मजलिसे उम्मत की रुक्नियत (membership)

कोई भी बालिग़ और आक़िल शख़्स जो रियासत की शहरियत रखता है, मजलिसे उम्मत का रुकन बनने और मजलिसे उम्मत के अराकीन के इंतिख़ाब का हक़ रखता है ख़ाह वो मर्द होया औरत, मुस्लिम होया गैर मुस्लिम। क्योंकि मजलिसे उम्मत सिर्फ़ लोगों की राय की नुमाइंदगी करती है और उसे हुकूमत करने और क़ानून वज़ा (जारी) करने का कोई इख्तियार हासिल नहीं होता। चूँकि मजलिसे उम्मत इज़हारे राय की नुमाइंदगी करती है, लिहाज़ा इस्लामी रियासत में लोगों को ये हक़ हासिल होता है कि वो अपने में से किसी भी ऐसे शख़्स को अपना वकील (नुमाइंदा) मुक़र्रर कर लें जो नुमाइंदगी की शराइत पर पूरा उतरता हो। किसी मुसलमान की तरह एक गैर मुस्लिम को भी ये हक़ हासिल है कि वो अपने ऊपर इस्लामी अहकामात के ग़लत निफाज़ और हुक्मरान की तरफ़ से किये जाने वाले ज़ुल्म के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद कर सकता है। लिहाज़ा उसे ये हक़ हासिल है कि वो जिसे चाहे अपना नुमाइंदा मुंतख़ब करे और जिस की चाहे नुमाइंदगी करे। लिहाज़ा नुमाइंदा और नुमाइंदा कुनुन्दगान का मुसलमान होना लाज़िमी नहीं, वो मुसलमान या गैर मुस्लिम दोनों हो सकते हैं। यही वजह है कि मुसलमानों की तरह गैर मुस्लिमों को भी मजलिसे उम्मत के लिये अपने नुमाइंदे मुंतख़ब करने की इजाज़त है, ख़ाह ये नुमाइंदगान मुसलमान हो या गैर मुस्लिम , बशर्ते कि वो इस्लामी रियासत की शहरियत रखते हों।

 इसके अलावा इस्लाम अपनी अथार्टी तले ज़िंदगी बसर करने वाले लोगों को सिर्फ़ इंसानियत की नज़र से देखता है, इस बात से क़ता नज़र कि इन का ताल्लुक़ किसी रंग , नस्ल ,गिरोह या जिन्स से है। उन पर हुकूमत करने की पालिसीयां इसी बुनियाद पर होंगी ताकि हुक्मरानी इंसानियत की बेहतरी के लिये हो और बनी नौ इंसान को अंधेरों से निकाल कर रोशनी की तरफ़ लाया जाये। जहां तक तमाम लोगों पर अहकाम-ए-शरीयत के निफाज़ का ताल्लुक़ है तो तमाम शहरी, इंसानों से मुताल्लिक़ हुक़ूक़ व फ़राइज़ के मुआमले में, बहैसियत इंसान बराबर होते हैं। चुनांचे जब क़ाज़ी तनाज़आत (झगडों) का फैसला करता है और जब हुक्मरान हुकूमत करता है तो वो लोगों के बीच फर्क़ नहीं करता। और उन के लिये लाज़िम है कि वो बहैसियत शहरी उन के साथ बराबरी का सुलूक करें और इसके अलावा किसी चीज़ का ख़्याल ना करें। पस हर बाशिंदे को ये हक़ हासिल है कि वो अपनी राय का इज़हार करे और अपनी राय के इज़हार के लिये किसी नुमाइंदे को मुंतख़ब करे और एक शख़्स उन लोगों की राय का इज़हार करे जिन्होंने उसे मुंतख़ब किया है। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इस्लाम के ज़रीए तमाम इंसानों को बहैसियत इंसान मुख़ातब किया है:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُم بُرۡهَـٰنٌ۬ مِّن رَّبِّكُمۡ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ نُورً۬ا مُّبِينً۬ا
ऐ लोगो तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से वाज़िह दलील आ पहुंची और तुम्हारी जानिब साफ़ और वाज़िह नूर उतार दिया
(अन्निसा:174)

और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ये भी इरशाद फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنِّى رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡڪُمۡ جَمِيعًا
ऐ लोगो ! मैं तुम सब की तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ
(अल आराफ़:158)

औलमा खास तौर पर औलमा अल ऊसूल का इस बात पर इत्तिफ़ाक़ है कि हर आक़िल शख़्स जो ख़िताब को समझ सकता हो, अहकाम-ए-शरीयत का मुख़ातब है, ख़ाह वो मुसलमान हो या गैर मुस्लिम , मर्द हो या औरत।

ये तो गैर मुस्लिमों के मुताल्लिक़ था। जहां तक मजलिसे उम्मत के लिये औरतों की रुक्नियत (सदस्यता) का ताल्लुक़ है, तो मजलिसे उम्मत का काम हुकूमत करना नहीं लिहाज़ा इस पर इस हदीस का इतलाक़ नहीं होता जिस का ताल्लुक़ औरत की हुक्मरानी से है। रिवायात से ये भी साबित है कि जब उमर (رضي الله عنه) के इल्म में कोई मुआमला लाया जाता ख़ाह इस का ताल्लुक़ अहकाम-ए-शरीयत से हो या फिर किसी भी रियासती मुआमले से और वो इस पर लोगों की राय लेना चाहते तो वो मुसलमानों को मस्जिद में बुलाते और आप मर्द और औरतों दोनों को बुलाते और उन से उन की राय पूँछते ।एक मर्तबा आप ने अपनी राय को उस वक़्त तब्दील कर लिया जब एक औरत ने आप से कहा कि महर की मालियत की हद मुक़र्रर करना दुरुस्त नहीं। नबुव्वत की तेरहवें साल (यानी जिस साल आप صلى الله عليه وسلم ने हिजरत फ़रमाई) आप صلى الله عليه وسلم के पास 75 मुसलमान आए जिन में दो औरतें भी शामिल थीं, और इन सब ने आप صلى الله عليه وسلم को बैअत-ए-उक़बा सानिया दी जो कि जंग-ओ-क़िताल और सियासत पर बैअत थी। जब सब ने आप صلى الله عليه وسلم को बैअत दे दी तो आप صلى الله عليه وسلم ने उन से कहा:

((أخرجوا إلیَّ اثني عشر نقیباً، لیکونوا علی قومہم بما فیہم))
अपने में से बारह नक़ीब मुक़र्रर करो जो अपने और अपनी क़ौम के ज़िम्मेदार हो

ये हुक्म सब के लिये था कि वो वहां मौजूद तमाम लोगों में से इंतिख़ाब करें। आप صلى الله عليه وسلم ने इस बात की तख़सीस नहीं की कि वो सिर्फ़ मर्द हों या औरतें और आप ने औरतों को इस से मुस्तसना (बरी) क़रार नहीं दिया ना इस मुआमले में कि किसे मुंतख़ब किया जाये और ना ही इस मुआमले में कि कौन मुंतख़ब करे। मुतलक़ हुक्म को इसी तरह लेना चाहिये जिस तरह वो वारिद हुआ हो जब तक कि कोई इसी दलील ना हो जो उस को मुक़य्यद करे। इसी तरह आम हुक्म को भी इसी तरह लेना चाहिये जब तक कि इसी कोई दलील मौजूद ना हो जो उस की तख़सीस करे और यहां पर कलाम आम और मुतलक़ है इस मुआमले में तकीद या तख़सीस की कोई दलील वारिद नहीं हुई, जो इस बात पर दलालत करता है कि आप صلى الله عليه وسلم ने इन दो औरतों को हुक्म दिया कि वो नक़बा का इंतिख़ाब करें और उन्हें इस बात का हक़ दिया कि उन्हें मुसलमानों में से नक़ीब चुना जाये।

एक मर्तबा रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم लोगों से बैअत लेने के लिये बैठे ,अबूबक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه)  आप صلى الله عليه وسلم के साथ थे और मर्दों और औरतों दोनों ने आप صلى الله عليه وسلم को बैअत दी। ये बैअत हुकूमत पर बैअत थी और ये इस्लाम (अमान) पर बैअत ना थी क्योंकि वो औरतें पहले से ही मुसलमान थीं। हुदैबिया में बैअत-ए-रिज़वान के बाद औरतों ने भी आप صلى الله عليه وسلم को बैअत दी। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया।

 يَـٰٓأَيُّہَا ٱلنَّبِىُّ إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُؤۡمِنَـٰتُ يُبَايِعۡنَكَ عَلَىٰٓ أَن لَّا يُشۡرِكۡنَ بِٱللَّهِ شَيۡـًٔ۬ا وَلَا يَسۡرِقۡنَ وَلَا يَزۡنِينَ وَلَا يَقۡتُلۡنَ أَوۡلَـٰدَهُنَّ وَلَا يَأۡتِينَ بِبُهۡتَـٰنٍ۬ يَفۡتَرِينَهُ ۥ بَيۡنَ أَيۡدِيہِنَّ وَأَرۡجُلِهِنَّ وَلَا يَعۡصِينَكَ فِى مَعۡرُوفٍ۬ۙ فَبَايِعۡهُنَّ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُنَّ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ۬ رَّحِيمٌ۬

ऐ नबी صلى الله عليه وسلم जब  आप के पास मोमिन औरतें इस बात पर बैअत करने के लिये आऐ के वो अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं ठहराऐंगी और चौरी नहीं करेंगी और ज़िना नहीं करेंगी और अपनी औलाद को क़त्ल नहीं करेंगी और कोई ऐसा बोहतान नहीं बान्धेगी जो उन्होंने खुद अपने हाथों पैरों के सामने घड लिया हो और किसी नैक काम में आप صلى الله عليه وسلم की हुक्म उदूली नहीं करेंगी तो आप इन से बैअत ले लिया करें और इन के लिये अल्लाह से मग़फिरत तलब करें बैशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है
(अल मुमतहिन्ना :12)

ये बैअत हुकूमत पर बैअत थी क्योंकि क़ुरआन हमें बताता है के वो औरतें मोमिन थीं और ये बैअत इस बात पर थी के वो किसी भी मारूफ अम्र में आप صلى الله عليه وسلم की नाफरमानी नहीं करेगी।
इसके अलावा औरत को इस बात का भी हक़ हासिल है कि वो अपनी राय के इज़हार के लिये किसी को अपना नुमाइंदा मुंतख़ब करे और कोई उसे अपना नुमाइंदा मुंतख़ब करे क्योंकि औरत को अपनी राय बयान करने का हक़ हासिल है , पस इसके लिये वो किसी को भी अपना वकील (नुमाइंदा) मुक़र्रर कर सकती है । मज़ीद बरआं वकालत के लिये मर्द होना लाज़िम नहीं लिहाज़ा उसे हक़ हासिल है कि वो दूसरों की नुमाइंदगी करे।

ताहम गैर मुस्लिमों को ये हक़ हासिल नहीं कि वो अहकाम-ए-शरीयत की तशरीअ (व्याख्या) के मुताल्लिक़ अपनी राय का इज़हार करें क्योंकि तशरीअ इस्लामी अक़ीदे से माख़ूज़ (प्राप्त की गई) है। ये वो अमली शरई अहकामात हैं जिन का तफ़सीली दलायल से इस्तिंबात (परीणाम प्राप्त) किया गया है । और ये एक ख़ास नुक़्ता-ए-नज़र के मुताबिक़ इंसानी मसाइल का हल बयान करते हैं जिस का ताय्युन इस्लामी अक़ीदा करता है। और एक गैर मुस्लिम शख़्स ऐसा अक़ीदा रखता है जो इस्लामी अक़ीदे से टकराता है और ज़िंदगी के मुताल्लिक़ इस का नुक़्ता-ए-नज़र इस्लामी नुक़्ता-ए-नज़र से टकराता है लिहाज़ा अहकाम-ए-शरीयत की तशरीअ से मुताल्लिक़ इस से राय तलब नहीं की जाती।

इसी तरह किसी गैर मुस्लिम को ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब का हक़ हासिल नहीं और ना ही ख़िलाफ़त के उम्मीदवारों की फ़हरिस्त की काण्ट छांट में इस का कोई अमल दख़ल है कि जिस में से ख़लीफ़ा को मुंतख़ब किया जाना हो, क्योंकि हुक्मरानी में उसे कोई हक़ हासिल नहीं। जहां तक दूसरे मुआमलात का ताल्लुक़ है जो कि मजलिस उम्मत के लाज़िमी इख्तियारात के तहत आते हैं तो इन मुआमलात में और उन के मुताल्लिक़ अपनी राय के इज़हार में एक मुसलमान और गैर मुस्लिम में कोई फ़र्क़ नहीं।

मजलिसे उम्मत की रुक्नियत की मुद्दत:


मजलिसे उम्मत की रुक्नियत (membership) की मुद्दत सीमित होती है क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم जिन अश्ख़ास से मश्वरा फ़रमाया करते थे, अबूबक्र (رضي الله عنه) अपनी ख़िलाफ़त में उन्ही अश्ख़ास से मश्वरा करने के पाबंद ना थे और उमर (رضي الله عنه) भी उन अफ़राद से मश्वरा करने के पाबंद ना थे जिन से अबूबक्र (رضي الله عنه) मशवरा किया करते थे। उमर (رضي الله عنه) ने अपनी ख़िलाफ़त के आख़िरी हिस्से में जिन लोगों से मश्वरा किया वो उन से मुख़्तलिफ़ थे जिन से आप ने अपनी ख़िलाफ़त के शुरूआती दौर में मश्वरा किया। ये इस बात पर दलालत करता है कि मजलिसे उम्मत की रुक्नियत एक ख़ास मुद्दत के लिये होनी चाहिये।
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