खिलाफत पर ओलमाऐ अकाबिर के अक़वाल (Classical scholars on Khilafah)


बेशक, जमात अल्‍लाह की रस्‍सी है, तो उसे पकडे रहो, चाहे कितना ही अंधेरा है, अल्‍लाह सुल्‍तान के जरिऐ उसे दूर करता है। अगर खिलाफत न हो तो रास्‍ता हमारे लिये महफूज़ न हो, उसकी वजह से इस्‍लाम की पकड मज़बूत रहती है, जो उसकी गवाही देता है। हमारे लिये दीन और दुनिया में रहमत उसी के नतीजे में आती है, वरना कमज़ोर ताक़तवर की लूटमार का ज़रिया बन जाता। (इब्‍ने मुबारक (विसाल-181 हिजरी), हिलतिल औलिया, 8 : 164)

यह इंतेखाब खिलाफत के मौज़ूअ पर औलमाये अकाबिर की आरा (comments) और तौज़ीह (explanation) है. यह कोई बहुत लम्बी फेहरिस्त नहीं बल्कि सिर्फ चुनी हुई तौज़ीहात है जो खिलाफत की फर्ज़ियत और अहमियत पर रोशनी डलाती है. सारे इक़्तिबासात (quotes) के साथ तफ्सीली हवाले और उसकी असली अरबी मतन भी उसके तर्जुमे के साथ दिया गया है. इस इंतेखाब से पता चलता है की इस उम्मत के सबसे ज़हीन लोग, सबसे बेहतरीन ओलमा, ने खिलाफत के मसले को मुतलक़ी तौर पर कितना अहम माना है, यह कहते हुये की यह “शरीअत की उन ज़रूरतों मे से है जिसे कभी भी छोडा नहीं जा सकता” (अल-गज़ाली), “मुसलमानों के सबसे बडे मफाद मे से है और दीन के सबसे बडे सुतूनों मे से है” (अल-आमिदी), “दिन के सुतूनों मे से एक सुतून” (अल-क़ुरतबी) “दीन के सबसे बडे फराइज़ो मे से” (इब्ने तैमिया), “सबसे बडे फराइज़ों मे से” (अल-हसकफी) और इसी तरह के दूसरे अक़वाल. हमारे ओलमा हमे बतातें हैं की किस तरह सहाबा ने खिलाफत के मसले को इतनी अहमियत दी की उन्होंने अफज़लुल मखलूक़, हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की तदफीन मे देरी की, इस काम मे मसरूफ होने के सबब. उन्होंने खिलाफत के मौजूद नहीं होंने के अज़ीम खतरे से भी आगाह किया है, जैसा की हम आज रूबरू देख रहें है, और आगे भी देखना पड सकता है, जब से इसका खात्मा 20 सदी की शुरूआत मे हुआ. तभी से उम्मत ने अपनी तारीख़ (इतिहास) के सबसे काले दिन देखें हैं.
हम उम्मीद करते हैं की यह इंतेखाब सारे मुसलमानों के लिये याद्दिहानी साबित हो खिलाफत की अहमियत और उसकी ज़रूरत को समझने के लिये. ताकि इसके नतीजे मे वोह इसके दोबारा क़याम के लिये अपनी पूरी क़ुव्वत लगा दे. ताक़ि अपने उपर अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तरफ से आयद इस फर्ज़ को पूरा करने मे लगा दें, उस तरह से जैसा की हमारे आक़ा हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ने हमे बताया है.


''लफ्ज़ ‘इमामत’1 रिसालत के जानशीन (खिलाफत,) दीन की हिफाज़त करने, और दुनिया के मामलात का इंतजाम करने, और अक्‍द़ करना उससे जो उम्‍मत में से उसे पूरा करता है, यह एक फर्ज़ है जिस पर ईजमा है . . .''
(ईमाम अल-मौरिदी वि. 450 हिजरी., अल अहकाम अल-सुल्‍तानिया, पे. 56)
1ईमामत और खिलाफत मुतरादिफ (पर्यायवाची) शब्‍द है, दोनो का मतलब ऐसे शख्‍स से जिसमें यह क़यादत पाई जाती हो, और आधुनिक युग में इसकी मलख खिलाफत से ‘रियासत की सरबराह’ है।

''उन्‍होंने (अहले सुन्‍नत के ओलमा ने) ईमामत और खिलाफत के ताल्‍लुक से कहा कि ईमामत उम्‍मत पर एक फरीज़ा है यहॉ तक की वोह ईमामत क़ायम कर दे, जो उनके लिये क़ाज़ी, वजी़र मुक़र्रर करे, उनकी सरहदों की हिफाज़त करे, फौजों को हरकत दे, फे को तक्‍सीम करे, मज़लूम को ज़ालिम से इन्‍साफ दिलाऐ, और वोह कहते है कि उम्‍मत ईमाम को अपनी पसन्द से मेहनत और गौरो-खोज़ करने के बाद बैअत देती है।'' (अब्‍दुल कादिर जिलानी अल-बगदादी (वि. 429 हि.) अल-फर्क बेन अल फिराक, स. 340)


''सारे अहले सुन्‍नत मुत्‍तफिक है, और मुरजिया भी, सारे शिया, सारे ख्‍वारिज भी ईमामत की फर्जि़यत पर और यह की उम्‍मत पर यह फर्ज़ है कि उम्‍मत सिर्फ एक आदिल ईमाम के ताबेअ हो जाए जो उन पर अल्‍लाह के अहकाम को लागू करे, और उनके मामलात की देखभाल शरिअत के अहकाम के मुताबिक करे, जिसे लेकर अल्‍लाह के रसूल आऐ है, सिवाऐ खारजिंयो के नजदत गिरोह के जो कहता है : लोगों के लिये इमाम का होना फर्ज़ नहीं है, बल्कि उन पर जो वाजिब है वह यह है कि वोह मिल-जुल कर सही पर अमल करें।'' (इब्‍ने हज्‍़म (वि. 456 हि.) अल-फस्‍ल फी मिलाल वल-अहवा वल निहाल, 4:87)


''इमामह (ईमामत) मुकम्‍मल इख्तियार और आम क़यादत है, दीन और दुनयावी मामलात में सभी लोगों पर। इसका काम दारूल ईस्‍लाम की रियासत का दिफा (रक्षा) करना, उम्‍मत के मफाद का ध्‍यान रखना, इस्‍लामी दावत को क़ायम करना दलील और बुरहान के ज़रिये, और तलवार के ज़रिऐ गुमराही और अस्बियत को रोकना, मज़लूम को ज़ालिम के मुकाबले में मदद पहुचाना, मना करने वालों से वक़ाया हासिल करना और उन्‍हे पहुंचाना जिन्‍हे उनसे महरूम कर दिया गया है।
. . . . अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) के सहाबा ने इमाम के इनेकाद (appointment) में जल्‍दी की, जो के सही चीज़ थी करने के लिये, और इस तरह उन्‍होंने अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) को दफनाने की तय्यारी में देरी की, क्‍योंकि वोह ईस काम में मसरूफ थे, इस बात का खौफ करते हुऐ के कहीं आजमाईश उन्‍हे न घेर ले। (ईमाम अल-हरमैन अल-जुवेनी (म. 478 हि., गियास अल उलूम की तियास अल-जुल्‍म, 1:22-23)



“इसलिये यह बात साफ हो गई कि इंतज़ामी इख्तियार रखने वाला (सुल्तान) दुनिया का ईन्तज़ाम देखने के लिये ज़रूरी है और दुनिया का इंतज़ाम दीन को मुनज्‍ज़म (मुकम्‍मल) करने के लिये ज़रूरी है, और दीन को मुनज्‍़जम करना आखिरत के लिये ज़रूरी है और यह पैग़म्‍बरो का मक़सद रहा है जिसमें कोई शक की गुन्‍जाईश नही है। इसलिये इमाम का इनेक़ाद शरीअत की ज़रूरतों में से है जिसको यूही नही छोडा जा सकता, यह जान लो।''

''अगर ईमामत खत्‍म हो जाती है और तो नियाबत (delegation/नुमाइन्दगी) को सौंपने का काम भी खत्‍म हो जायेगा। काज़ी मुअत्‍तल हो जायेंगे और आम लोगों के ज़ुमरे में आने लगेंगे। जान, माल, खून और दौलत से मुताल्लिक हुक़ूक़ का क़ानूनी तरीके से निपटारा रूक जाऐगा और इन सारे ज़रूरी मामलात में शरीअत का निफाज़ खत्‍म हो जायेगा।'' (ईमाम अल-ग़ज़ाली (म; 505 हि.) अल-इक्तिसाद की अल-ईतिक़ाद : 199 & फज़ाई अल-बातिना : 105)


''मुसलमानों पर ईमाम ज़रूर होना चाहिए, जो उन पर अहकाम को नाफिज़ करे, हुदूद को का़यम रखे, उनकी सरहदों की हिफाज़त करे, फौजों को मुसल्‍लेह करे, ज़कात हासिल करे, बाग़ी, चोरो और डकैतो को मग़लूब करे, जुमे का क़याम करे और दो हदो को क़ायम रखे, लोगों के दर्मियान होने वाले झगडों का निपटारा करें, क़ानूनी हुक़ूक़ के मुताबिक गवाहो को क़ुबूल करे, नौजवान लडके और लडकियों, जिनका कोई वाली नहीं है, उनकी शादियों का इंतेजाम करे और माले ग़नीमत तक्‍सीम करे।'' (इमाम अल-नसफी (म. 537 हि.), अल-अक़ाईद अल-नसफिय्या, पेज-354)


''जब अबू बक्र (رضي الله عنه) की मौत का वक्‍त क़रीब आ गया, तो उन्‍होंने (सहाबा) से कहा, ''आप लोग इस मामले (खिलाफत) में आपस में मश्‍वरा करो’’ फिर उन्‍होंने हज़रत उमर की सिफ्फात का बयान किया (तारीफ की) और उन्‍हे अपना जानशीन चुना। उनके दिल में यह ख्‍याल भी नही आया, या किसी और के, चाहे मामूली सा ही क्‍यो न हो, कि ईमाम के गै़र-मौजूद होने की भी ईजाज़त है। जब उमर (رضي الله عنه) की मौत का वक्‍त करीब आया तो उन्‍होंने इस मामले को छ: लोगों के मश्‍वरे पर छोडा़, और उन्‍होंने उस्‍मान (رضي الله عنه) पर इत्तिफाक़ किया, और उनके बाद अली (رضي الله عنه)। इन सबसे करीना मिलता है कि सहाबा (رضی اللہ عنھما) जो सबसे पहले और बहतरीन मुस्लिम थे, ने ईमाम के मौजूद होने की ज़रूरत पर इत्तिफाक किया . . . .। इस तरह का इजमा ईमामत के फर्ज़ होने का क़तई सुबूत है। (इमाम अल-शहरस्‍तानी (म. 548 हि.), निहायत अल-ईक़दाम फी ईल्‍म अल-कलाम, 1:268)


''इसलिये, इमाम का इनेक़ाद (appointment) मुसलमानो के सबसे अहम मफादों में से है और दीन के सबसे बडे सतूनो में सेा यह फर्ज़ है जैसा कि नस से समझा गया है और वह्यी में इसकी तरफ ईशारा दिया गया है . . .’’ (ईमाम सैफ अलदीन अल-आमिदी (म.631 हि.) ग़यात अल-मुरम फी ईल्‍म अल-कलाम, पेज. 366)



''यह आयत दलील है इमाम और ख़लीफा के इनअक़ाद की। उसकी समाअत और ईताअत की जाती है, कलाम उसी के ज़रिये एक होता है, खिलाफत के अहकाम उसके ज़रिऐ नाफिज़ होते है, और उम्‍मत में इसकी फर्जि़यत के ताल्‍लुक से कोई दो राय नहीं है, न तो ओलमा मे, सिवाऐ जो कुछ भी अल-असम (जिसके लफ्ज़ी मायने ‘बहरा’ के होते हैं) से रिवायत किया गया, जो वाक़ई बहरा था शरिअत के ताल्‍लुक से और वोह सभी जो उसकी राय रखते या इत्तिबा करते है।''
''सारे सहाबा अबू बक्र (رضي الله عنه) को चुनने के लिये मुत्‍तफिक़ हो गये जब मुहाजिरीन और अन्‍सार के दर्मियान बनी साइदा के सहन (चौक) में इख्तिलाफ पैदा हुआ, जिसमें अन्‍सार ने कहा, ''एक अमीर हममे से और एक तुममे से’’ अबू बक्र, उमर और मुहाजिरीन ने इस कथन से इख्तिलाफ किया, कहा, ''अरब कुरेश के अलावा अपने आपको किसी और के सुपुर्द नहीं करेंगे’’ और उन्‍होंने इस पर रिवायात पेश कीं तो अन्‍सार ने अपनी बात वापस ली और इसे क़ुबूल कर लिया। अगर ईमामत फर्ज़ नहीं होती तो, न तो कुरेश में और न ही दूसरो के दर्मियान, यह बहस और गुफ्तगू हुई होती, और उनमें से कोई कह सकता था: “यह फर्ज़ नही है, न तो कुरेश में और ना ही किसी और में। तुम लोगों के इख्तिलाफ की कोई बुनियाद नही है न ही इससे कोई फायदा, चूंकि यह मामला खुद फर्ज़ नहीं है’’। इसके अलावा जब अबू बक्र (رضي الله عنه) की मौत का वक्‍़त करीब आया, तो उन्‍होंने उमर (رضي الله عنه) को ईमामत के लिये चुना और किसी ने यह नहीं कहा उनसे, ''यह मामला न हमारे उपर न ही आपके उपर फर्ज़ है’’। यह ईशारा करता है कि यह (खिलाफत) फर्ज़ है और दीन के सतून में से एक सतून है जिससे मुसलमानों को ताक़त मिलती है, और सारी तारीफे अल्‍लाह के लिये है, जो सारे आलम का रब है।'' (इमाम अल क़रतबी (वि. 671 हि.) अल-जामी ली अलकाम अल कुरआन, 1:264-265)



''उन्‍होंने (ओलमा ने) ईस बात पर इजमा किया है कि मुसलमानों पर ख़लीफा का इनेक़ाद (appointment) फर्ज़ है, और यह कि उसका इनेक़ाद वह्यी के ज़रिये फर्ज़ किया गया है न कि अक्‍ल से।'' ''और उन्‍होंने (सहाबा ने) आप (صلى الله عليه وسلم) की तदफीन मे देर की, सोमवार से बुधवार की रात, मंगल के दिन के आखिर तक की, क्‍योंकि वोह बेअत के मामले में मसरूफ हो गये थे ताकि उन पर कोई इमाम हो जिसके फैसलों की तरफ वो पलटें अगर उनमें कोई इख्तिलाफ है मय्यत और तदफीन के मामले में, और ताकि वोह उसके हुक्‍म की ईताअत करे, ताकि झगडा़ और ना ईत्तिफाकी पैदा न हो, और यह सबसे अहम मसलों में से एक है, अल्‍लाह बेहतर जानता है।'' (ईमाम अल-नववी (विसाल-676 हिजरी), शरह सहीह मुस्लिम, 12:205 & 7:36)


''यह जानना बहुत ज़रूरी है कि हुक्‍मरानी (शासन) का आफिस (मौजूद) होना दीन के बहुत बडे फराईज़ में से है। इसके बिना दीन और दुनिया क़ायम नहीं हो सकते। इंसानो का मफाद, अपनी जरूरतों की वजह से, आपसी लेन-देन के बिना पूरा नही होता, और इस समाजी लेन-देन के लिये सरबराह (head or leader) की ज़रूरत होती है जैसा कि अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया, ''अगर तीन लोग एक साथ सफर कर रहे हों तो एक को क़ाइद बना लो – (अबू दाउद) इस तरह आप (صلى الله عليه وسلم) ने सफर जैसी छोटी और आरज़ी सामाजिक गुट के क़ाईद (लीडर) को लाज़मी क़रार दिया है, इसलिये आपने सब तरह के सामाजिक इज्तिमाइयत की तरफ इशारा किया है। मज़ीद (लीडर को चुनना) इसलिये भी ज़रूरी है क्‍योंकि अल्‍लाह ने भलाई का हुक्‍म देना और बुराई से रोकने का हुक्‍म दिया है और ऐसा नहीं किया जा सकता बिना किसी सत्‍ता और इक़्तिदार के (Power and authority) यहां यह बात दूसरे फराईज़ पर भी लागू होती है जैसे जिहाद, इंसाफ क़ायम करना, हज का इंतेज़ाम करना, जुमा और ईद, मज़लूम की मदद करना, हदूद का निफाज करना; इनमें से किसी को भी इक़्तिदार और सत्‍ता के बिना अमल में नहीं लाया जा सकता। इसी वजह से, यह रिवायत आई है कि, ''सुल्‍तान धरती पर अल्‍लाह का साया है’’ और यह कहा गया कि, ''एक ज़ालिम ईमाम के साठ साल बेहतर है बिना क़ाईद के गुजरी हुई एक रात के,’’ और तजुर्बात ने ऐसा साबित कर दिया है। यही वजह है कि सलफ जैसे अल फजल बिन अयाज़ और अहमद इब्‍ने हम्‍बल कहा करते थे, ''अगर हमारी कबूलियत की गारन्‍टी मिल जाऐ, तो हम सुल्‍तान के लिये दुआ करेंगे। (इब्‍ने तैमिया (मतूफी : 728 हि.), अल सियासा अल शरिया, पे 129)



''ईमाम के इनेक़ाद के मामले में हमारा नज़रिया यह है कि इसको नस ने फर्ज़ क़रार दिया है . . . अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) के इन्‍तेक़ाल के बाद मुसलमानों की पहली नस्‍ल से ईस बात पर ईजमा है कि वोह उस हालत से बचे जिसमें ईमाम मौजूद न हो, और यह बात हम तक तवातुर से पहुंची है। इस पर ईस हद तक ज़ोर दिया गया कि अबू बक्र (رضي الله عنه) ने अपने खुतबे कहा, '' ध्‍यान रखो, मुहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) का इंतेक़ाल हो गया है और ईस दीन के लिये यह ज़रूरी है कि कोई इसकी क़यादत करे और नाफिज़ करे।'' तो सारे सहाबा ने उनकी बात को क़ुबूल किया और यह उन पर छोड दिया कि इस सबसे ज़रूरी मामले में वोह खुद तय करे, यानी अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की तदफीन (दफनाने को)। मुसलमान तब से लेकर हमारे दौर तक ईसी मसलक पर क़ायम रहे, (यानी) इत्तिबा करने के लिये इमाम का इनेक़ाद करने पर, जिसकी इताअत की जाती है। (ईमाम अदूद अल-दीन अल-ईजी (मतूफी-756 हि.) अल-मवाक़िफ फी ईल्‍म अल-कलाम, 3:579-580)



''इस बात पर (आलिमाना) ईजमा है कि ईमाम का इनेक़ाद फर्ज़ है। इख्तिलाफ इस बात पर है कि उसका इनेक़ाद खुद अल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) करता है या इंसान, या यह कि यह दलील नस से साबित है कि अक्‍़ली दलील से2। सहीह राय (Position) यह है कि यह नस ने इसे इंसान के ज़रिऐ इनेक़ाद को फर्ज़ करार दिया है, उसकी वजह अल्‍लाह के रसूली का यह बयान की, ''जो कोई भी इस हालत में मरा कि वोह अपने वक्‍त के ईमाम को नहीं जानता हो, तो वोह जहालत की मौत मरेगा।” और इसलिये की उम्‍मत (सहाबा) ने ईमान के इनेक़ाद (appointment) को  अल्‍लाह के रसूल के इन्‍तेक़ाल के बाद सबसे अहम मामला समझा, इस हद तक कि उन्‍होंने इस मामले को अल्‍लाह के रसूल की तदफीन से ज्‍़यादा अहमियत दी, और उसी तरह हर ईमाम के इन्‍तेक़ाल के बाद, और इसलिऐ भी कि बहुत सारी शरिअत के फराईज़ ईस पर निभर करते है।'' (ईमाम अल-तफ्तनज़ानी (मतूफी 792 हि.) शरह अल; अक़ाईद अल-नसफिय्या, पेज-353-354)

2यह जिस बात की जि़क्र किया गया है उसे समझने के लिये यह जानना ज़रूरी है कि सभी ओलमा सिवाऐ कुछ मुट्ठी भर के, जिनकी राय कोई वज़न नही रखती – यह राय रखते है कि ख़लीफा का इनेक़ाद एक फर्ज़ है। ईस फर्जि़यत की सूरत पर इख्तिलाफ है; क्‍या इसकी दलील वह्यी कि बुनियाद पर है या अक्‍़ल की बुनियाद पर, और (इनेक़ाद का) यह फरीज़ा अल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) पर है कि इंसान पर; अक्‍सरियत का मानना है कि इंसान पर यह जिम्‍मेदारी है और इसकी दलील वह्यी की बुनियाद पर है। यही सहीह मसलक है। दूसरे कहते है कि यह फर्जि़यत अक्‍ल की बुनियाद पर है और अल्‍लाह के ज़रिये इनेक़ाद होता है, या यह कि दलील अक्‍ल की बुनियाद पर है और इनेकाद की जिम्‍मेदारी इंसान पर है।



''बेशक ईमाम का इनेक़ाद फर्ज़ है, जिसकी फर्ज़ियत वह्यी से जानी जाती है सहाबा और तवाईन के ईजमा के ज़रिये से, क्‍योंकि अल्‍लाह के रसूल के सहाबा हज़रत अबू बक्र की बेअत की तरफ जल्‍दी की और अपने मामलात को उनके सुपुर्द कर दिया आप (صلى الله عليه وسلم) के इन्‍तक़ाल के बाद। उसी तरह से उसके बाद हर दौर में, लोगों को किसी भी दौर में बदनज़मी की हालत में नहीं छोडा़ और इस मामले पर ईजमा क़ायम रहा, जिससे ईमाम के इनेक़ाद की फर्ज़ियत का करीना मिलता है।'' (इब्‍ने खल्‍लीदून (मतूफी-808 हिजरी), अल-मुक़द्दिमा, बान-III सेक्‍शन-26, दूसरा पेरा)



''जान लो कि सहाबा (رضی اللہ عنھم) का इस पर ईजमा है कि नबुव्‍वत के दौर के बाद ईमाम का चुना जाना एक फर्ज़ था। बल्कि उन्‍होंने इसे सबसे ज़रूरी फर्ज़ बना दिया (जाना) क्‍योंकि वोह इसे लेकर मसरूफ हो गये अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की तदफीन पर (तरजीह देते हुए)।'' (ईमाम इब्‍ने हज़र अल-हेसमी (मतूफी-974 हिज़री), अल-सवाईक अल-मुहरिक़ाह, 1:25)



''लोगों पर यह फर्ज़ है कि वोह एक ईमाम का इनेक़ाद जो उनके मफाद का ध्‍यान रखे – जैसे अहकाम का निफाज़, हदूद को लागू करना, सरहदो की दिफा, फौज तैयार करना, ज़कात ईकट्ठी करके बांटना, बागि़यों को क़ाबू करना, चोरो, डकैतो को लोगों के दर्मियान पैदा होने झगडो़ का हल करना, माले गनीमत तक्‍़सीम करना और उसके जैसे दूसरे काम क्‍योंकि उनके इनेक़ाद पर अल्‍लाह के रसूल के इन्‍तेक़ाल के बाद सहाबा का ईजमा रहा, और यह इस हद तक रहा कि उन्‍होंने इसे सबसे अहम फरीज़ा जाना और आप (صلى الله عليه وسلم) की तदफीन से बडकर अहमियत दी, और मुसलमान ईस पर (ईमाम के इनेक़ाद) हर दौर में क़ायम रहे’’। (ईमाम शमसुद्दीन अल-रमली (मि. 1004 हि.), गयात अल-बयान फी शरह ज़ब्‍द इब्‍ने रसलन, 1:15)


''मुसलमानों पर ख़लीफा का इनेक़ाद फर्जे़ किफाया है।'' (मन्‍सूर इब्‍ने यूनुस (मतूफी 1051 हि.), अल-कश्‍शाफ अल क़िनाअन मत्‍न अल-ईक़ना, 6:158)



''सबसे बडी़ ईमामत (खिलाफत) लोगों पर इनेक़ाद (appoint) करने का आमतौर से हक़ है। इसका मुताला (Study  या अध्‍ययन) दीन के ईल्‍म में शमिल है और इसका क़याम सबसे बडे फराईज़ में से है (यह सबसे बडा़ फर्ज़ है क्‍योंकि शरिअत के दूसरे फराईज़ का पूरा होना इस पर मुन्हसिर है) इसीलिये उन्‍होंने (सहाबा رضی اللہ عنھم) ने इसे अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की तदफीन (दफन) पर इसे तर्जीह दी [आप (صلى الله عليه وسلم) का इन्‍तेक़ाल सोमवार को हुआ और उन्‍हे मंगल के दिन या बुधवार की रात या दिन (मुख्‍तलिफ रिवायत में मुताबिक) दफनाया गया और यह सुन्‍नत आज तक मौजूद है इस तरह से कि किसी ख़लीफा को उस वक्‍त तक दफन नही किया जाता जब तक दूसरे का इनेक़ान नहीं कर दिया जाता है] (ईमाम अल-हसकफी (मतूफी 1088 हिजरी) और इब्‍ने आबिदीन (मतूफी 1252 हि.) रद्द अल-मुहतार अला अल-दुर्र अल-मुख्‍तार, 1:598)



''जान लो कि मुसलमानो की जमात में एक ख़लीफा का होना फर्ज़ है क्‍योंकि इसके बिना मुसलमानों को मफाद हासिल नहीं हो सकता . . . .’’ (शाह वलीउल्‍लाह अद-दहलवी (मतूफी-1152 हि.), हुज्‍जतुल्‍लाह-बालिगा़, 2:229)



''जब अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) का इन्‍तेक़ाल हो गया तो सहाबा ने सियासी क़यादत (ईमामत) के मामले और बैअते ईमाम को सबसे ज्‍़यादा अहमियत दी, इस हद तक की वोह इसमें मसरूफ हो गये (तरजीह देते हुए) अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की तदफीन की तैयारी पर . . . . . . ईमाम के इनेक़ाद की फर्ज़ियत, और बैअत देने के सबसे क़वी दलाईल अहमद, अल-तिर्मिज़ी, इब्‍ने खुजै़मा और इब्‍ने हिब्‍बान की सहीह हदीस जिसे अल-हारिस अल-अश्‍अरी से अखज़ किया गया है जिसके अल्‍फाज़ [कि अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया], ''जो कोई मरा ईस हाल में की उसके उपर जमात मे एक ईमाम न हो, तो उसकी मौत यक़ीनन जहालत की मौत है। अल-हाकिम ने भी इसे इब्‍ने उमर और मुआविया, और अल-बज्‍़जार ने इब्‍ने अब्‍बास से भी रिवायत किया है।'' (ईमाम अल-शौकानी (मतूफी 1250 हि.) अल-सेल अल-जर्रार अल-मुतक़द्दिफ अल-हदाईक़ अल-अज़हर, 1:936)


''ईमामो ने (चार मज़हबो के ; हबू हनीफा, मलिक, शाफई, अहमद) – (अल्‍लाह उन पर रहमत करें) – सभी का इस पर ईजमा है कि ईमामत फर्ज़, और मुसलमानों को ज़रूर एक ईमाम का इनेक़ाद करना चाहिऐ जो दीन के मरासिम (rites) को निफाज़ करे, और जो ज़ालिम के मुक़ाबले में मज़लूम की मदद करे, और ईस बात पर इत्तिफाक़ है कि ईस बात की ईजाज़त नही कि एक वक्‍त में, मुसलमानों में दो ईमाम होने चाहिए, चाहे वो एक दूसरे से मुत्‍तफिक हो या इख्तिलाफ करे, और यह कि ईमाम क़ुरेश से होना चाहिए और ईमाम के लिये जाईज़ है कि ईमाम अपना एक जानशीन (Successor) चुन सकता है।'' (ईमाम अल-जुजे़री (मतूफी-1360 हि.), अल फिक़, अल-मज़ाहिब अल-अरबा, 5:416)                                           

     
 

 
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.