खिलाफते राशीदा सानी (II nd) पर 100 सवाल (69-70)

➡ सवाल नं. (69): खिलाफत बिना ब्याज की अर्थव्यवस्था कैसे चलायेगी ?

ब्याज का तसव्वुर हुकुमतों के द्वारा इस्तिमाल किए जाने वाला वोह उपकरण है जिसके ज़रिए वोह अर्थव्यवस्था में धन को अपने क़ाबू में रखते है और व्यवसायिक स्तर पर धन को बतौर वस्तु के इस्तिमाल करके मुनाफा कमाते हैं।

खिलाफत पर दो धातुओं (सोना और चांदी) का मानक (Bimettalic Standard) अपनाना फर्ज़ है, इसे लागू करने से रियासत को करंसी की क़ीमत घटाने या बढा़ने का अधिकार नही होगा, रियासती पैमाने पर खुद ब खुद ब्याज से लेन-देन खत्म हो जायेगा और साथ ही स्थिर करंसी लागू करने से व्यापार का वातारण पैदा होगा। तिजारती पैमाने पर सूद दौलत की तक़्सीम के मामलें में बहुत बडी़ रूकावट होता है क्योंकि इनवेस्टर (पैसा लगाने वाला/निवेशक) व्यापार में पैसा लगाकर जोखिम लेने की बजाय बैंक में जमा करा कर ब्याज खाने को अहमियत देगा मगर जब उसे ब्याज खाने को नही मिलेगा तो मज़बूरन उसे पैसा व्यापार में निवेश करना पड़ेगा जिससे लोगो को रोज़गार का मौक़े मिलेगे और साथ ही माल गर्दिश करेगा । 

इस तरह सूद हटाने से हर स्तर पर आर्थिक गतिविधियां बड़ती है, जबकि सूद के बाक़ी रहने से सिर्फ चन्द अफराद की ही आर्थिक गतिविधियां बड़ती है। कुछ समय पहले आलमी आर्थिक मंदी के दौरान दुनिया की बडी़-बडी़ ताक़तों ने अपनी अर्थ व्यवस्थाओं को बचाने के लिए ब्याज दर घटाकर शून्य कर दी थी। इससे ज्ञात हुआ कि ज़ीरो ब्याज दर पर अर्थ व्यस्थाओं का चलना ना-मुमकिन नही है जैसा कि कुछ लोग मानते हैं।

खिलाफते राशीदा सानी (II nd) पर 100 सवाल

➡ सवाल नं. (70): खिलाफत किस तरह टैक्स इक्ट्ठा करेगी?


इस वक़्त मुस्लिम देशों में टैक्स इक्ट्ठा करने का तरीक़ा पश्चिमी मॉडल के आधार पर है। जिसमें इनकम पर टैक्स वसूलना  मुश्किल होता जा रहा है इसलिए ज़्यादातर कनज़प्शन टैक्स (रोज़ मर्रा की ज़रूरत की चीज़ो पर लगने वाला टैक्स) पर निर्भरता बढती जा रही है।
इसी लिए पूंजीवाद में सबसे ज़्यादा टैक्स खाने-पीने या ज़रूरत की चीज़ो पर लगता है जैसे मकान, कपडे़ वगैराह इन चीज़ो की क़ीमतो में टैक्स जोड़ लिया जाता है जबकि इनकम टैक्स लोग बचा लेते है। इससे मालूम हुआ ज़रूरत की चीज़ों पर टैक्स लगने से चीज़े मंहगी होती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मोनोटेरिंग फण्ड और वर्ल्ड बैंक, मुस्लिम देशों की सरकारों को इनडायरेक्ट टैक्सेशन (अप्रत्यक्ष कर) लगाने पर मजबूर करते है जैसे सेल टैक्स, टेरिफ्स, ड्यूटीज़, वगैराह इस क़िस्म के कर (टेक्स) घरेलू चीज़ो की क़ीमतो को असर अन्दाज़ करते है, जिससे और दूसरे सामानों की और सेवाओं (Service) की क़ीमते बढ़ जाती है ।
इस्लाम, टैक्स इकट्ठा करने के ताल्लुक़ से बिल्कुल अलग फलसफा रखता है। इस्लामी टेक्स नीति, इनकम पर टैक्स लगाने की तुलना में अपना ध्यान दौलत पर टैक्स लगाने पर केन्द्रित करती है यानी वोह पैसा जो कि काम में नही आ रहा है, वोह ज़मीने जो फालतू पडी हों और किसी फर्द की बुनियादी ज़रूरतों से ज़्यादा है, इस्लामी रियासत उन पर टैक्स लगाती है।
इसके अलावा इस्लाम में दूसरे तरह के टैक्स है जो कि ज़मीनों की पैदावार और ज़मीनों के इस्तेमाल पर लगाए जाते है। इस्लाम में टैक्स की कुछ ही क़िस्में है क्योंकि इसका टेक्स सिस्टम पश्चिम के जैसा दिमाग को भ्रम में डाल देने वाला नही जिसमें इनकम पर टेक्स हैं, खर्च पर टेक्स हैं और बचत पर टेक्स हैं। शरीअत में बताए गए टैक्स के अलावा और दूसरे टैक्स लगाना ज़ुल्म है इसलिये यह खिलाफत पर हराम है के कोई गैर-शरई टेक्स लगाए ।
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