अस्मतदरी (बलात्कार/rape) की समस्या का इस्लामी हल

अस्मतदरी (बलात्कार/rape) की समस्या का इस्लामी हल


इस किताबचे का मौजू इंडिया और दुनिया में बढ़ता जा रहे अस्‍मतदारी (बलात्‍कार) के वाक़ेआत का इस्‍लामी हल हैं। इस अस्‍मतदरी के वाक़ेआत मीडिया पर बहुत ज्‍़यादा दिखाऐ जा रहे हैं। बलात्‍कार के मामलात का मीडिया में लगातार कुछ ना कुछ कवरेज आ रहा हैं। ऐसा लग रहा जैसे अचानक बलात्‍कार के वाक़ेआत में बहुत बढौ़तरी हो गई हैं। अभी हाल ही में टाईम्‍स ऑफ इंडिया में एक खबर छपी थी के सुप्रीम कोर्ट के जज ने गोर्वमेंट को यह हुक्‍म दिया है के वोह पता लगाए के आखिर लोगों को क्‍या हो गया हैं। यह अचानक लोगों में क्‍या पागलपन सवार हो गया है कि रेप के कैसेस इतने ज्‍़यादा बढ़ गए हैं। खास तौर से दिल्‍ली के अंदर हर दिन दर्जनों बलात्‍कार की खबरें समाचार चैनलों पर बताई जाती हैं।
इस तरह का माहौल खास तौर से 16 दिसम्‍बर 2012 के एक कैस के बाद बना हैं। दामिनी नाम की एक 23 साल की लड़की जो मेडीकल स्‍टूडेंट थी। बस से घर लौटते वक्‍़त दिल्‍ली में छ: लोगों ने उसके साथ गैंग रेप किया, उसके साथ उसका एक दोस्‍त भी था। उन दोनों को उन्‍होंने घायल भी कर दिया और चलती बस से सड़क पर फेक दिया। 15 दिन तक वोह ईलाज़ की हालत में अस्‍पताल में रही और आखिर में वोह मर गई। इस घटना के बाद लोगों में बहुत गुस्‍सा था और पूरे इंडिया के अंदर प्रदर्शन शुरू हुए। लोगों ने इसको पुलिस की लापरवाही और सरकार की लापरवाही क़रार दिया कि औरतों के प्रति जो सैक्‍सुअल हिंसा है यानी जिन्‍सी हिंसा बड़ती जा रही है, उसके लिए सरकार का लापरवाही वाला नज़रिया जिम्‍मेदार हैं। अब रेप कैसेस का होना एक रस्‍म बन गई है जो हर दिन हो रही हैं। असल बात यह है कि अभी कुछ दिनों से आपको ऐसा लग रहा होगा के वाकिए ही कुछ दिनों से इन घटनाओं में अचानक तेजी आ गई हैं। 5 साल की छोटी बच्‍ची से लेकर 50 साल की महिला के साथ यह वाक़ेआत दिन पे दिन बढ़ते जा रहे हैं। आखिर यह वाक़ेआत इतने क्यों बढ़ रहे हैं? हक़ीक़त यह है कि यह सिर्फ ढौंग है यह वाक़ेआत अभी नहीं बढे़ है बल्कि इंडिया में यह वाक़ेआत बहुत दिनों से चल रहे है, इनको मीडिया में कवरेज नही किया जाता हैं।
मीडिया पूंजीवादियों का एक हथियार हैं। समाचार चैनल और अखबार भी एक व्‍यापार है, इन्‍हें लोगों के दुख दर्द से कोई मतलब नहीं है बल्कि ये सिर्फ वो घटनाऐं दिखाते है जिससे इनके व्‍यापार को फायदा पहुंचे। पत्रकारिता में यह सिखाया जाता है कि यदि तुम्‍हारे सामने कोई अपराध भी धटित होता हो तो तुम्‍हें जज्‍बाती होकर उस अपराध को नही रोकना, बल्कि तुम्‍हारा काम सिर्फ खबरें इक्‍ट्ठी करना है और उसे कैमरे में कैद करना है ना कि उस मामलें में हस्‍तक्षेप करना। इससे हम समझ सकते है कि जब एक पत्रकार का यह रवैया है तो पूरी उस संस्‍था का क्‍या होगा जो सिर्फ पैसे कमाने के लिए चल रही हैं। कुछ समय पहले क्राईम पेट्रोल पर एक कहानी दिखाई गई थी जिसमें एक लड़की से छेड़छाड़ की घटना और घटना के पीछे का असल कारण दिखाया गया। जब उस लड़की के साथ छेड़छाड़ होती है तो वोह इस घटना से काफी डर जाती है। काफी समय तक घर से बाहर नही निकलती फिर कुछ लोगों की हिम्‍मत से वोह इस घटना की असल वजह जानने के लिए तफ्तीश करती हैं। बहुत खौजबीन करने के बाद उसे पता चलता है कि वो वाक़ेआ चैनल वालों ने खुद करवाया था। वो इसलिए करवाया क्‍योंकि उन्‍हें अपनी टी.आर.पी. बढा़नी थी। टी.आर.पी. एक टेक्‍स होता है जो विज्ञापन वाले चैनल वालो को देते है जिससे उनकी कमाई होती हैं। वो अपने चैनल पर जितने ज्‍़यादा विज्ञापन दिखाते है उतनी ही उनकी कमाई होती हैं। टी.आर.पी. बढा़ने के लिए उन्‍होंने एक गरमा गरम मसाला ढूंडा़ था। जिसमें बाकायदा उस लड़की को छेडा़ गया, और कुछ लड़को के द्वारा उसके बलात्कार की कोशिश की गई। उसमें एक पत्रकार भी शामिल था। जिसने वो वीडियों साइड में खडे़ होकर बनाई फिर उसने अगले ही दिन न्‍यूज पैपर की साईट पर अपलोड करके मीडिया के अंदर टेलीविजन पर दिखा दिया और उसके बाद उसकी टी.आर.पी. ऐसी बडी़ के वोह कुछ दिनों के लिए बडा़ फैमस चैनल हो गया।
हम देख सकते है कि हम किस समाज में रह रहे है और लोगों की क्‍या मानसिकता हैं। यदि हम अस्‍मतदारी की बात करे तो इस वक्‍़त यह एक रस्‍म बन चुकी हैं। बुद्धिजीवियों के अनुसार जितने अस्‍मतदारी के वाक़ेआत घटित होते है उसका दसवाँ हिस्‍सा भी मीडिया नही दिखाता। अल्‍लाह ना करे किसी की बहन बेटी के साथ इस तरह की घटना घटित हो क्‍योंकि जिन लोगों के साथ ये वाकिया पेश आता है वोह बहुत मुश्‍किल दौर से गुजरते हैं। वोह अपनी बदनामी के कारण उस घटना को छिपाने की कोशिश करते हैं। इंडिया में यह मानसिकता है कि लोग बिल्‍कुल नही चाहते कि ऐसे वाक़ेआत की रिपोर्ट किसी भी तरीक़े से की जाये। 80 प्रतिशत से भी ज्‍़यादा अस्‍मतदारी के मामलें ऐसे होते है, जिनको जनता के सामने नही आने दिया जाता, घर वाले खुद दबा देते हैं। ऐसे मामलों में ज्‍़यादातर करीबी रिश्‍तेदार अपराधी होते हैं। उसके अलावा अंजामों की भी कमी नही रहती क्‍योंकि जिस तरीक़े से आधुनिक समाज में लड़कियों को आजादी दी गई है, अकेले में घूमने की, लड़को से दोस्‍ती रखने की, जिसके नतीजे में ऐसे मामलात पेश आते हैं।
एक अंग्रेजी अखबार ''हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स'' के अनुसार हिन्‍दुस्‍तान में हर 20 मिनट में एक अस्‍मतदारी की घटना घटती है जबकि मीडिया घटित होने वाले अपराधों का 10 प्रतिशत हिस्‍सा ही लोगों तक पहुचाता हैं। सन् 2012 में 2400 अस्‍मतदारी की घटना की पुलिस थानों में रिपोर्ट दर्ज हुई। ये आंकडा़ पूरे हिन्‍दुस्‍तान का नही सिर्फ दिल्‍ली का है। हिन्‍दुस्‍तान टाईम्‍स की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्‍ली के अंदर 78 प्रतिशत औरतों को सैक्‍सुअली हरेस यानी जिन्‍सी तौर पर परेशान किया गया। अश्‍लील हरकतें, अभद्र टिप्‍पणीया या शारीरिक शोषण ये सब जिंसी अत्‍याचार कहलाता हैं।
अमेरिका में इस वक्‍़त हर एक सैकंड के अंदर रेप हो रहा हैं। यह रिपोर्ट बाकायदा बडी़-बडी़ संस्‍थाओं की रिपोर्ट हैं। एमनेस्‍टी इंटरनेशनल नाम की एक बहुत बडी़ संस्‍था है, उसने 2004 के अंदर एक अभियान चलाया था,‍ जिसका नाम था स्‍टोप वाइलेंस अगेंस्‍ट वूमेन यानी औरतों के खिलाफ हिंसा को रोको। 2004 में हर 90 सैकंड के अंदर एक बलात्‍कार हुआ था। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशो की ये हालत है जो कि दावा करते है कि हमारे देश की महिलाऐं आत्‍मनिर्भर और सुरक्षित है। हमारे देशों में औरतों को सम्‍मान जनक दृष्टि से देखा जाता हैं। जब अस्‍मतदारी की कोई घटना घटती है तो लोगों में भारी गुस्‍सा दिखाई देता है और ये बहस आम हो जाती है कि ऐसे अपराधियों को क्‍या सजा दी जाए। औरतों की इस मामलें में सख्‍त प्रतिक्रिया होती है और उनकी मांग होती है कि ऐसे अपराधियों को मौत की सजा दी जाऐ। समाचार चौनलों में इस बात पर बहस की जाती है कि पुलिस का इन घटनाओं में कितना हस्‍तक्षेप है या नही। कुछ बुद्धिजीवी पुलिस को इन घटनाओं का दोषी मानते हैं। ऐसी ही किसी घटना पर एक पुलिस अफसर ने ये बयान दिया कि लड़कियों को भी ऐसे कपडे़ नही पहनने चाहिए, जिससे अश्‍लीलता जाहिर हो और लोग उत्‍तेजित हो। लड़कियों को मर्यादित तरीक़े से घर से बाहर निकलना चाहिए। ऐसी ही एक बात किसी नेता ने भी कही तो पूरा मीडिया उसके पीछे लग गया और जब तक सबके सामने उन्‍होंने माफी ना मांगी तब तक मीडिया इस मामलें को टी.वी. पर दिखाता रहा। इसके बाद महिला संगठनों ने जुलूस निकाले और विरोध प्रदर्शन किऐ। उन्‍होंने पुरूषों को पाठ पढा़या कि सिर्फ औरतों को मयार्दा में रहने की बात ना करे बल्कि खुद भी मर्यादा में रहे। इस बात की खूब चर्चा चलती है कि इन घटनाओं को कैसे रोका जाए, क्‍या पुलिस बढा़ने से इन घटनाओं में कमी आऐगी। ऐसे क्‍या कदम उठाऐ जाऐ जिससे ये अपराध कम हो लेकिन बहस बिना किसी नतीजे के खत्‍म हो जाती हैं। जबकि भारत के लोगों का पश्‍चिमी संस्‍कृति का अनुसरण करना ही इस समस्‍या का असल कारण है, जिसके दुष्‍परिणाम खुद पश्‍चिम के लोग भुगत रहे हैं।
पश्‍चिमी संस्‍कृति की एक अवधारणा है जिसको व्‍यक्तिवाद कहते हैं। जिसका अर्थ है कि एक आदमी अपनी निजी खुशी पाने के लिए कुछ भी करे, और उसको इस काम से कोई नही रोक सकता। यहाँ तक कि एक बालिग लड़की यदि किसी लड़के से नाजायज सम्‍बन्‍ध बनाती है, तो उसका पिता भी उसको ऐसा करने से नही रोक सकता। फिल्‍मों और टेलिविजन में दिखाऐ गऐ लड़का-लड़की के प्रेम-प्रसंग के नतीजे में यह आजादी और सोच उभरी है कि लड़का और लड़की बालिग होने के बाद आजाद है कि वो चाहे जिससे मिले और चाहे जिससे प्रेम सम्‍बन्‍ध बनाऐ। इस दौर में डेटिंग शब्‍द आम हो चुका है। जिसका अर्थ होता है कि लड़का और लड़की साथ में कुछ समय बिताते है, एक दूसरे को जानने की कोशिश करते हैं। जब तक उनकी आपस में बनती है वोह रहते है फिर अलग हो जाते हैं। इस बीच वो सब कुछ करते है जो हराम हैं। यह पश्‍चिमी नज़रिया है जिसको उन्‍होंने अपना रखा हैं। इसलिए शादी वगैराह को वो धार्मिक प्रथाए मानते हैं। उनके अनुसार शादी एक धार्मिक प्रथा हैं। व्‍यक्ति का खुद का निर्णय है चाहे तो शादी करे चाहे तो बिना शादी के शादी जैसे सम्‍बन्‍ध बनाऐ। जब तक चाहे इस सम्‍बन्‍ध में रहे और जब चाहे इस सम्‍बन्‍ध से अलग हो जाऐ।  इस तरह का नज़रिया पश्‍चिमी सभ्‍यता में लगभग 2 सदीं पहले ही पनप चुका था। यही नज़रिया हिन्‍दुस्‍तान ने भी अपना लिया है और लगातार बड रहा हैं।
पश्‍चिमी संस्‍कृति दो विपरीत लिंगों के बीच कोई पाबन्‍दी नही रखना चाहती। यह पूरी तरह से इंसान का बनाया हुआ ऊसूल है जो पूरी तरह से इस्‍लाम के विपरीत हैं। काफिराना सोच के नतीजे में इस तरह का सिद्धांत वजूद में आया हैं। इंसान की ज़िन्‍दगी का वोह हिस्‍सा जो उसका व्‍यक्तिगत हिस्‍सा था, उसको उन्‍होंने सार्वजनिक कर दिया हैं। यह बात सच है कि इंसान के अंदर जिबल्लियते नोंव (Procreation Instinct) होती है। यानी अपनी नस्ल पैदा करने की ख्‍वाहिश, जो कि अल्‍लाह तआला ने इंसानो और जन्‍तुओं में रखी हैं। अपनी नई नस्‍ल आगे बढा़ने की ख्‍वाहिश। ये एक जिंसी पहल है लेकिन पश्‍चिमी संस्‍कृति के द्वारा ये व्‍यक्तिगत चीज़ सार्वजनिक कर दी गई हैं। इस चीज़ की इतनी ज्‍़यादा छूट दे दी गई है कि अश्‍लील साहित्‍य, गन्‍दी फिल्‍में, अश्‍लील नाच-गानों और भद्दे विज्ञापनों में ये खूब दिखाई जाती हैं। जनता इन चीज़ों की इतनी आदी हो चुकी है। यह गन्‍दापन देखकर उन्‍हें शर्म भी नहीं आती। आज पूरा परिवार मिलकर यह सब नंगापन देखता है। वो जरा भी शर्म महसूस नही करते, क्‍योंकि ये चीज़ें इतनी ज्‍़यादा दिखाई गई कि समाज में यह चीज़ आम हो गई हैं। इंसान में प्राकृतिक रूप से काम इच्‍छा होती हैं। जिसको हर उस चीज़ से भड़काया जा रहा है जिससे ये भड़कती हैं।
सन् 2002 में ऑब्‍जवर नाम के ब्रिटेन के एक अखबार में एक सर्वे छापा गया। जिसके अनुसार तकरीबन एक हजार लोगों से सैक्‍स के प्रति उनकी राय मालूम की गई। ज्‍़यादातर लोगों के मुताबिक उन्‍होंने शादी के अलावा भी सम्‍बन्‍ध बनाये थे, हर ब्रिटेनवासी के लगभग दस सेक्‍सुअल पार्टनर हैं। पश्‍चिम में इस तरह के सर्वे होते रहते हैं। जिसके द्वारा समाज में आऐ बदलाव को मालूम किया जाता हैं। लेकिन दूसरी तरफ लोग इन सर्वे को पढ़कर आनन्दित भी होते हैं। इस वक्‍त अमेरिका और ब्रिटेन में सबसे बडी़ समस्‍या मर्द और औरत के बिगड़ते रिश्‍ते हैं। क्‍योंकि यह वो बुनियादी इकाई है जिससे समाज बनता है और इनके आपसी सम्‍बन्‍ध बिगड़ने से समाज बुरी तरह से पीडित हैं। वहाँ के समाज में निम्‍नलिखित समस्‍याऐ है :- (1) वहॉ पर मिया-बीवी के दरमियान बिल्‍कुल भी भरोसा नही पाया जाता। हर विवाहित अमेरीकी महीला पॉंच साल के अंदर ज़िना का शिकार हो जाती है और हर तीन में से एक जोडे़ का ज़रूर तलाक होता हैं। (2) इस वक्‍़त अमरीका के अंदर हर 18 सैकंड के अंदर औरतों को पीटने का वाकिया होता है। चाहे वोह औरतें उनकी बीविया हो, चाहे वोह ऑफिस में काम करने वाली हो या उनकी गलफ्रेण्‍ड हो। दुनिया में सबसे ज्‍़यादा तादाद में जो औरतें पीटी जाती है वोह अमेरीका के अंदर पीटी जाती हैं। (3) एक और समस्‍या है जो ब्रिटेन और अमे‍रीका में महामारी का रूप ले चुकी है। वो है बच्‍चों का शारीरिक शोषण करना। फिडोफिलिया नाम की एक बीमारी होती है जिसमें बुरी निगाहों से बच्‍चों को देखा जाता हैं। सिर्फ ब्रिटेन के अंदर एक क्‍वाटर मीलियन यानी 2.50 लाख लोग इससे पीडित है। उनको पिडोफाइल कहा जाता हैं। यही स्थिति लगभग भारत में भी पैदा हो चुकी हैं। सन् 2011 के आउट लुक मैग्जिन के एक सर्वे के मुताबिक इस मामलें में भारत की भी पश्‍चिमी देशों की तरह स्थिति हैं।
इस समय समाज में जो भी बिगाड़ पाया जाता है वोह सब पश्‍चिमी नज़रिऐ की देन है। जिसके लिए पश्‍चिम ने लोगों को तैयार् किया हैं। चूँकि पश्‍चिम में लड़के और लड़कियों का स्‍कूलों और कॉलेजों में एक साथ पढ़ना और घूमना फिरना आम बात है। इसलिए भारत में भी पश्‍चिम की नकल के परिणाम स्‍वरूप ये स्थिति पैदा हुई कि स्‍कूलों और कॉलेजों में लड़का-लड़की साथ-साथ पढ़ने लगे। जो कि बहुत बड़े फित्‍ने की जड़ हैं। बचपन ही से उन्‍हें आपसी मेजलोल का माहौल मिल जाता हैं। इसके अलावा मीडिया की भी इसमें बडी़ भूमिका हैं। जब भी कभी पुलिस वाले आशिको को पकड़ने की मुहिम चालते है। तो पूरा मीडिया खास तौर से बडे़-बडे मीडिया जो अंग्रेजो के बनाए हुए है। वोह इन मुहिम का विरोध करते है, और इसे तानाशाही कार्यवाही बताते हैं। यह बडे़ अखबार ''टाइम्‍स ऑफ इण्डिया'' हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स इत्‍यादि ये वो बडे़ अखबार है। जिसके अंदर छपी खबरों को लोग सच समझते हैं, इनकी राय को लोग मानते हैं। जब पुलिस लड़के-लड़कीयों के मेलजोल के खिलाफ अभियान चलाती है। तो ये अखबार पुलिस के खिलाफ राय आम्‍मा (Public Opinion/जनमत) बनाते है, और इस कार्यवाही को रोकने की कोशिश करते हैं। यह माहौल एक खास तरह के नज़रिए से बना है, जिसको पश्‍चिम के द्वारा बढा़वा दिया गया हैं।

दामिनी केस के बाद लोगों ने और कई सामाजिक संघठनों ने मांग की के ऐसे क़ानून बनाए जाऐ, जिससे ये अपराध न हो। विडम्‍बना की बात है कि जब क़ानून बनाया गया तो उस क़ानून के अनुसार लड़का और लड़की बिना शादी के शारीरिक सम्‍बन्‍ध बना सकते हैं। ये समस्‍या का समाधान नही बल्कि ये खुद एक समस्‍या हैं। ज्‍़यादातर लोगों की मांग थी कि भातरीय क़ानून सख्‍त होना चाहिए। अपराधियों को मौत की सजा दी जानी चाहिऐ, जिससे अपराध में कमी आऐगी। जब इस अपराध के लिए मौत की सजा की मांग की जाती है। तो कुछ इस्‍लाम पसन्‍द जो काफिराना निजाम में इस्‍लामी क़ानून के दखल की ख्‍वाहिश रखते है, खुश होते है और कहते हैं कि यदि ज़िना के लिए इस्‍लामी सजा दी जाऐ तो ज़िना के वाक़ेआत कम हो जायेगें।  दरहक़ीक़त यह बिल्‍कुल नामुमकिन है कि ऐसे क़वानीन लाने के बावजूद भी समाज सुधर जायेगा। जैसा लोग सोचते है कि इस्‍लामी ज़िना की हद यानी मौत की सजा अगर दे दी जाए तो यहाँ पर ज़िना के वाक़ेआत कम हो जायेगें। यह बिल्‍कुल उनका ख्‍वाब व ख्‍याल है, जो कभी मुमकिन नही हैं। क्‍योंकि लोकतंत्र में पहले ही बडी़ कोशिशों के बाद मौत की सजा कम हुई हैं। दूसरी बात अगर मौत की सज़ा दे दी गई। तो इससे जुर्म कम नही होगा क्‍योंकि लोकतंत्र में आज़ादी का तसव्‍वुर है। वोह उसके अक़ीदे की जड़ है, जिस पर पूरा लोकतंत्र खडा़ है। यह बात प्राकृतिक है कि इस विचारधारा के नतीजें में अपराध कम नही हो सकते। सरकार उस अक़ीदे के विरोध में क़ानून नही बना सकती, जिस अक़ीदे पर वो चल रही है। बल्कि उसी अक़ीदे से किसी समस्‍या का हल निकालती है। वोह क़ानून पर क़ानून बनाते चले जाते है। लेकिन उस बुनियाद को नही बदल सकते जो इस व्‍यवस्‍था की बुनियाद हैं। लोग यह नही जानते है कि यह व्‍यवस्‍था किन सिद्धांतों पर बनी है। वोह नादानी के तहत ऐसी बाते करते है चूँकि आजादी इस व्‍यवस्‍था का अहम सिद्धांत है। इसलिए आजादी लोगों से नहीं छीनी जा सकती। मौत की सज़ा में दूसरी रूकावट है अदालतें, क्‍योंकि अदालतों में किसी जुर्म को साबित करना बडा़ पेचिदा काम है। जुर्म साबित होने के बाद भी सजा देने में काफी वक्‍त लग जाता है। ऐसे में अपराधी सुप्रीम कोर्ट में अपील कर देते है और मुकदमा काफी लम्‍बे वक्‍त तक के लिए टल जाता हैं। यहाँ के प्रधानमंत्री को मारने वाले को ही मौत की सज़ा नही हुई तो एक रेप कैस की क्‍या हैसियत हैं।
सरकारे ज़िना के अड्डे चलाने के लाईसेंस देती है, और उससे अरबो खरबो टेक्‍स कमाती हैं। यहीं सरकारे ब्‍लेक मार्केटिंग के ज़रिए दूसरें देशों में लाखों लड़किया स्‍मगलिगं करवाती हैं। हिन्‍दुस्‍तान वोह देश है जहाँ से गरीबों की लाखों लड़किया सालाना स्‍मगलिगं की जाती हैं। सिर्फ दिल्‍ली के अंदर हर साल हजारों बच्‍चे गायब होते हैं। यह बच्‍चे स्‍मगलिगं किये जाते हैं। यहाँ तक कि हर उम्र के मर्द व औरतें भी स्‍मगलिगं किये जाते है। इनको अन्‍तराष्‍ट्रीय बाजार में बेचा जाता हैं। यह व्‍यवस्‍था जो ऐसे घिनौने कामों की ईजाज़त देती है और जिस जुर्म ने इस व्‍यवस्‍था की वजह से जन्‍म लिया वो कैसे ठीक होगा। इससे पता चला कि यह बहस एकदम फिज़ूल है कि क़ानून बदला जाऐ या पुलिस। यह तो नज़रिया ही ऐसा हैं। जिन लोगों से उन्‍होंने यह नज़रिया लिया है उनके पास ही इसका हल नही है। मगरिबी लोग, अमरीका, ब्रिटेन, यूरोपियन देश वगैराह में इसी आज़ादी का नतीजा यह है कि वहाँ पर ये बात जायज हो चुकी है कि कोई व्‍यक्ति अपनी मॉं या बहन के साथ शारीरिक सम्‍बन्‍ध बना सकता हैं। हिन्‍दुस्‍तान में सेक्‍यूलरवादी इस विषय पर जानबूझ कर बहस नही कराना चा‍हते। जो इंडिया के अंदर उस व्‍यवस्‍था की बुनियाद पर हुकूमत कर रहे है, जो उन्‍होंने अग्रेंजो से लिया है। उस क़ानून की एक-एक जड़ यह कहती है कि यह बिल्‍कुल जाईज़ है, यह भी एक तरह की आज़ादी हैं। अगर लोगों को किसी चीज़ में खुशी मिल रही है तो इसे नही रोका जायेगा। उनके अनुसार यह सब धर्म की बातें हैं। हमारी अक्‍़ल यह कहती है कि इंसान को जिस चीज़ में खुशी मिले वोह करें, तो अगर भाई-बहन आपस में पति-पत्‍नी की तरह खुश है तो उन्‍हें नही रोकना चाहिए। कुछ लोग गलतफहमी में इस्‍लाम का नाम लेकर जमातें चला रहे है। इस काफिराना निजाम को अच्‍छा बनाने की कोशिश कर रहे है। जबकि काफिराना निजाम में इस्‍लाम को दाखिल करना हराम है, यह अफसोसनाक हालात हैं। असल बात यह है कि यह निजाम असल में खुद जड़ है, कोई क़ानून इसे बदल नही सकता।
हिन्‍दुस्‍तानी समाज के अंदर अगर कभी भी बुराई कम रही है, तो उसकी एक ही वजह है वोह है इस्‍लामी सभ्‍यता का असर। जितना हम पीछे जायेंगे उतना ही इस्‍लामी सभ्‍यता का असर हिन्‍दुओं के अंदर भी पायेंगे। और कुछ-कुछ उनको मुसलमानों से मिलता जुलता पायेंगे। उनके समाज के अंदर अख्‍लाक, ईज्‍ज़त जैसे इस्‍लामी मूल्‍य पायेगें। जैसे-जैसे वोह इस्‍लाम से दूर होते गऐ वैसे-वैसे वो इस्‍लामी मूल्‍यों से दूर होते चले गऐ। हांलाकि अभी भी उनमें इस्‍लामी जज्‍़बात कुछ हद तक बाकी है। जिसकी वजह से वो इन बुराइयों को नापसंद करते है। उनके पास अक़ीदा तो नही है लेकिन वोह जो चीज़ उनके अंदर आई थी वोह इस्‍लामी समाज से आई थी। हिन्‍दुस्‍तान जहाँ पर 900 साल इस्‍लामी हुकूमत रही है। इस्‍लामी क़ानून चला है, उस तहज़ीब का असर इतना ज्‍़यादा है कि हिन्‍दुस्‍तानी समाज के अंदर आज भी वोह अपनी कुँवारी लड़की को सलवार कमीज पहनाना ही पंसद करते हैं। हिन्‍दुओं का कोई भी समाज ऐसा नही है कि लड़की जब तक कुँवारी होती है तब तक वोह उसको सलवार कमीज ना पहनाए। सिर्फ शादी होने के बाद ही वोह साडी़ पहनाते है। इस्‍लामी तहज़ीब का इतना गहरा असर यहाँ पाया जाता है। जैसे-जैसे इस्‍लामी तहज़ीब का असर दूर हो रहा है, मगरिबी कल्‍चर, यूनिवर्सिटीस में 50-60 लड़के-लड़किया पढ़ रहे है, अब उसके नतीज़े आ रहे है और उनके फल अब सामने आने लगे हैं। बात सिर्फ यह है कि असल में यह इस व्‍यवस्‍था की खराबी हैं। इस्‍लामी सोसायटी : इस्‍लाम औरत को वोह इज्‍ज़त, वोह मर्तबा और वोह शान देता है जिसकी वोह हक़दार हैं। इस्‍लाम इस काम को दो तरह से करता हैं। सबसे पहले तो इस्‍लाम हर तरह की उदारवादी मूल्‍य को रद्द करता हैं। इस्‍लाम यह नही कहता कि तुम आज़ाद पैदा हुए हो यानी इस तरह से कि तुम अपनी मनमानी करो, जिन्‍दगी को अपने तरीक़े से जीओ। हाँ, आज़ाद हो, तुम किसी इंसान के गुलाम नही हो मगर तुम अल्‍लाह के गुलाम हो। बस, उसकी बंदगी करो, और किसी की बंदगी मत करो। अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि यह दुनिया मोमिन के लिए कै़दखाना हैं। वोह आज़ाद घोडा़ नही है, जिधर चाहे घूतमा फिरे। दूसरी चीज़ वोह तकवे को बढा़वा देता हैं। तकवा यानी अल्‍लाह का डर। इसलिए इस्‍लाम समाज के अंदर ऐसी मानसिकता को जन्‍म देता है, जिससे लोगों में जवाबदेही की भावना उत्‍पन्‍न होती हैं। हर आदमी दूसरे के प्रति जवाबदेह होता हैं। जवाबदेही की वजह से व्‍यक्ति कोई भी कार्य करता है तो सोच समझकर करता है। अगर वोह बिना सोचे समझे कोई काम करेगा तो उसके लिए उसको जवाब देना पडे़गा। यानी उसको उसके लिए सज़ा भी भुगतनी पड़ सकती हैं।
इस्‍लाम समाज में औरत के बारे में खास नज़रिया पैदा करता हैं। यह समाज में औरतों के प्रति जिन्‍सी हिंसा पर रोक लगाता है। जबकि इस व्‍यवस्‍था में छोटी-छोटी चीज़ों के द्वारा औरतों को अश्‍लील तरीक़े से पेश किया जाता हैं। विज्ञापनों में मामूली से मामूली चीज बेचने के लिए औरत को अधूरे लिबास में दिखाया जाता हैं। जैसे एक रूपये का पान मसाला भी है तो उसको एक नंगी औरत बेच रही हैं। यह है औरतों का असली शोषण। इस्‍लाम ऐसा नही होने देता कि इन चीज़ों की आज़ादी दे। क्‍योंकि यही वोह चीज़ है जिससे औरत का वकार, मर्तबा और शान खत्‍म होती है और औरत और मर्द के बीच में जो पाक़ सम्‍बन्‍ध होते है वोह सस्‍ते हो जाते हैं। जब एक आदमी औरतों को इस तरह से देखेगा तो उसके दिमाग में औरत के बारें में क्‍या नज़रिया पनपेगा, उसके लिए तो वोह एक काम वासना की वस्‍तु  बनकर रह जायेगी। और अपने आप उसके दिल से औरत की ईज्‍ज़त और अज़मत खत्‍म होती चली जायेगी।
इस्‍लाम एक ऐसा सामाजिक निजाम देता है जो कि औरत और मर्द के सम्‍बन्‍धों के बीच नज्‍़म बनाता हैं। वोह उसमें औरतों को एक ऐसा आदर्श ड्रेस कोड और एक महफूज लिबास का हुक्‍म देता है। इसके अलावा मर्द और औरत के बीच में दूरी पैदा करता है। यानी कि खास हालात में ही वोह मिल सकते है और आम हालात में वोह नही मिल सकते। और शादी के अलावा नाजाईज़ रिश्‍तों पर वोह रोक लगाता है और अपनी जिन्‍सी ख्‍वाहिशात पूरी करने के लिए सिर्फ हालाल तरीक़े यानी शादी के ज़रिए ही उसकी ईजाज़त देता है। इस तरीक़े से इस्‍लामी समाज के अंदर औरत की हिफाज़त होती हैं। इस्‍लाम हुक्‍म देता है कि आदमी हमेशा औरत को ईज्‍ज्‍़त और एक कीमती चीज़ की तरह समझे। उसको अल्‍लाह की तरफ से एक ज़िम्‍मेदारी समझें। जैसे अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की हदीस में है कि जब आप हज्‍जतुल विदा पर थे तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने बार-बार यह नसीयत की थी कि ''ऐ लोगों मैं इस बात से डरता हूँ कि तुम तुम्‍हारी औरतों के साथ बदसलूकी ना करने लगो, तुम उनके साथ अच्‍छा बर्ताव करना और उनके साथ नर्मी से पेश आना।'' इस्‍लाम औरतों को सही मायने में ईज्‍ज्‍़ात देता हैं। अल्‍लाह सुबाहनहू व तआला बेहतर जानता है कि इंसान के आपसी ताल्‍लुकात कैसे होने चाहिए, क्‍योंकि उसने ही इंसान को बनाया हैं। इंसान की अक्‍़ल असमर्थ है, इंसान यह कभी भी नही जान सकता कि उसकी ज़रूरियात और हाजात क्‍या है। वोह किस दर्जे़ में पूरी होगी और किस अनुपात के अंदर पूरी होगी। वोह बिना शादी के पूरी होगी या शादी से पूरी होगी। शादी में कितनी औरतें रखकर पूरी होगी, उसके बच्‍चे कैसे होगें, जाईज़ नाजाईज़ के जितने भी सिद्धांत है वोह सब इस्‍लाम देता है। इस तरह से देता है कि इंसान को सुकून और इत्मिनान हासिल होता हैं। अल्‍लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने एक और हदीस में फरमाया कि ''इस दुनिया में जितनी भी चीजे़ं है उसमें सबसे ज्‍़यादा कीमती चीज़ एक पाक़बाज़ औरत है।'' इसमें यह बताया गया कि औरत की हिफाजत करो, वोह तुम्‍हारे लिए एक बहुत बडा़ तौफा हैं। अल्‍लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने जब आखरी खुत्‍बा दिया था तो उसमें फरमाया था : ''ऐ लोगों! यह बात सच है कि तुम्‍हारे कुछ अधिकार है, तुम्‍हारी औरतों से सम्‍बन्धित, लेकिन उनके भी अधिकार है तुम्‍हारे ऊपर और याद रखों कि तुमने उनको अपनी बीवीयों के रूप में अपनाया है, अल्‍लाह तआला की अमानत के तौर पर।'' वोह अल्‍लाह की अमानत है और अल्‍लाह की ईजाजत से वोह तुम्‍हें मिली हैं। अगर वोह तुम्‍हारा हुक्‍म मानती है, तुम्‍हारी इताअत करती है, तुम्‍हारा अधिकार पूरा करती है तो तुम पर यह अधिकार है कि तुम उनको खिलाओं और उनको नर्मी के साथ कपडे़ पिनाओं। और आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया ''उनके साथ नर्मी से पेश आओं क्‍योंकि वोह तुम्‍हारी साझेदार है और तुम्‍हारी मददगार भी है।''

एक सच्‍चे इस्‍लामी समाज के अंदर सही इस्‍लामी तसव्‍वुरात होते है और औरत को एक ईज्‍ज्‍़ात के तौर पर देखा जाता है। चाहे वोह औरत कोई कामकाजी औरत हो या साधारण औरत हो। आज हिन्‍दू समाज में और दूसरे काफिराना समाज में उन्‍ही औरतों की ईज्‍ज़त है जो पैसा कमाती है। उनको कामयाब औरतें कहा जाता है जो अपना भविष्‍य सुरक्षित रखती हैं। इस्‍लाम में ऐसा नही है कि औरतों पर कामधंधा करना फर्ज़ हो, वो नौकरी या व्‍यापार कर सकती है। लेकिन पहले उनकी जो शरई और खानदानी ज़िम्‍मेदारी है, वोह पूरी करेगी। उन कर्तव्‍यों को पूरा करने के बाद यदि वक्‍त बचता है तो वो कामधंधा कर सकती है। क्‍योंकि इस्‍लाम ने मर्द पर ये जिम्‍मेदारी डाली है कि वोह उसके बीवी, बच्‍चों के खाने पीने और कपडे़ वगैरह का इंतजाम करे और कोई ऐसा नही करता तो वो गुनहगार है।  सामाजिक तौर पर अगर इस्‍लामी खिलाफत और इस्‍लामी निजाम होगा तो, वहाँ पर ऐसे आदमी को जो अपनी बीवी की ज़िम्‍मेदारी को पूरी नही करे तो उस पर क़ानूनी कार्यवाही होगी, उस पर सामाजिक दबाव डाला जायेगा। इस्‍लाम में आम तौर पर औरत को कामयाबी के नज़रिये से नही देखा जाता है कि वोह बहुत काबिल है, पढी़-लिखी है या वोह पैसा कमाती है तब ही उसे अच्‍छी निगाह से देखा जाता हैं। इस वक्‍त दुनिया में इस्‍लामी समाज के अलावा ज्‍़यादातर गै़र-मुस्लिामों में इसी नज़रिये से औरत को देख जाता है। इस्‍लाम में औरत को आम तौर पर अच्‍छा रखना, उसके साथ अच्‍छा सुलूक करना, चाहे वोह बेटी हो, बहन हो, यह एक सवाब का काम है और अल्‍लाह तआला ने उसको एक ज़िम्‍मेदारी के तौर पर रखा हैं।
एक बार हज़रत उमर (رضي الله عنه) के दौरे खिलाफत में ऐसी परस्थिति आई, जिसमें एक यहूदी का क़त्‍ल कर दिया गया था। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने पूछा के क्‍या कोई जानता है कि क्‍या हुआ था। तो उस पर एक मुसलमान सामने आया, जिसका नाम बक्र था। उसने कहा कि मैने इसको मारा है, तो हज़रत उमर (رضي الله عنه) इस बात पर बडे़ हैरतज़दा हुए। आपने उससे वजह पूछी तो उस आदमी ने कहा के एक मुस्लिम भाई है जो जिहाद पर गया है, उसने अपने परिवार की ज़िम्‍मेदारी मुझ पर छोडी़ हैं। एक बार में उसके घर उनकी देखरेख करने गया तो मैने देखा कि वहाँ पर यह यहूदी मौजूद है और यह आशिकाना शायरी पढ़ रहा है। उस शायरी में उस मुस्लिम भाई की बीवी की ईज्‍ज़त, शान और मर्तबे को ठेस पहुँचती थी और उसका मतलब यह भी था के उसने उसकी गैर मौजूदगी में वहाँ समय गुज़ारा है। उसकी शायरी में यह बात भी शामिल थी। इसका नतीजा यह हुआ कि मुझे बहुत गुस्‍सा आया और मैने उसे मार दिया। क्‍योंकि उसने उस औरत की मान, मर्तबे और शान पर एक तरह से गुस्‍ताखी की थी। यह बात सुनने के बाद हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने उसको माफ कर दिया और उस पर कोई क़ानून और शरीअत लागू नही की।
एक सही व्‍यवस्‍था ही औरतों की हिफाजत कर सकती है। यानी इस्‍लामी रियासत है जिसको हम खिलाफत कहते है। खिलाफत एक हुक्‍मरानी का निजाम है। जो अल्‍लाह तआला के ज़रिए दिए हुए सारे अहकाम को लागू करता है ना सिर्फ यह के उसमें नमाज़, रोज़ा, जक़ात के मामलात होते है, बल्कि इस्‍लामी आर्थिक, सामाजिक और क़ानूनी अहकाम होते है। खलीफा साहिबे निसाब से जकात वसूल करता है, अपराधियों को शरीयत के हिसाब से सजाऐ देता है, औरतों की ईज्‍जत व अबरू की हिफाजत करता है इत्‍यादि। ये इस्‍लामी रियासत जो कि तबरिबन 1300 साल रही और अभी 80 साल से मौजूद नही है। जबसे यह खत्‍म हुई है तब से दुनिया में बेहयाई बहुत ज्‍़यादा फैली है। मुस्लिम देशों के अंदर भी यह वाक़ेआत हो रहे है। इसकी वजह भी इस्‍लामी रियासत का गै़र मौजूद होना है। और कुछ ऐसे वाक़ेआत भी होते है, जिसमें कोई लड़की किसी के साथ भागकर शादी कर लेती है। तो लड़की के घर वाले उस लड़की और उसके प्रेमी का क़त्‍ल कर देते है, इसे ऑनर कीलिंग (Honour Killing) कहते है। इसकी भी ईजाजत इस्‍लाम नही देता कि किसी भी सूरत में कोई आदमी खुद ही अपने बच्‍चों को मार डालें, चाहे वोह गै़र-शरई काम करें, क्‍योंकि इसका हक़ भी इस्‍लामी रियासत को है। जिस दिन खिलाफत का निजाम दुबारा क़ायम होगा, ज़िन्‍दगी के सही नुक्‍ताए नजर को फैलाया जायेगा, किताबों के ज़रिए, उस शिक्षा व्‍यवस्‍था के ज़रिए जो बच्‍चों को स्‍कूल में पढा़ई जायेगी, उस टी.वी. चैनल के ज़रिए, उन अखबारों के ज़रिए तो इंशा अल्‍लाह वोह समाज अपने आप वजूद में आयेगा जिसकी हर मुसलमान चाहत रखता है और हर काफिर जहाँ पर सुकून से रहता है। पुराने ज़माने के जो काफिर हुआ करते थे, वोह भी उस समाज को पसंद करते थे, इसलिए उन्‍होंने इस बारे में कभी शिकायत नही की। इंशा अल्‍लाह तआला औरतों की सही मायने में हिफाजत होगी।
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