इस्लामी ज़िंदगी में मर्दों और औरतों के बीच अलैहदगी की फ़र्ज़ीयत

ऐसी इस्लामी ज़िंदगी जहां मुसलमान अपनी ज़िंदगी जी रहे हों और जहाँ मर्द और औरतों के बीच उन की ख़ानगी ज़िन्दगी (private life ) और उमूमी ज़िंदगी (public life) जैसे बाज़ार और सड़कों पर उन के बीच अलैहदगी का होना क़ुरआन और सुन्नत से साबित है। इसके अलावा ये तर्ज़े ज़िन्दगी मर्दों और औरतों के अलग अलग अहकामात और इन दोनों से मुताल्लिक़ अहकामों से साबित है और क़ुरआन में अल्लाह (سبحانه وتعال) के औरतों से बहैसियते औरत, और मर्दों से बहैसियते मर्द ख़िताब से भी मदलूल (प्रमाणित) है, जैसे की अल्लाह (سبحانه وتعال) का फ़रमान है:

وَٱلۡمُتَصَدِّقِينَ وَٱلۡمُتَصَدِّقَـٰتِ وَٱلصَّـٰٓٮِٕمِينَ وَٱلصَّـٰٓٮِٕمَـٰتِ وَٱلۡحَـٰفِظِينَ فُرُوجَهُمۡ وَٱلۡحَـٰفِظَـٰتِ وَٱلذَّٲڪِرِينَ ٱللَّهَ كَثِيرً۬ا وَٱلذَّٲڪِرَٲتِ أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُم مَّغۡفِرَةً۬ وَأَجۡرًا عَظِيمً۬ا
और सदक़ा देने वाले मर्द और सदक़ा देने वाली औरतें और रोज़ा रखने वाले मर्द और रोज़ा रखने वाली औरतें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करने वाले मर्द और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करने वाली औरतें और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाले मर्द और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाली औरतें अल्लाह ने इन सब के लिए मग़फ़िरत और अज्रे अज़ीम मुहय्या कर रखा है। (तर्जुमा माअनी ए क़ुरआन: अल अहज़ाब:35)

इसके अलावा और भी आयात हैं और हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के दौर से हर दौर में इसी चीज़ का अमलन इज्तिमाई चलन रहा है।

इस के अलावा मजमूई अहकामों के अध्ययन से मालूम होता है कि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने औरत के लिए फ़र्ज़ किया कि वो जब घर से बाहर निकलने का इरादा करे तो जिलबाब पहन ले और उसके हाथों और चेहरे के सिवा पूरे जिस्म को सतर बनाया और अपनी ज़ीनत को ग़ैर महरमों पर ज़ाहिर करने को हराम क़रार दिया और मर्द का औरत पर निगाह डालना , चाहे वो इस के बालों ही पर हो , हराम क़रार दिया, औरत को तन्हा सफ़र करने से दूर रखा चाहे ये सफ़र हज ही के लिए क्यों ना हो। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने घरों में बगै़र इजाज़त दाख़िल होने से रोका। औरत पर जुमे की नमाज़ फ़र्ज़ क़रार नहीं दी और ना जिहाद फ़र्ज़ किया जबकि मर्दों पर जिहाद फ़र्ज़ क़रार दिया है और औरत पर भोजन का प्रबन्ध करने को फ़र्ज़ नहीं किया जबकि मर्दों पर उसे फ़र्ज़ किया गया। इस के अलावा हुज़ूर अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने मस्जिदों में औरतों की सफ़ों को मर्दों की सफ़ों से अलग पीछे की तरफ रखा। बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अनस बिन मालिक (رضي الله عنه) से रिवायत है कि उन की दादी मुलयका ने हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के लिए खाना तैय्यार किया और उन्हें खाने की दावत दी, हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने खाने के बाद फ़रमाया कि नमाज़ के लिए उठो मैं तुम्हें नमाज़ पढ़ाता हूँ। फिर हम नमाज़ के लिए इस तरह खड़े हुए कि मैं और कुछ यतीम हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के पीछे थे और दादी हमारे पीछे थीं। इस के अलावा हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने औरतों को हुक्म दिया कि वो मर्दों से पहले बाहर निकलें और फिर मर्द निकलें ताकि दोनों अलग अलग रहें। बुख़ारी में हज़रत हिंद बिन हारिस (رضي الله عنها) उम्मुल मोमनीन हज़रत उम्मे सलमा (رضي الله عنها) से नक़ल करती हैं कि नबुव्वत के दौर में फ़र्ज़ नमाज़ों के बाद सलाम फेर कर पहले औरतें खड़ी हो जाती थीं और फिर इसके बाद हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) और बाक़ी मर्द। इसी तरह बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अबु सईद अल खुदरी (رضي الله عنه) से रिवायत है कि औरतों ने हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) से दरख़ास्त की कि मस्जिदों में मर्दों की ज़्यादा तादाद होने से उन्हें दिक़्क़त होती है लिहाज़ा उन के लिए अलग दिन तय कर दिया जाये। इस क़िस्म के वाक़िये और अहकाम से इज्तिमाई तौर पर इस्लामी ज़िंदगी का तौर तरीक़ा मालूम होता है कि यहाँ मर्दों और औरतों के बीच अलेहदगी बरती गई है चाहे वो निजी ज़िन्दगी हो या आम ज़िन्दगी । रसूल (صلى الله عليه وسلم) की इस्लामी ज़िंदगी में निजी और आम ज़िंदगी में मर्द और औरतें बिल्कुल अलग होते थे। इस उसूल से निजी और आम ज़िंदगी के सिर्फ़ वही मामले बरी हैं जिनकी शारे (अल्लाह (سبحانه وتعال)) ने इजाज़त दी है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने औरत के लिए ख़रीद और फरोख़्त, लेन देन की इजाज़त रखी है और इस पर हज फ़र्ज़ क़रार दिया है, नमाज़ की जमात में शामिल होने की इजाज़त रखी है, कुफ़्फ़ार से लड़ाई को औरत के लिए जायज़ रखा है, माल की मिल्कियत और इस माल को ज़्यादा बढ़ाने वग़ैरा की इजाज़त दी है। ऐसे काम जिनको करने की अल्लाह ने औरत को इजाज़त दी है या उस पर फ़र्ज़ रखे हैं, इन कामों को अंजाम देने में औरत को मर्दों से मिलने की ज़रूरत पेश आ सकती है और ऐसी मुलाक़ात की उसके लिए इस्लाम के अहकाम के दायरे में इजाज़त है बशर्तिके ऐसी मुलाक़ात उन अफआल की ग़रज़ से हो जो उसके लिए जायज़ हैं या उस पर फ़र्ज़ हैं, जैसे की ख़रीद और फरोख़्त, किराएदारी, तालीम, ईलाज, कृषि और उद्योग वग़ैरा, क्योंकि इन कामों के औरत के लिए जायज़ होने या इस पर वाजिब होने की दलील में ऐसी मुलाक़ात की इजाज़त शामिल है। इन अफआल में कुछ ऐसे मुआमलात हैं जब की औरत को इजाज़त है लेकिन उन्हें अंजाम देने में मर्दों से मिलने की ज़रूरत नहीं पेश आती जैसे की सड़क पर चल कर मस्जिद, बाज़ार या अपने रिश्तेदारों के घर तक जाना, सैर या तफ़रीह के लिए निकलना वग़ैरा, तो इन में उसके लिए मर्दों से मिलना जायज़ नहीं है क्योंकि मर्द और औरतों की अलैहदगी का हुक्म आम है और इन हालात के लिए इस आम हुक्म से कोई बरी नहीं है और ना ही इस उद्देश्य से मर्दों से मिलने की कोई ज़रूरत है, लिहाज़ा उन कामों को पूरा करने में औरत और मर्द का मिलना गुनाह है चाहे ये आम ज़िन्दगी ही में क्यों ना वाक़े हो। बहरहाल इस्लामी ज़िंदगी में मर्द और औरत के बीच अलेहदगी फ़र्ज़ है निजी ज़िंदगी में ये अलेहदगी मुकम्मल अलेहदगी होती है सिवाए उस इजाज़त के जो शरीयत ने तै कर दी है। सार्वजनिक जीवन में असल उसूल अलेहदगी का ही है और उन का मेल जोल जायज़ नहीं सिवाए उसके जिस की शरीयत ने इजाज़त दी हो, वाजिब किया हो या पसंद किया गया हो और जिस काम को पूरा करने में इस मुलाक़ात की ज़रूरत हो, फिर चाहे ये मेल जोल अलेहदगी के साथ हो जैसा कि मसाजिद में रखा है या बगै़र अलेहदगी के हो जैसा की हज या तिजारत में होता है।


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