म दिया है। नीज़ ऐसी कोई आयत नहीं जो अफ़आल की उमूमी इबाहत पर दलालत करती हो। इरशादे बारी तआला है :

وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ الْكِتٰبِ وَمُهَيْمِنًا عَلَيْهِ فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۗءَهُمْ عَمَّا جَاۗءَكَ مِنَ الْحَقِّ ۭ لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنْكُمْ شِرْعَةً وَّمِنْهَاجًا  ۭوَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَجَعَلَكُمْ اُمَّةً وَّاحِدَةً وَّلٰكِنْ لِّيَبْلُوَكُمْ فِيْ مَآ اٰتٰىكُمْ فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِ ۭ اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ     48؀ۙ
''लिहाज़ा आप (صلى الله عليه وسلم) लोगों के दरमियान अल्लाह के नाज़िल करदा (अहकामात) के मुताबिक़ फ़ैसला करें। और जो हक़ तुम्हारे पास आ चुका है इससे मुँह मोड़कर उनकी ख्‍वाहिशात की पैरवी ना करें।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलमाइदा : 48)
और इरशादे बारी है :

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يَزْعُمُوْنَ اَنَّھُمْ اٰمَنُوْا بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَحَاكَمُوْٓا اِلَى الطَّاغُوْتِ وَقَدْ اُمِرُوْٓا اَنْ يَّكْفُرُوْا بِهٖ ۭ وَيُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّضِلَّھُمْ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا      60؀
''और ये लोग चाहते हैं कि अपने फ़ैसले ताग़ूत (ग़ैरूल्लाह) के पास ले जाएं। हालाँकि उऩ्हें हुक्म हो चुका है कि इस (ग़ैरूल्लाह) का इनकार कर दें।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलनिसा : 60)
अल्लाह तआला ने मुसलमानों को शरीयत इस्लामी के अलावा किसी और नज़रिए या मज़हब से कुछ अपनाने से मना फ़रमाया है। इरशाद है :

فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ حَتّٰي يُحَكِّمُوْكَ فِيْمَا شَجَــرَ بَيْنَھُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوْا تَسْلِــيْمًا      65؀
''(ऐ मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) तुम्हारे रब की क़सम! ये उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकते जब तक कि ये आप को अपने इख्तिलाफ़ात में फ़ैसला करने वाला ना बना लें।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलनिसा : 65)
अल्लाह तआला ने हम पर उस चीज़ को इख्तियार करने का हुक्म दिया है, जो रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) लेकर आए और हर इस काम से रुक जाने का हुक्म दिया है, जिससे रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मना फ़रमाया है। इरशाद है :

مَآ اَفَاۗءَ اللّٰهُ عَلٰي رَسُوْلِهٖ مِنْ اَهْلِ الْقُرٰى فَلِلّٰهِ وَ لِلرَّسُوْلِ وَ لِذِي الْقُرْبٰى وَالْيَـتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَابْنِ السَّبِيْلِ ۙ كَيْ لَا يَكُوْنَ دُوْلَةًۢ بَيْنَ الْاَغْنِيَاۗءِ مِنْكُمْ ۭ وَمَآ اٰتٰىكُمُ الرَّسُوْلُ فَخُذُوْهُ    ۤ وَمَا نَهٰىكُمْ عَنْهُ فَانْتَهُوْا  ۚ وَاتَّقُوا اللّٰهَ    ۭ اِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ     Ċ۝ۘ

''और रसूल तुम्हें जिस चीज़ का भी हुक्म दें इसे इख्तियार कर लो और जिस चीज़ से मना कर दें, इससे रुक जाओ।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलहशर : 7)
इस आयत में 'मा' उमूम के लिए है। चुनांचे आयत का मफ़हूम ये है कि हम रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के हर हुक्म को इख्तियार करें और हर उस चीज़ से बाज़ रहें, जिससे मना किया गया है। और आयत का ये भी मफ़हूम है कि रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के लाए हुए अहकामात के अलावा किसी और नज़रिए, क़ानून या मज़हब से किसी हुक्म को ना अपनाया जाये। इन आयात के अलावा अहादीस नबी (صلى الله عليه وسلم) भी मुसलमानों को बड़ी सख़्ती के साथ इन तमाम अफ़आल और क़वानीन से दूर रहने का हुक्म देती हैं जिनके करने का हुक्म क़ुरआन और सुन्‍नत में वारिद नहीं हुआ। रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

ومن أَحْدَثَ فی أمرنا ھذا ما لیس منہ فھو رَدٌّ
''जो कोई हमारे हुक्म (दीन) में कोई ऐसा हुक्म (क़ानून) दाख़िल करता है जो इस (दीन) में से नहीं तो वो (क़ानून) मर्दूद है।'' (मुस्लिम)

और फ़रमाया :
من عمل عملاً لیس علیہ أمرنا فھو رَدٌّ
''जो कोई भी एक ऐसा अमल करे जिसके (करने से मुताल्लिक़) हमारा हुक्म ना हो, तो वो (अमल) मर्दूद है।'' (मुस्लिम)

नीज़ फ़रमाया :

کُلُّ عَمَلٍ لَیْسَ عَلیْہِ اَمْرُ نَا فَھُوَرَدٌّ
''हर वोह अमल जिस पर हमारा हुक्म नहीं, तो वो मर्दूद है।''  

नीज़ फ़रमाया :
فما بال رجال یشترطون شروطاً لیست فی کتاب اﷲ؟ ما کان من شرط لیس فی کتاب اﷲ فھو باطل
''लोगों का क्या हाल है कि वो ऐसी शर्तें लगाते हैं जो अल्लाह की किताब में नहीं हैं? जो शर्त अल्लाह की किताब में ना होगी वो बातिल होगी।'' (बुख़ारी व मुस्लिम)

इन अहादीस से वाज़ेह हो गया कि कोई अमल जिसके करने से मुताल्लिक़ क़ुरआन और सुन्‍नत से दलील ना मिलती हो उसे करना हराम है। नीज़ ऐसी शराइत आइद करना जिनका वजूद क़ुरआन और सुन्‍नत में ना हो मर्दूद है।
इसी तरह किसी और निज़ाम या नज़रिए से क़वानीन अख़ज़ करके उन्हें इस्लामी निज़ाम में शामिल करना भी हराम है। चुनांचे इस्लाम किसी अमल के करने की इजाज़त सिर्फ़ उसी वक़्त देता है जब क़ुरआन और सुन्‍नत में इसके हक़ में सरीह या उमूमी दलील मौजूद हो। बसूरते दीगर वो अमल रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के इरशाद के मुताबिक़ मरदूद (हराम) होगा।
लिहाज़ा इन अहादीस से मालूम हुआ कि वह्यी की अदमे मौजूदगी ख़ुदबख़ुद किसी फे़अल को मुबाह नहीं बना देती। इन्ही आयात और अहादीस की मदद से फुक़हा ने अफ़आल के लिए ये उसूल अख़ज़ किया कि तमाम अफ़आल ना तो अस्लन मुबाह हैं ना हराम बल्कि हर फे़अल के लिए शारेह (अल्लाह سبحانه وتعالى) के अहकाम को तलाश करके इस पर अमल दरआमद करना फ़र्ज़ है।
यहां पर ये सवाल पूछा जा सकता है कि अगर हर अमल के लिए दलील चाहिए तो फिर चलने फिरने खाने पीने या इस जैसे आमाल के लिए भी क्‍या दलायल मौजूद हैं? यक़ीनन उनके लिए भी शरीयत में दलायल मौजूद हैं? दरहक़ीक़त इन तमाम अफ़आल को अफ़आल जिबिल्लियात कहा जाता है और ये सब भी इसलिए हलाल हैं क्योंकि शरीयत ने उमूमी दलायल के ज़रीये उन्हें हलाल क़रार दिया है। अल्लाह तआला क़ुरआन में फ़रमाते हैं :

قُلْ سِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ ثُمَّ انْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِيْنَ     11۝
''कहो ज़मीन में चलो फ़िरों और देखो कि इनका क्या हश्र हुआ जिन्होंने हक़ को झुटलाया।''  (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलअनआम : 11)

नीज़ फ़रमाया :

يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ خُذُوْا زِيْنَتَكُمْ عِنْدَ كُلِّ مَسْجِدٍ وَّكُلُوْا وَاشْرَبُوْا وَلَا تُسْرِفُوْا  ۚ اِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الْمُسْرِفِيْنَ    31؀ۧ
''खाओ पियो और इसराफ़ ना करो।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलअराफ़ : 31)

ये और उन जैसी दीगर आयात इस बात पर दलालत करती हैं कि खाने पीने, चलने फिरने और देखने सुनने जैसे तमाम अफ़आल इंसानी जिबल्लत का हिस्सा हैं और ये सबके सब मुबाह हैं। नीज़ ये तमाम जिबल्ली अफ़आल ख़ुद रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) और सहाबा (رضي الله عنه) किया करते थे और रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) ने उन पर सुकूत (खामोशी) फ़रमाया जो उनके मुबाह होने की एक और दलील है।

यही मामला दीगर तमाम अफ़आल का है जिनमें ख़रीद व फ़रोख़त, शिरकत, शादी ब्याह, तिजारत, ख़लीफ़ा का चुनाव वग़ैरा शामिल हैं जिनके अहकामात भी क़ुरआन और सुन्‍नत में वारिद हुए हैं। इन अहकामात से हटकर कोई और तरीका-ए-कार या क़वानीन अपनाना शरअन हराम है।

इसी तरह वो तमाम अफ़आल या रिवाज जो अस्लन हलाल थे वो भी इस सूरत में हराम ठहरेंगे अगर वो किसी ख़ास तहज़ीब, मज़हब या नज़रिए से फूटते हो या उनकी पहचान समझे जाते हो। क्योंकि हदीस मुबारका है :

من تشبہ بقوم فھو منھم
''जिसने किसी क़ौम के साथ मुशाबहत इख्तियार की वो इन्ही में से है।'' (अबू दाऊद)

चुनांचे पतंग उड़ाना या रंगों के साथ खेलना हलाल है। लेकिन बसंत के मख़सूस दिनों में बतौर तहवार पतंग उड़ाना हिंदूओं के साथ मुशाबेह होने के ज़ुमरे में आएगा लिहाज़ा ये अमल उन मख़सूस दिनों में हराम ठहरेगा। इसी तरह होली के दिनों में रंगों से खेलना भी हराम होगा। यही कुछ न्यू ईयर, क्रिसमिस, वैलनटाइन डे, हॉलो वैन वग़ैरा मनाने का मामला है। लेकिन इसके अलावा ऐसे मुबाह आमाल करना जिनका ताल्लुक़ किसी मज़हब या तहज़ीब से ख़ास ना हो और उसे मुख़्तलिफ़ कौमें बिना किसी खास पहचान के करती हो, हलाल हैम, चाहे सबसे पहले उसे किसी काफ़िर ही ने किया हो मसलन बास्केट बॉल या क्रिकेट खेलना, ख़ला (अंतरिक्ष) का सफ़र, जहाज़ या गाड़ी का इस्तिमाल, पेंट शर्ट या जैकेट का पहनना वग़ैरा।

सहाबा (رضي الله عنه) अफ़आल से मुताल्लिक़ उसूले फ़िक़हीया को समझते थे यही वजह थी कि वो हर नए फे़अल को मुबाह समझने की बजाय इसके बारे में आप (صلى الله عليه وسلم) से हुक्म दरयाफ्त फ़रमाते। और रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) भी उस वक़्त तक ख़ामोशी इख्तियार फ़रमाते जब तक कि वह्यी के ज़रीये उन्हें अल्लाह का हुक्म मालूम ना हो जाता। नीज़ इस दौरान सहाबा (رضي الله عنه) भी इस फे़अल से किनारा करते।
सहाबा (رضي الله عنه) इस क़दर इस उसूल पर कारबन्द थे कि उन्होंने एक साईंसी मसले (यानी ख़जूरों की अफ़्ज़ाइश के लिए की जाने वाली Cross-pollination) पर भी हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) से राय तलब की और आप (صلى الله عليه وسلم) की ज़ाती राय को भी हुक्मे शरई समझ कर इस पर अमल किया। लेकिन ऐसा करने से ख़जूरों की फ़सल अच्छी ना हुई। अगले साल जब वो लोग रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के पास आए और फ़सल का हाल बयान किया तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

إنما أنا بشر مثلکم، إِذا أمرتُکم بشیءٍ من أمر دینکم فخذوا بہ، وإذا أمرتکم بشیء من أُمور دنیاکم فإنما أنا بشر
''बेशक मैं तुम्हारे ही जैसा इंसान हूँ, अगर मैं तुम्हें किसी ऐसी शैय का हुक्म दूं जो तुम्हारे दीनी उमूर (अक़ाइद, निज़ाम, मामलात वग़ैरा) से मुताल्लिक़ हो तो उसे ले लो और अगर में तुम्हें किसी ऐसी शैय का हुक्म दूं जो तुम्हारे दुनियावी उमूर (साईंस और तकनीक) से मुताल्लिक़ हो तो फिर बेशक मैं इंसान ही हूँ।'' (मुस्लिम)

यहां दीनी उमूर से मुराद मईशत, हुकूमत, अदालत ग़रज़ इंसानी ताल्लुक़ात और अक़ाइद का अहाता करने वाले तमाम पहलू हैं जबकि दुनियावी उमूर से मुराद साईंस, टेक्नोलोजी और प्रोडक्शन है जैसाकि मज़कूरा बाला ख़जूरों की अफ़्ज़ाइश (Cross-pollination) का मामला था। उनके अलावा इंतिज़ामी उमूर से मुताल्लिक़ क़वानीन (Administrative Laws) भी दुनियावी उमूर के ज़ुमरे में आते हैं मसलन ट्रैफ़िक के क़वानीन, मैनेजमेंट के उसूल, एकाऊंटिंग सिस्टम वग़ैरा। शरीयत इनका कहीं से भी अख़ज़ करना मुबाह क़रार देती है सिवाए ये कि वो शरीयत से ना टकराते हो जैसा कि हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने अहले फ़ारस का दफ्तरी निज़ाम अपनाया जिस पर तमाम सहाबा (رضي الله عنه) का इजमा है। चुनांचे तमाम साईंसी उलूम मसलन तिब्ब, इंजीनियरिंग, रियाज़ी (गणित), फ़लकियात (astronomy), कीमिया (रासायन शास्‍त्र), फिज़िक्स (भौतिक शास्र), ज़राअत (खेती-बाडी), सनअत (उध्योग), मुवासलात, बहरी उलूम (Naval sciences), जुग़राफ़िया (भुगोल) और पैदावार की बढ़ोतरी के इल्‍म (production and manufacturing) वग़ैरा को किसी भी क़ौम या मुल्‍क से अपनाना जायज़ है। क्योंकि ये उलूम आफ़ाक़ी (universal) हैं और उनका किसी भी मज़हब या नज़रिए से कोई ताल्लुक़ नहीं।

लिहाज़ा उनको अपनाना उस वक़्त तक जायज़ है जब तक ये किसी इस्लामी हुक्म के ख़िलाफ़ ना हो। चुनांचे डार्विन के नज़रिया इर्तिक़ा को इख्तियार करना जायज़ नहीं क्योंकि इस नज़रिया के मुताबिक़ इंसान बंदर की इर्तिक़ाई (विकसित) शक्ल है जबकि अल्लाह तआला का इरशाद है :

الَّذِيْٓ اَحْسَنَ كُلَّ شَيْءٍ خَلَقَهٗ وَبَدَاَ خَلْقَ الْاِنْسَانِ مِنْ طِيْنٍ    Ċ۝ۚ
ثُمَّ جَعَلَ نَسْلَهٗ مِنْ سُلٰلَةٍ مِّنْ مَّاۗءٍ مَّهِيْنٍ    Ď۝ۚ
''और इंसान की तख़लीक़ (पैदाईश) की इब्तिदा मिट्टी से की, फिर उसकी नस्‍ल को हक़ीर पानी से पैदा किया।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलसजदाह : 7-8)

अगर हम एक लम्हे के लिए इस ग़लत उसूल को क़बूल कर लें कि हर वो अमल जिसके ख़िलाफ़ क़ुरआन और सुन्‍नत में ''नही'' मौजूद ना हो मुबाह होता है तो फिर इस्लाम की शक्ल मुकम्मल तौर पर तब्‍दील करने का दरवाज़ा खुल जाता है। ये वही उसूल है जिसके तहत आज आमना वदूद जैसे लोग इस्लाम की बुनियादें हिलाने के दरपे हैं। इन तथाकथित रोशन ख़्याल लोगों का भी यही कहना है कि औरत की इमामत की मुमानअत में कोई वाज़ेह आयत या हदीस नहीं मिलती लिहाज़ा ऐसा करना मुबाह है। जबकि तमाम मकातिब फ़िक्र के नज़दीक मर्दों के लिए औरत की इमामत इसलिए हराम है क्योंकि ऐसा करने से मुताल्लिक़ शरीयत में कोई हुज्जत या दलील नहीं मिलती।

इसी तरह इस्लाम में निकाह का एक मख़सूस तरीका-ए-कार है जबकि आग के गर्द सात फेरे लगाकर शादी करने की मुमानअत में कोई सरीह हुक्म नहीं मिलता। तो क्या इस तरीक़े से निकाह करना जायज़ समझा जाएगा? इसी तरह शादी करने का कोई भी नया तरीका-ए-कार अपनाना जिसके बारे में शरीयत से मुमानअत ना मिलती हो, क्या जायज़ हो जाएगा? हरगिज़ नहीं! ऐसा करना इसलिए हराम होगा क्योंकि आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :

من عمل عملاً لیس علیہ أمرنا فھو رَدٌّ
''जो कोई भी एक ऐसा अमल करे जिसके (करने से मुताल्लिक़) हमारा हुक्म ना हो, तो वो (अमल) मर्दूद है।'' (मुस्लिम)

लिहाज़ा वो तमाम अफ़आल मर्दूद हैं जिनके करने का हुक्म आयाते मुबारका या नबी करीम (صلى الله عليه وسلم) की अहादीस मुतह्हरा में वारिद नहीं हुआ।

आज इल्‍म पर इजारादारी (एकाधिकार) क़ायम करने के लिए पेटैंट और कापी राईट्स के क़वानीन को इस्तिमारी संस्थाऐं इसी ग़लत उसूल के तहत मुसलमानों के लिए काबिले क़बूल बना रहे हैं। इनका भी यही कहना है कि इस्लाम में इन अहकामात के ख़िलाफ़ मुमानअत नहीं मिलती हालाँकि चाहिए तो ये था कि पेटैंट के क़ानून के दाई अपने दावे के हक़ में शरई दलील लाते। क्योंकि रसूल (صلى الله عليه وسلم) के इरशाद के मुताबिक़ मुसलमानों की जीवन व्यवस्था में कोई भी ऐसा क़ानून दाख़िल नहीं किया जा सकता जिस पर अल्लाह और रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मुहरे तौसीक़ ना हो।

इसी तरह इस्लाम के दिए गए शिरकत (Partnership) के तफ़सीली क़वानीन और कंपनी स्ट्रक्चर से हटकर स्टाकस पर मबनी प्राईवेट और पब्लिक लिमीटेड कंपनीयां भी ग़ैर शरई हैं। लेकिन आज सरमायादाराना निज़ाम ने उन्हें इसी बुनियाद पर मुतआरिफ़ करवाया है कि स्टाकस के ख़िलाफ़ वाज़ेह दलील नहीं मिलती। यही वो सरमायादाराना शिराकती क़वानीन हैं जो ऐसी मईशत को जन्म देती है जहां बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनीयां और सरमायादार सट्टेबाज़ी (Speculations) के ज़रीये मईशत के गुब्बारे में हवा भरते हैं और बाद अज़ां अवाम का पैसा लूटकर ग़ायब हो जाते हैं। जबकि इस्लामी मईशत में इस्लामी शिराकती क़वानीन से हटकर कोई क़ानून क़बूल करने की गुंजाइश नहीं है।

हमारे यहां एक और बड़ी ग़लतफ़हमी ये भी पाई जाती है कि इस्लाम ने बाअज़ उमूर पर ख़ामोशी इख्तियार की है। और महिज़ चंद मोटे-मोटे उसूल बयान कर दिए हैं। क़ुरआन और सुन्‍नत किसी भी चीज़ में ख़ामोश नहीं बल्कि ऐसा समझना इस्लाम को नामुकम्मल गर्दानने के मुतरादिफ़ (प्रयायवाची) है, मआज़ अल्लाह। अल्लाह तआला ने तो क़ुरआने पाक में फ़रमाया है :

وَنَزَّلْنَا عَلَيْكَ الْكِتٰبَ تِبْيَانًا لِّكُلِّ شَيْءٍ وَّهُدًى وَّرَحْمَةً وَّبُشْرٰى لِلْمُسْلِمِيْنَ    89؀ۧ
''और हमने ये किताब तुम पर नाज़िल कर दी है जो हर चीज़ की साफ़ साफ़ वज़ाहत करने वाली है।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलनहल : 89)
मज़ीद इरशाद है :

وَمَا مِنْ دَاۗبَّةٍ فِي الْاَرْضِ وَلَا طٰۗىِٕرٍ يَّطِيْرُ بِجَنَاحَيْهِ اِلَّآ اُمَمٌ اَمْثَالُكُمْ ۭمَا فَرَّطْنَا فِي الْكِتٰبِ مِنْ شَيْءٍ ثُمَّ اِلٰى رَبِّهِمْ يُحْشَرُوْنَ   38؀
''हमने इस किताब में कोई कसर नहीं छोड़ी।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरह अलअनआम : 38)
मज़ीद इरशाद है :

 اَلْيَوْمَ اَ كْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ وَاَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ وَرَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًا  ۭ
''आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए मुकम्मल कर दिया है और अपनी नेअमत तुम पर तमाम कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन की हैसियत से पसंद कर लिया।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन सूरह अलमाईदा : 3)

पस इस्लामी शरीयत ने बंदे के किसी फे़अल को मुहमिल क़रार नहीं दिया। एक अमल इसलिए मुबाह ठहरता है क्योंकि इसके करने या ना करने का इख्तियार अल्लाह तआला ने इंसान को दिया होता है। यानी मुबाह बज़ाते ख़ुद एक शरई हुक्म है और शारेह के ख़िताब ही से एक अमल मुबाह क़रार पाता है ना कि इसके अदम ख़िताब से।

चुनांचे शरीयत में हर फे़अल के लिए या तो क़ुरआन व हदीस से नस मौजूद है या क़ुरआन व हदीस में ऐसा इशारेह मौजूद है, जो इस फे़अल के मक़सद और इल्लत (वजह) को बयान करता है ताकि इसका इतलाक़ (लागू) हर उस फे़अल पर किया जा सके, जिसमें ये इल्लत मौजूद हो। शरअन ये मुम्किन नहीं कि इंसान के किसी फे़अल की कोई दलील मौजूद ना हो, याकुम अज़कम इसके हुक्म पर दलालत करने के लिए इशारेह ना हो। क्योंकि अल्लाह तआला का ये इरशाद आम है :
تِبْیَاناً لِّکُلِّ شَیءٍ
''हर चीज़ को साफ़ साफ़ बयान करने वाली।''

अलावा अज़ीं ये भी वाज़ेह और सरीह नस है कि अल्लाह तआला ने दीन को मुकम्मल कर दिया। चुनांचे क़ुरआन, सुन्‍नत, इजमाए सहाबा और क़ियास वो शरई माख़ज़ हैं जिनसे एक मुज्तहिद इंसानी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ा तमाम अहकामात अख़ज़ करता है।

इंसानी कलोनिंग की हुर्मत (हराम होने) के बारे में आज से चौदह सौ साल पहले ही शारेह (अल्‍लाह) ने क़ुरआन और सुन्‍नत में अहकामात दे दिए थे जिसे आज एक मुज्तहिद महिज़ तलाश करके उम्मत तक पहुंचाता है। यही वजह है कि अफ़आल और निज़ाम से मुताल्लिक़ किसी दूसरे नज़रिए और निज़ामे हयात से क़वानीन अख़ज़ नहीं किए जा सकते क्योंकि इस्लाम ने पहले ही उनके बारे में अहकामात दे दिए हैं।

चुनांचे ये ख़्याल कि अमरीकी निज़ाम हुकूमत में चंद तरामीम के बाद इस्लामी हुकूमती निज़ाम वजूद में आ जाता है एक फ़ाश ग़लती पर मबनी है। इसी तरह सरमायादाराना निज़ाम मईशत में से सूद निकाल देने की सूरत में इस्लामी इक्तिसादी निज़ाम जन्म नहीं लेता। या जम्‍हूरी निज़ाम हुकूमत में फ़क़त हाकिमीयत इलाही की एक शक़ डालने की वजह से पूरा का पूरा निज़ाम इस्लामी नहीं हो जाता। वो इसलिए कि निज़ाम से मुताल्लिक़ हर क़ानून या उसूल को क़बूल करने से पहले हमें ये देखना होगा कि इसके लिए क़ुरआन और सुन्नत में दलील मौजूद है या नहीं।

तो क्या अमरीकी निज़ाम हुकूमत या सरमायादाराना मईशत फ़क़त चंद उसूलों के अलावा पूरा का पूरा शरई माख़ुज़ से अख़ज़ करदा है? हरगिज़ नहीं। हाँ अलबत्ता अमरीका के साईंस, सनअत और ईजादात वग़ैरा से मुताल्लिक़ा अफ़्क़ार और साईंसी तरक़्क़ी के नतीजे में वजूद में आने वाली मलमूस अशीया (tangible objects) और सनअत (industry) को मुकम्मल तौर पर अपनाया जा सकता है। सिवाए उन सनअतों और साईंसी अफ़्क़ार के जिनका इख्तियार करना शरीयत में ममनू है।

इस्लाम के नाम पर बनने वाले कई मुस्लिम देशो के आईन (संविधान) भी इसी ग़लत Paradigm और Frame of Mind की पैदावार है। मिसाल के तौर पर आज पाकिस्तान, अफगानिस्तान और दूसरे कई मुस्लिम देशो में अजनबी हयात से तमाम नज़रियात (concepts), क़वानीन और अफ़्क़ार (rules, laws and thoughts) अख़ज़ करने को इस बुनियाद पर जायज़ क़रार दिया जाता है कि वो इस्लाम से मुतसादिम नहीं।

लिहाज़ा उसी उसूल के तहत हम में सरमायादाराना निज़ाम (Capitalism/Secularism) को महिज़ मामूली सी रद्दोबदल के बाद पूरा का पूरा नाफ़िज़ उल-अमल देखते हैं। हमने तमाम मग़रिबी क़वानीन, जुमला आज़ादियां, स्टाक ऐक्सचेंज, इंशोरेंस, आज़ाद मंडी के उसूल, पब्लिक और प्राईवेट लिमीटेड कंपनियां, फ्यूचरज़ ट्रेडिंग, इंटेलेक्चूअल प्रॉपर्टी राईट्स, तेल और गैस की नीजीकरण वग़ैरा को इस बुनियाद पर क़बूल कर लिया है कि इस्लाम में उनके ख़िलाफ़ कोई वाज़ेह हुक्म मौजूद नहीं।

यूं इस्तिहसाली सरमायादाराना निज़ाम के निफ़ाज़ के बाद ये क़ानूनसाज़ इदारों और अवाम की ज़िम्मेदारी ठहरती है कि वो इस्लाम के मुख़ालिफ़ क़वानीन चुन चुनकर निकालने में वक़्त ज़ाया ना करें। जैसा कि सूद के मसले पर वाज़ेह हुक्म इलाही मौजूद होने के बावजूद बरसहा बरस इस पर ज़ाया हो चुके हैं। जबकि होना तो ये चाहिए था कि हर क़ानून को क़ुरआन, सुन्‍नत, इजमा सहाबा या क़ियास से अख़ज़ किया जाता। नीज़ ये हुक्‍मरान की ज़िम्मेदारी होती है कि वो हर क़ानून के इस्लामी होने की दलील फ़राहम करे ना कि अवाम की।
मिसाल के तौर पर पाकिस्तानी संविधन (आईन) की ये शक़ (Article) कि :
"No Law should be made repugnant to Quran and Sunnah"

"यानी इस्लाम से मुतसादिम कोई क़ानूनसाज़ी नहीं की जा सकती बज़ाते ख़ुद ग़लत है।"
 क्योंकि इस शक़ के मुताबिक़ क़वानीन क़ुरआन और सुन्‍नत के अलावा किसी भी माख़ुज़ से अख़ज़ किए जा सकते हैं और इसके बाद ये देखा जाएगा कि क़ुरआन और सुन्‍नत में इस क़ानून के ख़िलाफ़ कोई ''वह्यी'' मौजूद है या नहीं। चुनांचे ढके छिपे अलफ़ाज़ में ये तस्लीम कर लिया गया है कि क़ुरआन और सुन्‍नत कुछ चीज़ों में ख़ामोश हैं या कुछ मसाइल पर कोई हल फ़राहम नहीं करते।

हाल ही में अमरीकी ईमा पर बनने वाले अफ़्ग़ानी और इराक़ी आईन (संविधान) में भी यही शक़ (Article) शामिल करके मुख़लिस मुसलमानों को धोका दिया गया है। जिस में कहा गया :
"No law can be contrary to the sacred religion of Islam" (Constitution of Afghanistan Article 3)
"No law that contradicts the universally agreed tenets of Islam,... may be enacted" (Iraqs Interim Constitution Article 7)

अमरीका ने ये शक़ इसीलिए इराक़ और अफ़्ग़ानिस्तान के आईन में दाख़िल की है क्योंकि वो जानते हैं कि इस शक़ को नाफ़िज़ करके इस्लामी निज़ाम जन्म नहीं लेगा। दरअसल सही शक़ ये होनी चाहिए थी कि क़ुरआन, सुन्‍नत, इजमा अलसहाबा और क़ियास के अलावा किसी भी माख़ुज़ से क़ानून अख़ज़ नहीं किया जाएगा यानी
"Legislation cannot be taken from any source other than Quran, Sunnah, Ijma-e-Sahaba and Qiyas"

ये शक़ (Article) हुक्‍मरानों को हर क़ानून के लिए इस्लामी माख़ुज़ की तरफ़ रुजू करने पर मजबूर करती है जिसकी बदौलत इस्लामी निज़ाम नाफ़िज़ होता है।

इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस्लामी निज़ाम के बारे में सही नुक्ताए नज़र रखने और इसके निफ़ाज़ के लिए ये दोनों उसूले फ़िक़हीया किस क़दर एहमियत के हामिल हैं। उम्मत की निशाते सानिया के लिए अज़ हद ज़रूरी है कि हम इस ग़लत Paradigm (model) को कि
"जो इस्लाम से मुतसादिम नहीं वो ऐन इस्लाम है"
को मुस्तर्द करके ये दरुस्त Paradigm अपनाईं कि
"जिस अमल का हुक्म इस्लाम नहीं देता वो अमल करना हराम है।"

सिर्फ़ उसी सूरत में इस्लाम एक मुकम्मल नज़रिए और निज़ाम के तौर पर उभर कर सामने आ सकता है। सिर्फ इसी Paradigm के ज़रीये उम्मत ना सिर्फ़ फ़िक्री इंतिशार से निकल सकती है बल्कि अपने मसाइल का हल इस्लाम से तलाश कर सकती है।

***
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