ख़लीफ़ा की माज़ूली (बर्खास्तगी)

ख़लीफ़ा उस वक़्त माज़ूल हो जाता है जब उस की सूरत-ए-हाल में ऐसी तबदीली घटित हो जाये जो उसे मंसबे ख़िलाफ़त से ख़ारिज कर दे। और ख़लीफ़ा को उस वक़्त माज़ूल कर दिया जाता है जब उस की हालत में कोई ऐसी तबदीली आ जाए जो उसे ख़िलाफ़त के मंसब से ख़ारिज तो ना करती हो लेकिन शरअन उस का इस ओहदे पर बरक़रार रहना नाजायज़ हो जाये।

वो हालत जो ख़लीफ़ा को ख़िलाफ़त के दायरे से बाहर कर दे और वो हालत जिस में उसे माज़ूल करना वाजिब हो, इन दोनों के माबैन (बीच) फ़र्क़ ये है कि पहली सूरत में ख़लीफ़ा की हालत में तबदीली के साथ ही उस की इताअत वाजिब नहीं रहती और वो ख़िलाफ़त के दायरे से ख़ुद बख़ुद बाहर हो जाता है जबकि दूसरी सूरत में उस की इताअत उस वक़्त तक वाजिब रहेगी जब तक कि उसे माज़ूल नहीं कर दिया जाता।

तीन सूरतों में ख़लीफ़ा ख़िलाफ़त के ओहदे से ख़ुदबख़ुद ख़ारिज हो जाता है :

1: अगर वो मुर्तद हो जाये। क्योंकि ख़िलाफ़त के इनेक़ाद की शराइत में से एक शर्त इस्लाम है। ये ख़िलाफ़त के इनेक़ाद की शर्त भी है और ख़िलाफ़त को जारी रखने की शर्त भी। जो भी इस्लाम से फिर गया वो काफ़िर हो गया और अगर वो अपने इर्तिदाद से रुजू ना करे तो उस शख़्स को क़त्ल करना वाजिब है। किसी काफ़िर के लिए ये जायज़ नहीं कि वो मुसलमानों पर हुकूमत करे या उसे मुसलमानों पर ग़लबा हासिल हो। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया

وَلَنْ یَّجْعَلَ اللّٰہُ لِلْکٰفِرِیْنَ عَلَی الْمُؤْمِنِیْنَ سَبِیْلاً
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने काफ़िरों को मोमिनों पर हरगिज़ कोई रास्ता (इख्तियार) नहीं दिया
(अन्निसा: 141)

और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:
أَیُّھَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْآ اَطِیْعُوا اللّٰہَ وَاَطِیْعُواالرَّسُوْلَ وَاُولِی الْاَمْرِمِنْکُم

ऐ ईमान वालो! इताअत करो अल्लाह (سبحانه وتعال) की और इताअत करो रसूल صلى الله عليه وسلم की और अपने में से उन लोगों की , जो साहिबे इक़्तिदार हैं (अन्निसा: 59)

यहां लफ़्ज़ मिनकुम यानी तुम में से इस बात की तरफ़ वाज़िह तौर पर इशारा करता है कि मुसलमानों के उलिल अम्र के लिए मुसलमान होना लाज़िम है। अगर हुक्मरानी का हामिल शख़्स मुर्तद हो गया तो फिर वो हम में से ना रहा। पस क़ुरआन ने हुक्मरान के लिए जिस सिफ़त की मौजूदगी को शर्त क़रार दिया है यानी इस्लाम, वो सिफ़त खत्म हो गई। लिहाज़ा ख़लीफ़ा अपने इर्तिदाद की वजह से ख़िलाफ़त के ओहदे से ख़ारिज हो जाएगा। अब वो मुसलमानों का ख़लीफ़ा नहीं है और उस की इताअत भी वाजिब नहीं है ।

2: अगर ख़लीफ़ा मुस्तक़िल (स्थाई) तौर पर मजनून(पागल) हो जाये और वो सेहत याब ना हो सके। ये इस वजह से है कि आक़िल होना इनक़ाद-ए-ख़िलाफ़त की शर्त है और ये ख़िलाफ़त के जारी रहने की शर्त भी है। क्योंकि रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))رُفع القلم عن ثلاثۃ۔۔((
तीन अफ़राद से क़लम उठा लिया जाता है ...

से लेकर यहां तक कि आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))وعن المعتوہ حتی یبرأ((
और मजनून से जब तक कि उस की अक़ल वापिस लौट आए

और एक और रिवायत में है:
))عن المجنون المغلوب علی عقلہ حتی یفیق((

और मजनून जब तक कि वो सेहतयाब ना हो जाये

जिस शख़्स से क़लम उठा लिया जाये उसके अपने उमूर को उसके हवाले करना दुरुस्त नहीं और ऐसे शख़्स का ख़लीफ़ा रहना बदरजा ऊला दुरुस्त नहीं ,जो कि लोगों के उमूर की देख भाल करता है।

3: अगर ख़लीफ़ा किसी ऐसे ज़बरदस्त दुश्मन की क़ैद में आ जाए जिस से वो ना तो छुटकारा हासिल करने की ताक़त रखता हो और ना ही क़ैद से उस की आज़ादी की कोई उम्मीद हो। इस क़ैद के नतीजे में वो मुसलमानों के उमूर की देख भाल से मुकम्मल तौर पर क़ासिर (मजबूर) होगा और उस की हालत ये होगी कि गोया वो मौजूद ही नहीं।

मुंदरजा बाला तीन सूरतों में ख़लीफ़ा मंसब-ए-ख़िलाफ़त से ख़ारिज हो जाता है और वह फ़िलफ़ौर माज़ूल हो जाता है अगरचे उस की माज़ूली का कोई हुक्म जारी ना हुआ हो। जिस शख़्स पर भी ये वाज़िह हो जाये कि ख़लीफ़ा में मुंदरजा बाला तीन तबदीलीयों में से कोई भी तबदीली वाक़े (घटित) हो गई है उसके लिए ख़लीफ़ा की इताअत करना और उसके अहकामात पर अमल करना वाजिब नहीं रहता।

ताहम ये साबित होना ज़रूरी है कि ख़लीफ़ा वाक़ई इन तीन हालतों में से किसी हालत में मुबतला हो गया है, और इस बात को महकमतुल मज़ालिम के सामने साबित किया जाता है जो अपना फ़ैसला सादर करता है कि ख़लीफ़ा मंसब ख़िलाफ़त से ख़ारिज हो गया है और उसे माज़ूल किया जाता है और यूं मुसलमान मंसब-ए-ख़िलाफ़त को किसी दूसरे शख़्स के हवाले करते हैं।
जहां तक इन सूरतों का ताल्लुक़ है , जिन में ख़लीफ़ा मंसब-ए-ख़िलाफ़त से फ़िलफ़ौर ख़ारिज तो नहीं होता लेकिन ख़लीफ़ा के लिए ख़िलाफ़त के ओहदे पर मौजूद रहना जायज़ नहीं रहता, तो वो पाँच हैं:

1: उस की सिफ़त-ए-अदालत मजरूह हो जाये यानी वो फ़ासिक़ हो जाये। क्योंकि सिफ़त-ए-अदालत का होना इनक़ाद-ए-ख़िलाफ़त की शर्त भी है और ख़िलाफ़त के जारी रहने की भी, और अगर अल्लाह ने गवाह के लिए आदिल होना लाज़िमी क़रार दिया है तो ख़लीफ़ा के लिए ये शर्त बदरजा ऊला है।

2: अगर ख़लीफ़ा औरत बन जाये या मुख़न्नस हो जाये क्योंकि ख़लीफ़ा के लिए मर्द होना ख़िलाफ़त के इनेक़ाद और दवाम (जारी रहने) के लिए शर्त है। क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))لن یفلح قوم ولوأمرھم امرأۃ((
वो क़ौम कभी फ़लाह नहीं पा सकती जो औरत को अपना हुक्मरान बना ले

3: अगर ख़लीफ़ा पर पागलपन के ऐसे दौरे पड़ें कि कभी वो अपने होश-ओ-हवास में हो और कभी मजनून। क्योंकि आक़िल होना ख़िलाफ़त के इनेक़ाद की शर्त है और ये इस के दवाम की शर्त भी है । ये इस बिना पर है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))رفع القلم عن ثلاثہ ۔۔۔ إلی أن یقول و عن المعتوہ حتی یبرأ((

तीन तरह के लोगों से क़लम उठा लिया जाता है से लेकर यहां तक कि आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: और मजनून जब तक उस की अक़्ल वापिस ना लौट आए

एक मजनून शख़्स अपने मुआमलात को चलाने पर क़ादिर नहीं लिहाज़ा इस के लिए लोगों के उमूर को चलाना बदरजा ऊला दुरुस्त नहीं। इस सूरत-ए-हाल में ख़लीफ़ा का वसी (निगरान) या वकील (नुमाइंदा) मुक़र्रर करना दुरुस्त नहीं क्योंकि ख़िलाफ़त का मुआहिदा ख़लीफ़ा की ज़ात के साथ तै पाता है और कोई दूसरा शख़्स उस की जगह लेने का मजाज़ नहीं।

4: अगर ख़लीफ़ा किसी भी वजह से ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के काबिल ना रहे, ख़ाह ऐसा जिस्मानी माज़ूरी की बिना पर हो या किसी बीमारी की वजह से या फिर कोई और वजह हो। यहां नुक्ता ये है कि वो अपनी ज़िम्मेदारीयों को पूरा करने से आजिज़ है।

ये इस वजह से है कि ख़िलाफ़त का मुआहिदा ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारीयों को पूरा करने पर मबनी है। अगर ख़लीफ़ा इस मुआहिदे को पूरा करने से आजिज़ हो जाये तो इस का हटाया जाना लाज़िम हो जाता है, क्योंकि उस की हालत ऐसे ही है कि गोया वो मौजूद ही नहीं। इस तरह अगर वो इन ज़िम्मेदारीयों को अंजाम नहीं दे सकता जिसके लिए उसे बतौर ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया गया, तो दीन के मुआमलात और मुसलमानों के मुफ़ादात मुअत्तल हो जाऐंगे जो कि एक मुनकिर है जिसे मिटाना वाजिब है और ये उस वक़्त तक नहीं हो सकता जब तक ख़लीफ़ा को माज़ूल कर के उस की जगह नए ख़लीफ़ा का तक़र्रुर ना किया जाये, चुनांचे इस सूरत में ख़लीफ़ा की माज़ूली वाजिब हो जाती है।


5: अगर ख़लीफ़ा किसी के ज़बरदस्ती की वजह से अपनी मर्ज़ी से शरह के मुताबिक़ लोगों के उमूर की देख भाल से क़ासिर हो जाये। जब इस पर कोई ताक़त इस हद तक ग़ालिब आ जाए कि वो शरीयत के मुताबिक़ अपनी आज़ाद राय से मुसलमानों के उमूर के देख भाल ना कर सके तो इस सूरत में वो ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारीयों को पूरा करने से हक़ीक़त में आजिज़ तसव्वुर किया जाएगा। इसलिए उसे माज़ूल करना फ़र्ज़ होगा। ऐसा दो सूरतों में हो सकता है:

पहली सूरत: अगर इस के हाशिया बर्दारों में से कोई शख़्स या अश्ख़ास इस पर इस हद तक मुसल्लत हो जाएं कि वो जब्रन ख़लीफ़ा से अपनी राय के मुताबिक़ मुआमलात निमटाएं और उन का असरो रसूख़ (प्रभाव) इस हद तक ज़्यादा हो जाये कि वो इस पर कंट्रोल हासिल कर लें और खलीफा उन से इख्तिलाफना कर सकता हो और वो उन्ही की राय पर अमल करने पर मजबूर हो। इस सूरत-ए-हाल में मुआमले का जायज़ा लिया जाएगा, अगर मुख़्तसर मुद्दत में उन के तसल्लुत (आधिपत्य) से निजात पाने की उम्मीद हो तो उन्हें दूर करने और उन से निजात हासिल करने के लिए उसे मुख़्तसर मुद्दत दी जाएगी। अगर उस ने ऐसा कर लिया तो रुकावट दूर हो जाएगी और उस की अथार्टी बहाल हो जाएगी और वो ख़िलाफ़त के ओहदे पर बरक़रार रहेगा वर्ना इसे माज़ूल कर दिया जाएगा। अगर इस तसल्लुत से नजात की कोई उमीद ना हो तो उसे फ़ौरन माज़ूल कर दिया जाएगा।

दूसरी सूरत: अगर ख़लीफ़ा जिस्मानी तौर पर किसी ज़बरदस्त दुश्मन की क़ैद में चला जाये या फिर दुश्मन इस पर हावी हो जाये। इस सूरत में मुआमले का जायज़ा लिया जाएगा, अगर उम्मीद हो कि वो अपने आप को दुश्मन से निजात दिला लेगा तो उसे इस बात की मोहलत दी जाएगी बसूरत-ए-दूसरे उसे माज़ूल कर दिया जाएगा। अगर दुश्मन से निजात की कोई उम्मीदना हो तो फिर उसे फ़ौरन माज़ूल कर दिया जाएगा।

इन दोनों सूरतों में ख़लीफ़ा अहकाम-ए-शरीयत के मुताबिक़ ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारीयों को पूरा करने के  क़ाबिल नहीं रहता, और उस की हक़ीक़त ऐसे ही होती है कि गोया वो मौजूद ही नहीं, और वो इन अफ़आल को अंजाम देने पर क़ादिर नहीं जिन पर ख़िलाफ़त का मुआहिदा तै पाया था।
ताहम मुंदरजा बाला दोनों सूरतों में अगर ये उम्मीद मौजूद हो कि वो निजात हासिल करेगा तो फिर उसे मोहलत देना ज़रूरी है जब तक कि उस की निजात की कोई उम्मीद बाक़ी ना रहे, जिस के बाद उसे माज़ूल कर दिया जाएगा। लेकिन अगर इब्तिदा से ही उस की निजात की कोई सूरत मौजूद ना हो तो फिर उसे फ़िलफ़ौर माज़ूल करना ज़रूरी है।

पस इन पाँच हालतों में ,जिन का ऊपर ज़िक्र किया गया, ख़लीफ़ा को माज़ूल करना ज़रूरी है। ताहम उसे उस वक़्त तक माज़ूल नहीं किया जा सकता जब तक कि उस की इस सूरत-ए-हाल के मुताल्लिक़ अदालती फ़ैसला सादर ना हो जाये। इन पांचों सूरतों में ख़लीफ़ा की इताअत वाजिब रहती है और इस के अहकामात को नाफ़िज़ किया जाता है जब तक कि उस की माज़ूली का फ़ैसला सादर ना हो जाये। इन तमाम सूरतों में ख़िलाफ़त का मुआहिदा ख़ुदबख़ुद मंसूख़ (निरस्त) नहीं हो जाता, बल्कि इस के लिए क़ाज़ी के फ़ैसले की ज़रूरत होती है।

उम्मत ख़लीफ़ा को माज़ूल करने का इख्तियार नहीं रखती :

अगरचे उम्मत ख़लीफ़ा को मुक़र्रर करती है और उसे बैअत देती है ताहम जब एक मर्तबा शरह के मुताबिक़ ख़लीफ़ा की बैअत पाया-ए-तकमील तक पहुंच जाये तो फिर उम्मत ख़लीफ़ा को माज़ूल करने का इख्तियार नहीं रखती।

ये इस वजह से है कि सही अहादीस में मुसलमानों को हुक्म दिया गया है कि अगर ख़लीफ़ा मुनकिर का इर्तिकाब करे, लोगों पर ज़ुल्म करे हत्ता कि अगर वो लोगों के हुक़ूक़ ग़सब (हडप) करे तो तब भी वो ख़लीफ़ा की इताअत से हाथ ना खींचें ,जब तक कि वो उन्हें मासियत (गुनाह) का हुक्म ना दे और जब तक इस से कुफ्रे बुवाह (खुल्लम खुल्ला कुफ्र) का ज़हूर ना हो जाए। बुख़ारी ने इब्ने अब्बास (رضي الله عنه) से रिवायत किया जिन्होंने बयान किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))من رأی من أمیرہ شیئاً یکرھہ فلیصبر، فإنہ لیس أحد یفارق الجماعۃ شبراً ‘ فیموت إلا مات میتۃ جاھلیۃ((
जिस ने अपने अमीर की किसी चीज़ को नापसंद किया तो लाज़िम है कि वो इस पर सब्र करे। क्योंकि कोई शख़्स अगर जमात से बालिशत बराबर भी अलग हुआ और वो इस हालत में मर 
गया तो वो जाहिलियत की मौत मरा

इस हदीस में लफ़्ज़ अमीरह आम है और इस का इतलाक़ ख़लीफ़ा पर भी होता है क्योंकि वो मुसलमानों का अमीर है। मुस्लिम ने अबू हुरेरा (رضي الله عنه) से रिवायत किया, आप ने बयान किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))کانت بنو إسرائیل تسوسھم الأنبیاء ‘ کلما ھلک نبي خلفہ نبي‘ وإنہ لا نبي بعدي ‘ وستکون خلفاء فتکثر ‘ قالوا: فما تأمرنا؟ قال: فُوا ببیعۃ الأول فالأول‘ وأعطوہم حقھم ‘ فإن اللّٰہ سائلھم عما استرعا ھم((

बनी इसराईल की सियासत अंबिया करते थे । जब कोई नबी वफ़ात पाता तो दूसरा नबी उस की जगह ले लेता,जबकि मेरे बाद कोई नबी नहीं है, बल्कि बड़ी कसरत से खुलफा होंगे। सहाबा ने पूछा: आप हमें क्या हुक्म देते हैं ? आप ने फ़रमाया: तुम एक के बाद दूसरे की बैअत को पूरा करो और उन्हें उनका हक़ अदा करो। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) उन से उन की रईयत के बारे में 
पूछेगा, जो उस ने उन्हें दी

मुस्लिम ने रिवायत किया कि सलमा बिन यज़ीद अलजाफ़ी ने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से सवाल किया कि ऐ अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم, अगर हमारे ऊपर ऐसे अमीर हों जो हम से अपना हक़ तलब करें और हमें हमारा हक़ अदा ना करें तो आप हमें क्या हुक्म देते हैं। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इलतिफ़ात (ध्यान) ना किया, फिर सलमा ने दूसरी या तीसरी मर्तबा सवाल किया तो उसे अल इशयत बिन क़ैस ने खींच लिया, तब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:
))اسمعوا وأطیعوا فإنما علیھم ما حُمِّلو و علیکم ما حُملتم((
सुनो और इताअत करो, उन से उन की ज़िम्मेदारी के मुताल्लिक़ पूछ होगी और तुम से तुम्हारी ज़िम्मेदारी के मुताल्लिक़ पूछ होगी

मुस्लिम ने औफ़ बिन मालिक (رضي الله عنه) से रिवायत किया: मैंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को ये कहते हुए सुना:

))خیارأ ئمتکم الذین تحبونھم ویحبونکم ‘ وتصلون علیھم ویصلون علیکم‘ وشرار ائمتکم الذین تبغضونھم ویبغضونکم وتلعنونھم ویلعنونکم‘ قالوا: قلنایارسول اللّٰہ أفلا ننابذھم عند ذلک؟ قال:لا، ما أقاموا فیکم الصلاۃ، ألا مَن وَلَي علیہ وال، فرآہ ےأتي شےئاً مِن معصےۃ اللّٰہ فلیکرہ ما ےأتي من معصےۃ اللّٰہ ولا ےَنْزِعَنَّ یداً مِن طاعۃ((
तुम्हारे लिए बेहतरीन इमाम वो हैं जिन से तुम मुहब्बत करो और वो तुम से मुहब्बत करें। वो तुम्हारे लिए दुआएं करें और तुम उन के लिए दुआएं करो और तुम्हारे बदतरीन इमाम वो हैं जिन से तुम नफ़रत करो और वो तुम से नफ़रत करें और तुम उन पर लानत करो और वो तुम पर लानत करें । हम ने पूछा: ऐ अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم क्या हम (ऐसी सूरत में) उन्हें हटा ना दें। आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: नहीं, जब तक कि वो तुम्हारे दरमियां सला को क़ायम रखें। ख़बरदार! अगर तुम पर किसी को वाली बनाया गया और तुम में से कोई उसे मासियत(गुनाह) का काम करता हुआ देखे तो वो इस मासियत से नफ़रत करे, लेकिन उस की इताअत से हाथ ना खींचे।

मुस्लिम ने खुज़ैफा बिन यमान(رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))یکون بعدي أئمۃ لا یھتدون بھدےي، ولا یستنون بسنتي و سیقوم فیکم رجال قلوبھم قلوب الشیاطین فی جُثمان إنس، قال : قلت: کیف أصنع یا رسول اللّٰہ إن أدرکت ذلک ؟ قال : تسمع و تطیع للأمیر وإن ضرب ظھرک، و أخذ مالک فاسمع و أطع((

मेरे बाद ऐसे इमाम होंगे जो मेरी हिदायत से रहनुमाई हासिल नहीं करेंगे और ना मेरी सुन्नत को अपनाएँगे और अनक़रीब तुम में ऐसे लोग खड़े होंगे कि उन के दिल इंसानी जिस्मों में शयातीन के दिल होंगे । मैं (खुज़ैफा) ने सवाल किया: ए अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم अगर मैं उस ज़माने को पांऊ तो क्या करूं? आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया: अमीर की बात सुनो और इताअत करो ख़ाह तुम्हारी पीठ पर मारा जाये या तुम्हारा माल ग़सब कर लिया जाये फिर भी उन की बात सुनो और इताअत करो


अहमद और अबू दाऊद ने रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
))یا أبا ذر کیف بک عند ولاۃ یستأثرون علیک بھذا الفيء؟ قال: والذي بعثک بالحق أضع سیفي علی عاتقي فأضرب بہ حتی ألحقک، قال : أفلا ادلک علی خیر لک من ذلک، تصبر حتی تلقاني((

ए अबूज़र! तुम उस वक़्त क्या करोगे अगर तुम्हारे हुक्मरान माल-ए-ग़नीमत ले लें और तुम्हें इस से महरूम रखें। आप ने जवाब दिया: उस ज़ात की क़सम जिस ने आप صلى الله عليه وسلم को हक़ दे कर मबऊस किया है , मैं अपनी तलवार उन के ख़िलाफ़ उठाऊंगा और उन से क़िताल करूंगा हत्ता कि मैं आप صلى الله عليه وسلم से आ मिलूं । आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: मैं तुम्हें ऐसी बात बताता हूँ जो तुम्हारे लिए इस से बेहतर है। इस पर सब्र करना यहां तक कि तुम मुझ से आ मिलो।

ये तमाम अहादीस इस बात की तरफ़ इशारा करती हैं कि ऐसा मुम्किन है कि ख़लीफ़ा अहकाम शरीयत के बरख़िलाफ़ अमल करे। ताहम इस के बावजूद रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने हमें ख़लीफ़ा की इताअत का हुक्म दिया और इस के ज़ुल्म पर सब्र करने के तलक़ीन की। ये इस बात पर दलालत करता है कि उम्मत को ख़लीफ़ा को माज़ूल करने का इख्तियार हासिल नहीं। इलावा अज़ीं रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने एक मौक़ा पर बद्दू को अपनी बैअत से आज़ाद करने से इनकार कर दिया जैसा कि बुख़ारी ने जाबिर बिन अब्दुल्लाह (رضي الله عنه) से  रिवायत किया :
((أن أعرابیاً بایع رسول اللّٰہﷺ علی الإسلام، فأصابہ وعک فقال : ((أقلني بیعتي)) فأبی۔ ثم جاء فقال:(( أقلني بیعتي)) فأبي۔ فخرج۔ فقال رسول اللّٰہ ﷺ: ((المدینۃ کالکیر تنفي خبثھا وتنصع طیبُھا))

एक आराबी (देहाती ) ने रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم के हाथ पर बैअत की और उसे बुख़ार हो गया तो उस ने कहा : मेरी बैअत वापिस करें। आप صلى الله عليه وسلم ने इनकार कर दिया। वो दुबारा आया और कहा: मेरी बैअत वापिस कर दीजीए। आप صلى الله عليه وسلم ने इनकार कर दिया। वो निकला तो आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: मदीना भट्टी की मानिंद है ,ख़बीस चीज़ों को निकाल देता है और पाकीज़ा और अच्छी चीज़ों को निखार देता है

ये इस बात की दलील है कि अगर बैअत एक दफ़ा हो जाये तो बैअत देने वाले पर उसे पूरा करना लाज़िमी होता है। इस का मतलब ये है कि लोगों को ख़लीफ़ा को हटाने का हक़ हासिल नहीं क्योंकि उन्हें अपनी बैअत वापिस लेने का हक़ हासिल नहीं। ये कहना ग़लत है कि इस बैअत की वापसी के ज़रीये बद्दू रियासत के हुक्मरान की इताअत से निकलने की बजाय इस्लाम से ख़ारिज होना चाहता था क्योंकि अगर मुआमला ये होता तो ये इर्तिदाद का अमल होता और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم उसे क़त्ल कर देते, क्योंकि मुर्तद की सज़ा क़त्ल करना है, और बैअत इस्लाम क़बूल करने की नहीं होती बल्कि इताअत की होती है। लिहाज़ा बद्दू इस्लाम से फिरने की बजाय इताअत से हाथ खींचना चाहता था। पस मुसलमानों के लिए ये दुरुस्त नहीं कि वो बैअत का तौक़ अपने गले से उतार दें और उन्हें ख़लीफ़ा को माज़ूल करने का इख्तियार हासिल नहीं। शरीयत ने इस बात का ताय्युन कर दिया है कि कब ख़लीफ़ा ख़ुदबख़ुद माज़ूल हो जाता है और किन सूरतों में उसे हटाना लाज़िम होता है। इस का हरगिज़ मतलब नहीं कि उम्मत ख़लीफ़ा को माज़ूल करने का इख्तियार रखती है।

ख़लीफ़ा को माज़ूल करने का इख्तियार सिर्फ़ महकम तुल मज़ालिम को हासिल है:

सिर्फ़ महकम तुल मज़ालिम ही इस बात का फ़ैसला करता है कि ख़लीफ़ा की हालत में ऐसी तबदीली वाक़े (घटित) हो गई है जिस की वजह से वो ख़िलाफ़त से ख़ारिज हो गया है या नहीं और सिर्फ़ महकम तुल मज़ालिम के पास ही ख़लीफ़ा को माज़ूल करने या उसे तनबीह करने का इख्तियार होता है।
कोई भी ऐसा मुआमला जो ख़लीफ़ा को माज़ूल कर दे या ख़लीफ़ा को माज़ूल करना लाज़िम हो जाये, मुज़लिमा कहलाता है । ताहम ये इन ऊमूर (मुआमलात) में से है जिस की तहक़ीक़ करना और इस का सबूत पेश करना लाज़िम होता है क्योंकि मुज़लिमा को क़ाज़ी के सामने साबित करना ज़रूरी है।
महकम तुल मज़ालिम ही पेश होने वाले किसी भी मुज़लिमा का फ़ैसला करता है। महकम तुल मज़ालिम के क़ाज़ी को ये लाज़िमी इख्तियारात हासिल होते हैं कि वो मुज़लिमा को साबित करे और इस पर फ़ैसला सादर करे। ताहम अगर ऐसी कोई सूरत-ए-हाल पैदा हो जाये और नतीजतन ख़लीफ़ा ख़िलाफ़त से दस्तबरदार हो जाए तो मुआमला ख़त्म हो जाएगा। अलबत्ता अगर मुसलमान ये समझें कि इस सूरत-ए-हाल में ख़लीफ़ा को हटाना वाजिब है और ख़लीफ़ा इस बात पर तनाज़ा करे तो फिर इस मुआमले को अदलिया की तरफ़ लौटाया जाएगा ,क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

فَاِنَْ تنَازَعْتُمْ فِیْ شَیْ ءٍ فَرُدُّوْہُ اِلَی اللّٰہِ وَالرَّسُوْلِ
अगर तुम किसी मुआमले में आपस में झगड़ा करो तो उसे अल्लाह और रसूल صلى الله عليه وسلم की तरफ़ लौटा दो
(अन्निसा: 59)

दूसरे लफ़्ज़ों में अगर तुम उलिल अम्र से कोई तनाज़ा करो यानी ये तनाज़ा हुक्मरान और उम्मत के दरमियान हो तो उसे अल्लाह और उस के रसूल صلى الله عليه وسلم की तरफ़ लौटा दिया जाये ,यानी उसे अदालत के सामने पेश किया जाये यानी महकम तुल मज़ालिम के सामने ।


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