खलीफा से अक़्दे बैअत

ख़िलाफ़त बाहमी रजामंदी और इख्तियार पर आधारित एक अक़्द (सन्धि/contract) है। ये उस शख़्स की इताअत की बैअत करना है जो हुकूमत के मुआमले में लोगों की इताअत का हक़दार हो। इसलिए इस में बैअत करने वाले और जिस को बैअत दी जा रही है (यानी ख़लीफ़ा) दोनों की रजामंदी शामिल होना लाज़िम है। चुनांचे अगर कोई शख़्स ख़लीफ़ा बनने से इनकार करदे तो उसे ख़लीफ़ा बनने पर मजबूर करना जायज़ नहीं। इस ओहदे को क़बूल करने के लिए उस पर जबरदस्ती नहीं करना चाहीए बल्कि ऐसी सूरत में किसी दूसरे को चुन लेना चाहिए। इसी तरह ताक़त और जबरदस्ती के ज़रीये लोगों से बैअत लेना भी जायज़ नहीं। ऐसा अक़्द सही ना होगा क्योंकि इस में जबरदस्ती और मजबूरी के असरात दाखिल हो गये।

ख़िलाफ़त के अक़्द का बिला जब्र और बाहम रजामंदी-ओ-इख्तियार के साथ होना ज़रूरी है क्योंकि ये भी दूसरे अक़ूद की तरह एक अक़्द है। अगर बैअत का अक़्द उन लोगों की बैअत देने से मुकम्मल हो जाए जिन की बैअत मोतबर है तो ये अक़्द तै पा जाएगा ,पस जिस की बैअत की गई वही उलिल अम्र होगा और उस की इताअत फ़र्ज़ होगी। इस के बाद की जाने वाली बैअत इताअत की बैअत होगी और ये ख़िलाफ़त के इनेक़ाद की बैअत ना होगी। अब बाक़ी लोगों को ख़लीफ़ा की बैअत पर मजबूर करना जायज़ है क्योंकि ये इताअत पर मजबूर करना है जो अब लोगों पर शरअन वाजिब हो चुकी है । और ये ख़िलाफ़त के इनेक़ाद की बैअत नहीं कि जिस के बारे में ये कहा जाये कि बैअत के लिए लोगों पर जब्र करना जायज़ नहीं। पहली बैअत अक़्द को अंजाम देने की बैअत है, और ये सिर्फ़ उस वक़्त दुरुस्त होती है जब इस में रजामंदी और इख्तियार मौजूद हो। जब ये बैअत पाया-ए-तकमील तक पहुंच गई तो अब ख़लीफ़ा की बैअत करने से मुराद ख़लीफ़ा की इताअत करना है । और इस मुआमले में अल्लाह के हुक्म को नाफ़िज़ करने के लिए जबरदस्ती करना जायज़ है। चूँकि ख़िलाफ़त एक अक़्द है लिहाज़ा इस के लिए आक़िद (मुआहिदा करने वालों) की मौजूदगी ज़रूरी है। ख़िलाफ़त का मुआमला क़ज़ा (अदलिया) की मानिंद है । कोई भी शख़्स उस वक़्त तक क़ाज़ी नहीं बन सकता जब तक कोई उसे ये ज़िम्मेदारी ना सौंपे। हुकूमत का मुआमला भी इसी तरह है ,कोई शख़्स उस वक़्त तक हाकिम नहीं हो सकता जब तक कोई उसे हुकूमत करने की ज़िम्मेदारी ना सौंपे। पस कोई शख़्स उस वक़्त तक ख़लीफ़ा नहीं हो सकता कि जब तक कोई उसे ख़लीफ़ा मुक़र्रर ना करे। चुनांचे इस से ज़ाहिर हुआ की कोई शख़्स उस वक़्त तक ख़लीफ़ा नहीं हो सकता जब तक कि मुसलमान उसे ख़लीफ़ा मुक़र्रर ना कर लें। और कोई शख़्स ख़िलाफ़त के इख्तियार का हामिल उस वक़्त तक नहीं हो सकता जब तक कि ख़िलाफ़त के मुआहिदे के ज़रीये उसे ये इख्तियारात सौंपे ना जाएं। और अक़्द उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं हो सकता जब तक कि दोनों फ़रीक़ यानी ख़िलाफ़त का उम्मीदवार और वो मुसलमान जो इस के ख़लीफ़ा बनने पर राज़ी हैं, मौजूद ना हों । लिहाज़ा ख़िलाफ़त के इनेक़ाद के लिए मुसलमानों की बैअत ज़रूरी है।

सत्ता पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा करने वालों के मुताल्लिक़ हुक्म:

अगर कोई शख़्स इक़तिदार (सत्ता) पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा जमाले तो ऐसा करने से वो शख़्स ख़लीफ़ा नहीं बन जाता, ख़ाह वो मुसलमानों के सामने अपने ख़लीफ़ा होने का ऐलान भी कर दे। उस की वजह ये है कि मुसलमानों ने उस के साथ ख़िलाफ़त का अक़्द नहीं किया। अगर वो लोगों से जब्रन बैअत ले और इस के नतीजे में लोग उस की बैअत कर भी लें तो तब भी वो ख़लीफ़ा नहीं हो सकता क्योंकि जब्र और ज़बरदस्ती की बैअत मोतबर नहीं होती और इस से ख़िलाफ़त का इनेक़ाद नहीं हो सकता। ख़िलाफ़त का अक़्द बाहम रजामंदी और इख्तियार से तै पाता है और ये ज़बरदस्ती और जबरन तय नहीं पाता। ये अक़्द सिर्फ़ रज़ामंदी और इख्तियार के साथ बैत देने से ही वक़ूअ पज़ीर होता है। अलबत्ता अगर मुतसल्लित लोगों को इस बात पर क़ाइल करे कि उस की बैअत करना ही मुसलमानों के लिए बेहतर है और वो अहकाम-ए-शरीयत को नाफ़िज़ करेगा और लोग इस पर राज़ी हो जाएं और अपनी रजामंदी और इख्तियार से उस की बैअत कर लें तो अब ये शख़्स उस वक़्त से ख़लीफ़ा तसव्वुर होगा जब रजामंदी और इख्तियार से उस की बैअत की गई, अगरचे उस ने हुकूमत पर जबरदस्ती क़ब्ज़ा किया था। शर्त रज़ामंदी और इख्तियार के साथ बैअत करना है, ख़ाह वो शख़्स जिस की बैअत की गई, पहले से हुक्मरान और साहिबे इक़्तिदार हो या ना हो।

किन लोगों के ज़रीये ख़िलाफ़त की स्थापना होती है ?

इस का इल्म ख़ुलफ़ाए राशिदीन और इजमा सहाबा का जायज़ा लेने से होता है। चुनांचे अबूबक्र (رضي الله عنه) की बैअत में मदीना के मुसलमानों में से सिर्फ़ अहले हल व अक़्द पर इकतिफ़ा (भरोसा) किया गया। अहल-ए-मक्का और बाक़ी जज़ीरानुमा अरब के मुसलमानों की राय नहीं ली गई , बल्कि उन से पूछा भी नहीं गया। उमर (رضي الله عنه)  की बैअत में भी यही हुआ। उसमान (رضي الله عنه) की बैअत में अबदुर्रहमान बिन औफ (رضي الله عنه) ने मदीना के मुसलमानों की राय ली और सिर्फ़ अहले हल व अक़्द की राय पर इकतिफ़ा (संतोष) नहीं किया। और अली (رضي الله عنه) की मर्तबा अहले मदीना और अहल-ए-कूफ़ा की अक्सरियत ने बैअत दी और बैअत में वो तन्हा थे। उन की बैअत का उन के मुख़ालिफ़ीन, हत्ता कि उन के साथ लड़ने वालों को भी एतबार था । चुनांचे उन्होंने आप के इलावा ना किसी और को बैअत दी और ना ही आप की बैअत पर कोई एतराज़ किया, बल्कि उन लोगों ने सिर्फ़ उसमान (رضي الله عنه)  के ख़ून के क़िसास की मांग की। लिहाज़ा उन का हुक्म बाग़ीयों जैसा था। ऐसी सूरत-ए-हाल में ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी है कि वो उन के सामने मुआमले की वज़ाहत करे और ना मानने वालों से क़िताल करे। उन लोगों ने अपनी अलैहदा ख़िलाफ़त क़ायम नहीं की।

ये सब कुछ ,यानी बाक़ी तमाम इलाक़ों को छोड़कर सिर्फ़ दार उल-खिलाफ़ा के लोगों की बैअत से ख़लीफ़ा का इंतिख़ाब सहाबा (رضی اللہ عنھم) की आँखों के सामने हुआ। और सहाबा (رضی اللہ عنھم) ने अहले मदीना की अक्सरियत तक इस बैअते इनेक़ाद को महदूद करने का ना तो इनकार किया और ना ही उस की मुख़ालिफ़त की। चुनांचे सहाबा (رضی اللہ عنھم) का इजमा था कि हुकूमत के मुआमले में मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वालों की बैअत के ज़रीये ख़िलाफ़त क़ायम हो जाती है। क्योंकि अहले हल व अक़्द और अहले मदीना की अक्सरियत ही हुकूमत के मुआमले में उस वक़्त इस्लामी रियासत की अक्सरियत की राय की नुमाइंदगी कर रही थी ।

चुनांचे जिस ख़लीफ़ा की जगह नए ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब का इरादा किया जाये तो पिछले ख़लीफ़ा के दायरा इख्तियार में शामिल उम्मते मुस्लिमा के नुमाइंदों की अक्सरियत जब इस (नए उम्मीदवार) की बैअत कर ले तो ख़िलाफ़त का मुआहिदा मुकम्मल हो जाएगा, जैसे ख़ुलफ़ाए राशिदीन के दौर में हुआ और ये ख़िलाफ़त के अक़्द की बैअत होगी। अलबत्ता ख़लीफ़ा के तक़र्रुर (नियुक्ति) के बाद बाक़ी अफ़राद की बैअत, इताअत की बैअत होगी, यानी ये ख़लीफ़ा की फ़रमांबर्दारी की बैअत होगी ना कि ख़िलाफ़त के अक़्द की बैअत।

ऐसा ख़लीफ़ा की मौत या उसे हटाने और उस की जगह दूसरा ख़लीफ़ा मुक़र्रर करने की सूरत में होगा। मगर जब कोई ख़लीफ़ा सिरे से मौजूद ही ना हो तो शरई अहकामात के निफाज़ और दुनिया भर में इस्लाम की दावत को ले जाने के लिए ख़लीफ़ा का तक़र्रुर मुसलमानों पर फ़र्ज़ हो जाता है । जैसा कि 1343 हिजरी बमुताबिक़ 1924 ई. में इस्तम्बूल (तुर्की) में ख़िलाफ़ते उस्मानिया के इन्हिदाम (खात्में) से लेकर आज तक ये फ़र्ज़ अदा नहीं हुआ।

मौजूदा सूरत-ए-हाल में आलम-ए-इस्लाम का हर मुल्क इस काबिल है कि उस में किसी ख़लीफ़ा की बैअत की जाये और इस तरह वहां ख़िलाफ़त क़ायम की जाये। जब इन मुल्कों में से किसी मुल्क के अफ़राद किसी शख़्स की बैअत कर लें और उस की ख़िलाफ़त क़ायम हो जाये तो तमाम मुसलमानों पर फ़र्ज़ हो जाता है कि वो उसे बैअते इताअत दें। यानी वो उस की क़ियादत को तस्लीम करने की बैअत करें। और ये उस वक़्त होगा जब इस मुल्क के लोगों की बैअत से उस शख़्स की ख़िलाफ़त क़ायम हो चुकी हो। ख़ाह वो इलाक़ा मिस्र, तुर्की और इंडोनेशिया जैसा बड़ा मुल्क हो या फिर उरदन (जार्डन), तीवनस (टयुनिशिया) और लेबनान की मानिंद छोटा हो, बशर्ते के वहां मुंदरजा ज़ैल (नीचे लिखे)  चार उमूर पाए जाएं:

पहला : वो मुल्क अपनी अथार्टी में ख़ुदमुख़तार हो। यानी इस मुल्क में इक़तिदार मुसलमानों के ज़रीये हो, किसी काफिर रियासत या कुफ़्फ़ार के असर ओ रसूख़ के बलबूते पर ना हो।

दूसरा: इस मुल्क में मुसलमानों की अमान (सुरक्षा) इस्लाम की अमान से हो, ना कि कुफ्र की अमान से। यानी इस इलाक़े का दाख़िली (आंतरिक) व विदेशी तहफ़्फ़ुज़ इस्लामी तहफ़्फ़ुज़ हो , जो मुसलमानों की क़ुव्वत के बलबूते पर क़ायम हो, जो एक ख़ालिस इस्लामी ताक़त है।

तीसरा: वो मुल्क फ़ौरन इस्लाम के हमागीर और इन्क़िलाबी निफाज़ का आग़ाज़ करे और इस्लामी दावत की ज़िम्मेदारीयों को अदा करना शुरू करे।

चोथा:  जिस ख़लीफ़ा की बैअत की जाये वो शरायत-ए-इनेक़ाद पर पूरा उतरता हो। अगरचे शरायत-ए-अफ़ज़लीयत इस में मौजूद ना भी हों। क्योंकि असल चीज़ शरायत-ए-इनेक़ाद हैं।

जब कोई मुल्क इन चारों चीज़ों को पूरा करता है तो सिर्फ़ उसी मुल्क के मुसलमानों की बैअत करने से ख़िलाफ़त क़ायम हो जाएगी। अगरचे वहां के अहले हल व अक़्द की अक्सरियत मिल्लत-ए-इस्लामीया की अक्सरियत की नुमाइंदगी ना करती हो। क्योंकि ख़िलाफ़त का क़याम फ़र्ज़े किफ़ाया है और जो भी इस फ़र्ज़ को बतरीक़े-अहसन (अच्छे तरीक़े से) अंजाम दे तो उम्मते मुस्लिमा की तरफ़ से ये फ़र्ज़ पूरा हो जाएगा। मज़ीद बरआं अहले हल व अक़्द की अक्सरियत उस वक़्त शर्त है जब एक ख़लीफ़ा मौजूद हो, और वह फ़ौत हो जाये या माज़ूल कर दिया जाये और इस के बाद किसी दूसरे शख़्स को ख़लीफ़ा बनाया जा रहा हो। ताहम अगर सिरे से ख़िलाफ़त का वजूद ही ना हो और ख़िलाफ़त क़ायम करने की कोशिश की जा रही हो तो किसी भी ख़लीफ़ा से, जो शरायत-ए-इनेक़ाद पर पूरा उतरता हो, ख़िलाफ़त क़ायम हो जाएगी, ख़ाह उस की बैअत करने वालों की तादाद कितनी ही कम क्यों ना हो। क्योंकि उस वक़्त मसला ऐसे फ़र्ज़ की अदायगी का है, जिस के लिए मौजूद तीन दिन की मोहलत से ज़्यादा अर्सा गुज़र चुका है और मुसलमानों ने इस फ़र्ज़ को अदा नहीं किया और इस फ़र्ज़ की अदायगी में ग़फ़लत बरतने की वजह से वो ख़लीफ़ा के इंतिख़ाब के हक़ से महरूम हो चुके हैं। लिहाज़ा जो लोग इस फ़र्ज़ की अदायगी के लिए कोशिश करें तो वो ख़िलाफ़त का मुआहिदा मुकम्मल करने के लिए काफ़ी हैं। पस जैसे ही किसी मुल्क में ख़िलाफ़त क़ायम हो जाये और ख़लीफ़ा के साथ ख़िलाफ़त का अक़्द ते पा जाये तो फिर तमाम मुसलमानों पर इस ख़िलाफ़त के झंडे तले जमा होना और इस ख़लीफ़ा को बैअत देना फ़र्ज़ हो जाएगा। अगर वो ऐसा ना करें तो वो अल्लाह के नज़दीक गुनहगार ठहरेंगे। और इस ख़लीफ़ा पर भी फ़र्ज़ है कि वो उन्हें अपनी बैअत के लिए दावत दे। अगर वो उस की बैअत ना करें तो उन पर बाग़ी के हुक्म का इतलाक़ होगा और ख़लीफ़ा पर फ़र्ज़ होगा कि वो उन से उस वक़्त तक क़िताल करे जब तक कि वो उस की इताअत पर राज़ी नहीं हो जाते। पहले ख़लीफ़ा की बैअत, और मज़कूरा चारों शराइत पूरी करते हुए शरई मुआहिदे के ज़रीये क़ायम होने वाली ख़िलाफ़त के क़याम के बाद,अगर उसी मुल्क में या किसी दूसरे मुल्क में किसी दूसरे ख़लीफ़ा की बैअत की जाये, तो मुसलमानों पर फ़र्ज़ हो जाता है कि वो उस वक़्त तक इस से जंग करें जब तक कि वो पहले ख़लीफ़ा की बैअत नहीं करता। उस की दलील मुस्लिम की वो रिवायत है जो अब्दुल्लाह बिन अमरो बिन अल आस (رضي الله عنه) से  मर्वी है। वो बयान करते हैं कि उन्होंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को ये फ़रमाते हुए सुना:

))ومن بایع إماماً فأعطاہ صفقۃ یدہ وثمرۃ قلبہ ‘ فلیطعہ إن استطاع ‘ فإن جآء آخر ینازعہ فاضربوا عنق الآخر((

और जो शख़्स किसी इमाम ( ख़लीफ़ा) की बैअत करे तो उसे अपने हाथ का मुआमला और दिल का फल दे दे (यानी सब कुछ इस के हवाला कर दे) फिर उसे चाहिए कि वो हसब-ए-इस्तिताअत उस की इताअत भी करे। अगर कोई दूसरा शख़्स आए और पहले ख़लीफ़ा से तनाज़ा करे तो दूसरे की गर्दन उड़ा दो

उस की वजह ये भी है कि मुसलमानों का ख़लीफ़ा ही उन्हें इस्लाम के झंडे तले जमा करता है। जब ख़लीफ़ा मौजूद होगा तो मुसलमानों की जमात वजूद में आ जाएगी और मुसलमानों की जमात के साथ मिल कर रहना फ़र्ज़ होगा और उन के ख़िलाफ़ बग़ावत हराम होगी। क्योंकि इब्ने अब्बास (رضي الله عنه) से  रिवायत है कि नबी صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))من رأی من أمیرہ شیئاً یکرھہ فلیصبر علیہ‘ فإنہ مَنْ فارق الجماعۃ شِبراً فمات إلا مات میتۃ جاھلیۃ((

जो शख़्स अपने अमीर के किसी नापसंदीदा काम को देखे तो इस पर सब्र करे। क्योंकि जिस ने जमात से बालिशत भर भी अलैहदगी इख्तियार की और उस हालत में मर गया तो वो जाहिलियत की मौत मरा

और मुस्लिम ने इब्ने अब्बास (رضي الله عنه) से रिवायत किया है कि नबी صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))مَنْ کرہ من أمیرہ شیئاً فلیصبر علیہ ‘ فإنہ لیس أحد من الناس خرج من السلطان شبرا ‘ فمات علیہ إلا مات میتۃ جاھلیۃ((

जिस ने अपने अमीर की किसी चीज़ को नापसंद किया तो लाज़िम है कि वो इस पर सब्र करे। क्योंकि लोगों में से जिस ने भी अमीर की इताअत से बालिशत बराबर भी ख़ुरूज किया और वह इस हालत में मर गया तो वो जाहिलियत की मौत मरा

इन दोनों अहादीस का मफ़हूम ये है कि जमात और हुक़ूमत के साथ रहा जाये।


ग़ैर मुस्लिमों को बैअत का कोई हक़ नहीं और ना ही ये उन के लिए ज़रूरी है। क्योंकि ये इस्लाम, अल्लाह (سبحانه وتعال) की किताब और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की सुन्नत पर बैअत है और ये इस्लाम, किताब और सुन्नत पर ईमान का तक़ाज़ा करती है। ग़ैर मुस्लिमों को ये इजाज़त नहीं कि वो मुसलमानों पर हाकिम बनें और ना ये जायज़ है कि वो हुकमरानों का इंतिख़ाब करें। इसलिए कि उन्हें मुसलमानों पर कोई ग़लबा है और ना ही बैअत में इन का कोई हिस्सा है।

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