फौज

अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों को ये शर्फ बख्शा कि उन्हें इस्लाम के पैग़ाम को पूरी दुनिया तक पहुंचाने के अज़ीम काम की ज़िम्मेदारी सौंपी और इस काम के लिये दावत व जिहाद के तरीके का ताय्युन किया । अल्लाह (سبحانه وتعال) ने जिहाद को मुसलमानों के लिये फ़र्ज़ क़रार दिया है, लिहाज़ा फ़ौजी तरबियत हासिल करना मुसलमानों पर फ़र्ज़ है।

पस कोई भी मुसलमान मर्द जो 15 साल की उम्र को पहुंच जाये इस पर जिहाद की तैय्यारी के सिलसिले में अस्करी तरबियत हासिल करना लाज़िम है। जहां तक फ़ौज में भर्ती का ताल्लुक़ है तो ये फ़र्ज़े किफ़ाया है। उस की दलील अल्लाह (سبحانه وتعال) के इस इरशाद से ज़ाहिर है:

وَقَـٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٌ۬ وَيَڪُونَ ٱلدِّينُ ڪُلُّهُ ۥ لِلَّهِۚ
और उन से क़िताल करो यहां तक कि फ़ित्ना बाक़ी ना रहे और दीन अल्लाह ही के लिये हो जाये
(अल अनफ़ाल:39)

नीज़ ये बात रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की इस हदीस से वाज़िह है जिसे अबु दाऊद ने अनस (رضي الله عنه) से रिवायत किया:

))جاھدوا المشرکین بأموالکم وأنفسکم وألسنتکم((
और मुशरिकीन के साथ अपने माल, अपनी जान और अपनी ज़बान से जिहाद करो

शरह के तय तरीक़े के मुताबिक़ जिहाद करने, दुश्मनों को शिकस्त देने और इलाक़ों को फ़तह करने के लिये अस्करी तरबियत लाज़िम है ,लिहाज़ा जिहाद की तरह अस्करी तरबियत भी फ़र्ज़ है जो इस शरई क़ाअदे के मुताबिक़ है

مالا یتم الواجب إلا بہ فھو واجب
जो चीज़ वाजिब को पूरा करने के लिये नागुज़ीर हो वो बज़ात-ए-ख़ुद वाजिब होती है ।

अस्करी तरबियत तलब-ए-क़िताल के इस हुक्म में शामिल है :

 وَقَاتِلُوھُمْ
 और उन से क़िताल करो ।
जो कि हुक्म-ए-आम है और ये क़िताल करने और किसी भी उस काम को अंजाम देने का हुक्म है जिस के ज़रीए क़िताल मुम्किन हो सके। इलावा अज़ीं अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फरमाया:

   وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٍ
और उन के लिये मक़दूर भर क़ुव्वत तैय्यार रखो
(अल अनफ़ाल:60)

जंगी तरबियत और आला अस्करी महारत, जंग लड़ने के लिये क़ुव्वत की तैय्यारी का हिस्सा है। क्योंकि क़िताल को मुम्किन बनाने के लिये इस का तुरंत उपलब्ध होना ज़रूरी है। लिहाज़ा फ़ौजी साज़ो सामान और फ़ौजी मुहिम्मात की मानिंद जंगी तरबियत और महारत भी इस क़ुव्वत का हिस्सा है जिस का हुसूल (प्राप्ति) लाज़िम है। जहां तक फ़ौज में भर्ती का ताल्लुक़ है, तो इसके लिये ज़रूरी है कि लोगों को मुस्तक़िल (स्थाई) तौर पर फौज का हिस्सा बनाया जाये यानी ऐसे मुजाहिदीन मौजूद हों जो जिहाद कर रहे हों और जिहाद से मुताल्लिक़ काम अंजाम दे रहे हों। ऐसा करना फ़र्ज़ है क्योंकि जिहाद एक मुसलसल फ़र्ज़ है चाहे दुश्मन हमला करे या ना करे। यही वजह है कि अफ़्वाज में भर्ती एक फ़र्ज़ है और ये जिहाद के हुक्म में दाख़िल है।

फ़ौज के हिस्से:
फ़ौज के दो हिस्से होते हैं:

1) एहतियाती (रिज़र्व) फ़ौज: इस में वो तमाम मुसलमान शामिल हैं जिन में लड़ने की काबिलियत मौजूद हो।

2) बाक़ायदा फ़ौज: ये लोग मुस्तक़िल तौर पर हथियार बन्द फौज का हिस्सा होते हैं जिन्हें रियासत के किसी भी मुलाज़िम की तरह रियासत के अम्वाल (राजकोष) से तनख़्वाह मिलती है।

इस बात को जिहाद की फ़र्ज़ीयत से अख़ज़ किया गया है। चूँकि हर मुसलमान पर जिहाद करना और उस की तरबियत हासिल करना फ़र्ज़ है लिहाज़ा तमाम मुसलमानों की हैसियत रिज़र्व फ़ौज की सी होती है। जहां तक बाक़ायदा फ़ौज की तंज़ीम का ताल्लुक़ है तो उस की दलील ये शरई क़ायदा है:

مالا یتم الواجب إلا بہ فھو واجب
जो चीज़ वाजिब को पूरा करने के लिये लाज़मी हो वो बज़ात-ए-ख़ुद वाजिब होती है ।

क्योंकि जिहाद के अमल को मुसलसल अंजाम देना और कुफ़्फ़ार से इस्लाम और मुसलमानों की हिफ़ाज़त करना, मुस्तक़िल फ़ौज की मौजूदगी के बगैर मुम्किन नहीं , लिहाज़ा इमाम पर ये फ़र्ज़ है कि वो बाक़ायदा फ़ौज तशकील दे।

जहां तक मुसल्लह अफ़्वाज (हथियार बन्द फौज) के लिये उजरत मुक़र्रर करने का ताल्लुक़ है तो ये बाक़ी तमाम रियासती मुलाज़मीन के मिस्ल (समान) है। और गैर मुस्लिमों के मुताल्लिक़ ये बात बिलकुल साफ है क्योंकि जिहाद करने की ज़िम्मेदारी किसी काफ़िर पर आइद नहीं होती लेकिन अगर वो ऐसा करे तो उस से ये चीज़ क़बूल की जाएगी और उसे इस काम के लिये उजरत देना जायज़ है। क्योंकि तिरमिज़ी ने ज़ुहरी से रिवायत किया :

))أن النبی ﷺ أسھم لقوم من الیھود قاتلوا معہ((
नबी صلى الله عليه وسلم ने कुछ यहूदीयों को हिस्सा दिया,जो जंग में आप صلى الله عليه وسلم के साथ शरीक थे
और  इब्ने हिशाम ने रिवायत किया:

))أنّ صفوان بن أمےۃ خرج مع النبيﷺ إلی حنین وھو علی شرکہ، فأعطاہ مع المؤلفۃ قلوبھم من غنائم حنین((
सफ़वान बिन उमय्या हुनेन की जंग में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के साथ शरीक हुए जब कि वो अभी मुशरिक ही थे और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उसे मुवल्लिफा क़ुलूब के साथ, हुनैन के माल-ए-ग़नीमत में से अता किया

और सीरत इब्ने हिशाम में ये भी रिवायत किया गया : हमारे साथ एक अजनबी शख़्स भी था जिसे कोई नहीं जानता था। ये कहा गया कि इस का नाम क़ुज़मान है। जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के सामने इस का ज़िक्र किया गया तो आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

))إنہ لَمِنْ أھل النار، قال: فلما کان یوم أحد قاتل قتالاًشدیداً فقتل وحدہ ثمانےۃ أو سبعۃ من المشرکین۔۔((
बेशक वो अहल-ए-नार में से है। और कहा: उहद के मौक़ा पर क़ुज़मान इतनी शिद्दत से लड़ा कि इस अकेले ने सात या आठ मुशरिकीन को मौत के घाट उतारा

ये दलायल इस बात को साबित करते हैं कि कुफ़्फ़ार मुसलमानों की फ़ौज का हिस्सा बन सकते हैं और इस काम के बदले उन्हें माल या पैसे देना जायज़ है। इजारा (उजरत) की तारीफ़ है कि ये मुनफ़अत (फायदे) पर तै पाने वाला अक़्द (अनुबन्ध) है, गोया इजारा का मुआहिदा किसी भी इसी मुनफ़अत पर तै पाता है जो कि एक आजिर, उजरत पर रखे जाने वाले शख़्स से हासिल कर सकता हो। लिहाज़ा फ़ौज और जंग के लिये किसी शख़्स को उजरत पर रखना जायज़ है क्योंकि ये एक मुनफ़अत है। लिहाज़ा किसी मुनफ़अत पर एक शख़्स को उजरत पर रखने की आम दलील, फौज या लड़ाई के लिये किसी काफ़िर को उजरत पर भर्ती करने के जवाज़ की दलील भी है। ये तो गैर मुस्लिमों के मुताल्लिक़ था। जहां तक मुसलमानों का ताल्लुक़ है तो अगरचे जिहाद एक इबादत है लेकिन उजरत के मुताल्लिक़ आम दलील की बिना पर मुसलमानों को फ़ौज में और लड़ाई के लिये उजरत पर भर्ती करना जायज़ है। क्योंकि किसी मुसलमान को इबादत के लिये उजरत पर रखना जायज़ है अगर इस इबादत का फ़ायदा उस शख़्स के अलावा दूसरे लोगों को भी पहुंचता हो। क्योंकि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))إن أحق ما أخذ تم علیہ أجراً کتاب اللّٰہ((
सब से उम्दा उजरत अल्लाह (سبحانه وتعال) की किताब की (तालीम की) है

{बुख़ारी ने ये हदीस इब्ने अब्बास (رضي الله عنه) से रिवायत की}

किताब-उल्लाह की तालीम देना इबादत है और चूँकि क़ुरआन सिखाने, नमाज़ की इमामत करवाने और अज़ान देने के लिये किसी मुसलमान को उजरत पर मुक़र्रर करना जायज़ है, जो कि सब इबादत के आमाल हैं, इसी तरह जिहाद करने और फ़ौज में भर्ती करने के लिये भी मुसलमान को उजरत पर रखना जायज़ है। इसके अलावा मुसलमान को जिहाद के लिये फ़ौज में उजरत पर भर्ती करने के जवाज़ पर हमें हदीसे नबवी सरीह दलील भी मिलती है। अबु दाऊद ने अब्दुल्लाह बिन उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))للغازي اجرہ وللجاعل أجرہ و أجر الغازي((
ग़ाज़ी के लिये अपना अज्र है , और जाइल के लिये अपना अज्र भी है और ग़ाज़ी का अज्र भी

ग़ाज़ी वो शख़्स है जो बज़ात-ए-ख़ुद क़िताल करे और जाइल वो है जिस की जगह कोई और शख़्स जिहाद करे और वो उस शख़्स को जिहाद की उजरत दे। क़ामूस अलमुहीत में बयान किया गया:

والجعالۃ مثلثۃ ما جعلہ لہ علی عملہ و تجاعلوا الشی ء جعلوہ بینھم، و ما تجعل للغازي إذا غزا عنک بِجُعْل

जाअला वो उजरत है जो किसी को कोई काम करने पर दी जाती है, और वो उजरत जो मुजाहिद (ग़ाज़ी) को दी जाती है, जब वो किसी और की जगह उजरत पर जिहाद करता है । लफ़्ज़ अज्र, उजरत और सवाब दोनों के लिये मुस्तमिल है। जहां तक इस बात का ताल्लुक़ है कि उमूमन लोगों में मारूफ़ (प्रचलित) ये है कि हमेशा अज्र से मुराद वो सवाब होता है जो कि अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से बंदों को नेक काम करने पर मिलता है और इजारा वो मुआवज़ा है जो कि एक शख़्स दूसरे शख़्स को कोई काम करने पर देता है जिस में अजीर यानी काम करने वाला भी शामिल है, तो दरअसल इस फर्क़ की कोई सनद (दलील) नहीं, बल्कि लुग़त के मुताबिक़ अज्र किसी अमल का सिला है। क़ामूस अलमुहीत में है:

الأجر الجزاء علی العمل کالاجارۃ مثلثۃ جمعہ أُجور وآجار
अज्र इजारा की मानिंद किसी अमल का सिला है जिस की जमा उजूर और आजिर है  ।

लिहाज़ा उपर लिखी हदीस का मतलब है कि ग़ाज़ी को अज्र मिलेगा और जाइल को अपना अज्र भी मिलेगा और उस शख़्स का अज्र भी मिलेगा, जिस को इस ने जिहाद करने की उजरत दी। यहां लफ़्ज़ ग़ाज़ी से ज़ाहिर है कि यहां लफ़्ज़ अज्र से मुराद सवाब है और इसी तरह लफ़्ज़ जाइल इस बात का ताय्युन कर रहा है कि अज्र से मुराद सवाब ही है क्योंकि दोनों लफ़्ज़ (ग़ाज़ी और जाइल) इस का करीना (इशारा) हैं, जो इस बात का ताय्युन कर रहे हैं कि लफ़्ज़ आजिर से यहां क्या मुराद है। बैहक़ी ने जुबैर बिन नुफ़ेर से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))مثل الذین یغزون مِن أُمتي وےأخذون الجعل، یتقوون علی عدوھم مثل أم موسی ترضع ولدھا، وتأخذ أجرھا((
मेरी उम्मत में से जो लोग क़िताल करते हैं और उजरत लेते हैं और अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ ख़ुद को मज़बूत करते हैं , वो उम्मे मूसी की मानिंद हैं जिन्होंने अपने ही बेटे को दूध पिलाया और अज्र (मुआवज़ा) हासिल किया

यहां अज्र से मुराद उजरत है। इसके अलावा जिहाद सिर्फ़ उन लोगोंके लिये खास नहीं जो अल्लाह (سبحانه وتعال) की क़ुरबत हासिल करना चाहते हैं। लिहाज़ा ये दुरुस्त है कि लोगों को जिहाद के लिये उजरत पर भर्ती किया जाये और उन्हें इसी तरह तनख़्वाह दी जाये जिस तरह दूसरे मुलाज़मीन को दी जाती है।

मुसल्लह अफ़्वाज (हथियार बन्द) एक इकाई हैं, जो कि जैश (फौज) है। फ़ौज में से कुछ हिस्सों का इंतिख़ाब कर के उन्हें एक ख़ास नज़्म और मख़सूस सक़ाफत (culturing) दी जाती है, जिसे पुलिस फ़ोर्स कहा जाता है।

ये बात साबित है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फ़ौज को मुसल्लह क़ुव्वत के तौर पर इस्तिमाल किया और आप صلى الله عليه وسلم ने एक हिस्से का इंतिख़ाब किया कि वो पुलिस का काम अंजाम दें। पस आप صلى الله عليه وسلم ने फ़ौज को तैय्यार किया और उस की क़ियादत की और फ़ौज की क़ियादत के लिये अमीर भी मुक़र्रर फ़रमाए। बुख़ारी ने अनस (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))أن قیس بن سعد کان یکون بین ےَدَي النبيﷺبمنزلہ صاحب الشُرَطِ مِن الأمیر((
क़ैस इब्ने सअद (رضي الله عنه) रसूलुल्लाह के आगे आगे इस तरह होते थे जिस तरह सिपाहियों का सरदार अमीर के साथ होता है

ये क़ैस बिन सअद बिन उबादा अलअंसारी ख़ज़रजी (رضي الله عنه) थे। तिरमिज़ी ने ये हदीस रिवायत की:

))کان قیس بن سعد من النبيﷺبمنزلۃ صاحب الشُرَطۃ مِن الأمیر۔ قال الأنصاري: یعني مما یلي من أمورہ((
क़ैस बिन सअद रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के लिये ऐसे थे जैसे शुर्ता अमीर के लिये होता है ।
और अंसारी ने बयान किया: यानी वो अमीर के मुआमलात को पूरा करता है
इब्ने हब्बान ने इस हदीस के ये मानी बयान किये:

اختراز المصطفی من المشرکین فی مجلسہ إذا دخلو
ये रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की तरफ़ से मुशरिकीन के ख़िलाफ़ एहतियात के तौर पर था ,अगर वो {आप صلى الله عليه وسلم की } मजलिस में दाख़िल हो जाएं ।

शुर्ता फ़ौज में सबसे आगे का हिस्सा होता है । अल अज़हरी ने कहा:

شرطۃ کل شيء خیارہ و منہ الشُرطِ لأنھم نُخبۃ و قیل ھم أول طائفۃ تتقدم الجیش و قیل سُموا شُرَطَا لأن لھم علامات یعرفون بھا في اللباس و الھےءۃ
शुर्ता किसी चीज़ का बहतरीन हिस्सा होता है और शुर्ता फ़ौज के मुमताज़ अश्ख़ास होते हैं। ये कहा जाता है कि वो फ़ौज से मुतक़द्दिम होते हैं और उन्हें शुर्ता इस वजह से कहा जाता है क्योंकि इन का इम्तियाज़ी निशान और ख़ास लिबास होता है ।

ये मआनी-ओ-मतालिब (अर्थ) अल-असमी ने इख्तियार किये हैं। ये सब इस बात की दलील है कि शुर्ता मुसल्लह क़ुव्वत का हिस्सा होते हैं और ख़लीफ़ा ही शुर्ता के अमीर का ताय्युन करता है जिस तरह वो फ़ौज के अमीर का तक़र्रुर (नियुक्ति) करता है और शुर्ता फ़ौज का एक हिस्सा है और ये बात ख़लीफ़ा की मर्ज़ी पर है कि वो शुर्ता को फ़ौज का हिस्सा बनाए या उन की अलैहदा तंज़ीम करे। लेकिन हदीस से ये मफ़हूम मिलता है कि शुर्ता के अमीर को मुक़र्रर किया जाता है ताकि वो इन मुआमलात से निबटे , जिसका ख़लीफ़ा या हाकिम इसे हुक्म दे। वो मुसल्लह क़ुव्वत को तरतीब देता है जो कि इमाम या हाकिम के इन तमाम अहकामात पर अमल दरआमद करती है जिन्हें इमाम नाफ़िज़ करना चाहता है। और वो किसी भी उसे ख़तरे का सद्दे बाब (निवारण) करता है जो इमाम के तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) पर असरअंदाज़ हो सकता हो या इमाम को नुक़्सान पहुंचा सकता हो। लुग़त से भी ये मफ़हूम मिलता है कि शुर्ता फ़ौज का एक हिस्सा होती है जिस का अपना एक अलैहदा निशान होता है और ये फ़ौज से मुतक़द्दिम होती है। जहां तक इस शुर्ता का ताल्लुक़ है जो फ़ौज से मुतक़द्दिम होती है , वो मिल्ट्री पुलिस कहलाती है और ये बिला शक-ओ-शुबा फ़ौज का ही हिस्सा होती है। जहां तक उस पुलिस का ताल्लुक़ है जो हुक्मरान की सवाबदीद (अच्छी सलाह) पर होती है, तो इस के मुताल्लिक़ कोई ऐसा इशारा मौजूद नहीं कि इसके लिये फ़ौज का हिस्सा होना लाज़िम है क्योंकि वो ख़लीफ़ा की सवाबदीद पर काम करती है। ताहम ऐसे कराईन (इशारे) भी मिलते हैं जो इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि ये रियासत की मुसल्लह फ़ौज का हिस्सा होती है। लिहाज़ा ख़लीफ़ा के लिये जायज़ है कि वो उसे फ़ौज का हिस्सा रहने दे या उसे फ़ौज से अलग मुनज़्ज़म (संघटित) करे। चूँकि मुसल्लह क़ुव्वत, ख़लीफ़ा की तरफ़ से इस के तक़र्रुर , ख़लीफ़ा के साथ इस के ताल्लुक़ और अहकामात की नोय्यत के एतबार से एक इकाई होती है, इसलिये मुसल्लह क़ुव्वत को फ़ौज और पुलिस फ़ोर्स में तक़सीम करने से पुलिस,जो आम मुआमलात से मुताल्लिक़ हाकिम के अहकामात की तकमील में लगातार मसरूफ़ (व्यस्त) होती है, की हथियारों और फ़ौजी आलात (उपकरण) तक पहुँच कमज़ोर पड़ जाएगी। लिहाज़ा बेहतर ये है कि तमाम हथियार युक्त ताक़तों को वाहिद इकाई के तौर पर रखा जाये ताकि जिहाद की तैय्यारी के लिये एक जैसी क़वाइद व ज़वाब्त पर अमल करने की वजह से फ़ौजी असलेह के साथ तमाम मुसल्लह कुव्वतों का ताल्लुक़ मज़बूत रहे। चुनांचे मुसल्लह क़ुव्वतें (हथियार बन्द ताक़ते) फौज हैं जिन में से कुछ यूनिटों का चुनाव किया जाएगा कि वो पुलिस का काम अंजाम दें जबकि बाक़ी यूनिटें बदस्तूर अफ़्वाज का हिस्सा रहेंगी और बारी बारी दूसरे यूनिटें पुलिस की जगह लेंगी। ये इस बात को यक़ीनी बनाएगा कि तमाम मुसल्लह कुव्वतों की जिहाद करने की सलाहियत बरक़रार और एक जैसी रहे और वो हर वक़्त इस के लिये तैय्यार हों।
शांति को क़ायम रखना, अन्दरूनी सलामती पर नज़र रखना और तमाम अहकामात के निफाज़ को यक़ीनी बनाना शुर्ता की ज़िम्मेदारी होती है। क्योंकि अनस (رضي الله عنه) की ऊपर लिखी हदीस में बयान किया गया कि क़ैस बिन सअद (رضي الله عنه) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के साथ पुलिस के सरबराह के तौर रहते थे। ये इस बात की तरफ़ इशारा है कि शुर्ता या पुलिस शरई अहकामात को नाफ़िज़ करती है, अमन-ओ-अमान को क़ायम करती है, सलामती को बरक़रार रखती है, रात के वक़्त गशत करती है , चोरों का पीछा करती है,  फसाद फैलाने वालों और उन लोगों को गिरफ़्तार करती है जिन के दिल में बुराई के जरासीम (कीटाणु) पल रहे हों। अब्दुल्लाह बिन मसऊद (رضي الله عنه) अबूबक्र (رضي الله عنه) के दौर-ए-ख़िलाफ़त में रात के गश्त के अमीर थे। उमर (رضي الله عنه) ख़ुद रात के वक़्त मदीना की गलियों में गश्त किया करते थे और आप का ग़ुलाम और कभी कभी अब्दुर्रहमान बिन औफ (رضي الله عنه) आप के साथ होते थे। कुछ इस्लामी देशों में लोगों को रात के वक़्त अपने घरों और दूकानों की हिफ़ाज़त के लिये चौकीदार रखना पड़ता है या रियासत लोगों के ख़र्च पर चौकीदार मुक़र्रर करती है जो कि ग़लत है। क्योंकि रात का गश्त रियासत की ज़िम्मेदारी है और ये पुलिस का काम है लिहाज़ा ये लोगों की ज़िम्मेदारी नहीं है और ना ही इस के खर्चों का बोझ उन पर हैं।

इस्लामी फ़ौज एक फ़ौज होती है जिसके कई हिस्से होते हैं जिन्हें अलग अलग नंबर दिये जा सकते हैं जैसे कि पहला हिस्सा, दूसरा हिस्सा, तीसरा हिस्सा वगैरह या उनके नाम अलग अलग  विलाया या शहरों के नाम पर रखे जा सकते है मिसाल के तौर पर शाम की फ़ौज, मिस्र की फ़ौज, सनआ की फ़ौज वगैरह।

इस्लामी फ़ौज खास मस्करात (टुकडियों) में पड़ाव डालती है और हर टुकडी में कईं फ़ौजी मौजूद होते हैं ,जो एक मुकम्मल यूनिट या यूनिट के एक हिस्से या कई यूनिटों की शक्ल में होते हैं। ये टुकडियों  तमाम विलाया में मौजूद होती हैं और उनमें से कुछ फ़ौजी अड्डों पर होती हैं। कुछ टुकडियाँ स्थाई तौर पर हरकत में रहती हैं और वो बेपनाह क़ुव्वत के हामिल होते हैं। हर टुकडी को अलग अलग नाम दिया जाता और हर टुकडी  का अलग अलम होता है।

ये तरतीब (अनुक्रम) मुबाहात में से है जैसा कि फौज का नाम विलायात (सूबों) के नाम पर रखना या उन्हें खास नंबर देना चुनांचे ये ख़लीफ़ा की राय और इज्तिहाद पर आधारित होता है और कुछ मुआमलात को इख्तियार करना रियासत की हिफ़ाज़त और अफ़्वाज को मज़बूत बनाने के लिये लाज़िमी है जैसा कि अफ़्वाज के फौज की टुकडीयों का रणनीतिक जगहों पर मौजूद होना । उमर (رضي الله عنه) ने फ़ौजी टुकडियों को तमाम विलायात (सूबों) में बाँट दिया था। आप (رضي الله عنه) ने फ़लस्तीन को एक यूनिट बनाया और मूसिल को अलैहदा यूनिट बनाया। आप (رضي الله عنه) एक फ़ौजी यूनिट रियासत के मर्कज़ में रखा करते थे और एक फ़ौजी यूनिट को हर वक़्त चौकस रखते थे ताकि वो आन-ए-वाहिद (एक ही पल) में फ़ौरी जंग के लिये तैय्यार हो जाये।

फ़ौज को अस्करी तर्बीयत और इस्लामी सक़ाफत से बहरावर करना:
फ़ौज के लिये आला तरीन अस्करी तालीम का बंद-ओ-बस्त होना चाहिये और उन की फ़िक्री सतह को जहाँ तक हो सके बुलन्द किया जाना चाहिये।  इसके अलावा फ़ौज में मौजूद हर शख़्स को इस्लामी सक़ाफत से भी भरा जाता है ताकि वो इस्लाम से आगाह हो, चाहे ये आगाही इजमाली (खुलासे की) शक्ल में हो।

ताहम अस्करी तालीम-ओ-तरबियत हर फ़ौज की अहम ज़रूरत होती है ,जिस के बगैर किसी फ़ौज के लिये जंग लड़ना मुम्किन नहीं । जब तक फ़ौज ये तालीम हासिल ना करे वो मैदान-ए-जंग में  कामयाब नहीं हो सकती। लिहाज़ा ऐसा करना इस शरई क़ाअदे की बिना पर फ़र्ज़ है:

))مالا یتم الواجب إلا بہ فھو واجب((
जिस चीज़ के बगैर वाजिब को पूरा ना किया जा सकता हो, वो चीज़ भी वाजिब हो जाती है 
 जहां तक इस्लामी सक़ाफत का ताल्लुक़ है, तो हर मुसलमान पर उस इल्म का जानना वाजिब है जो इस्लाम के मुताबिक़ अमल करने के लिये ज़रूरी हो। और इस्लाम का मज़ीद इल्म हासिल करना फ़र्ज़ किफ़ाया है। ये इस बिना पर है कि बुख़ारी और मुस्लिम ने मुआवीया बिन अबूसुफ़ियान से रिवायत किया:

))من یرد اللّٰہ بہ خیراً یفقھہ فی الدین۔۔((
मैंने नबी صلى الله عليه وسلم को ये कहते हुए सुना:
अल्लाह जिस की भलाई चाहता है उसे दीन की समझ अता करता है।

इस का इतलाक़ फ़ौज पर भी होता है जो इस्लाम की दावत को फैलाने के लिये मुल्कों को फ़तह करती है जैसा कि इस का इतलाक़ तमाम मुसलमानों पर होता है ताहम फ़ौज के लिये ये बात ज़्यादा अहम है। जहां तक फ़िक्री सतह को बुलंद करने का ताल्लुक़ है तो ये ऐसी आगाही है जो दीन और ज़िंदगी के मुआमलात को समझने के लिये ज़रूरी है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم का ये फ़रमान:
))رُبَّ مُبَلَّغ أوعی من سامع((
हो सकता है कि जिस तक इल्म पहुंचे वो इस से ज़्यादा बाख़बर हो जिस ने सुन कर उसे इल्म पहुंचाया
 ये आगाही की तरफ़ रग़बत दिलाना है। मज़ीद बरआं क़ुरआन में इरशाद होता है:
لِقَوۡمٍ۬ يَتَفَڪَّرُونَ
उन लोगों के लिये जो सोचते हैं
(यूनुस:24)
فَتَكُونَ لَهُمۡ قُلُوبٌ۬ يَعۡقِلُونَ بِہَآ
वो ऐसे क़ुलूब  (दिलों को ) रखते हैं जिस से वो समझते हैं
(अल-हज्ज:46)

ये सब फ़िक्र की अहमियत को ज़ाहिर करता है। हर फ़ौजी मअस्कर में ऐसे लोगों का बड़ी तादाद में होना ज़रूरी है जो जंगी मंसूबा साज़ी (युद्ध योजना) और जंग लड़ने के मुताल्लिक़ आला दर्जे का इल्म और महारत रखते हों। और ये ज़रूरी है कि फ़ौज में उन की तादाद ज़्यादा से ज़्यादा हो।
ये इस शरई क़ाअदे की बिना पर है:

))مالا یتم الواجب إلا بہ فھو واجب((
जिस चीज़ के बगैर वाजिब को पूरा ना किया जा सकता हो, वो चीज़ भी वाजिब हो जाती है 

अगर अस्करी इल्म को तालीम-ओ-तुअल्लुम के ज़रीए हज़म ना किया जाये और लगातार तरबियत और अमली मुज़ाहिरे के ज़रीए उस की मश्क़ (practice) ना की जाये तो ऐसा तजुर्बा और महारत हासिल नहीं होगी जो जंगें लड़ने और मंसूबा साज़ी के लिये ज़रूरी होती है। लिहाज़ा आला फ़ौजी तालीम को हांसिल करना एक फ़र्ज़ है। मुसलसल मुताला (अध्ययन) और तरबियत भी फ़र्ज़ है ताकि फ़ौज मुसलसल जिहाद की तैय्यारी करती रहे और जंग लड़ने के लिये हर वक़्त तैय्यार हो। चूँकि फ़ौज में कई मअस्कर होते हैं और हर मअस्कर में ये काबिलियत होनी चाहिये कि वो फ़ौरी तौर पर जंग में शामिल हो सके, लिहाज़ा हर मअस्कर में तरबियत याफ़ता जवानों की काफी तादाद होनी चाहिये । ये इस क़ाअदे के मुताबिक़ है :

))مالا یتم الواجب إلا بہ فھو واجب((
जो चीज़ वाजिब को पूरा करने के लिये ज़रूरी हो वो ख़ुद भी वाजिब हो जाती है ।

फ़ौज के लिये हथियारों , जंगी आलात (उपकरण) , इनफ़रास्ट्रक्चर और दूसरे सामान-ए-ज़रूरत भी मुहय्या होना चाहिये ताकि वो बतौर इस्लामी फ़ौज अपनी ज़िम्मेदारी अंजाम दे सके, क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٍ۬ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّڪُمۡ وَءَاخَرِينَ مِن دُونِهِمۡ لَا تَعۡلَمُونَهُمُ ٱللَّهُ يَعۡلَمُهُمۡ

तुम अपनी मक़दूर भर क़ुव्वत और घोड़ों को उन के लिये तैय्यार करो ताकि इस से तुम अल्लाह के और अपने दुश्मनों को ख़ौफ़ज़दा करो और इस के इलावा उन्हें भी जिन्हें तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है
(अल अनफ़ाल:60)

लिहाज़ा जंग की भरपूर तैय्यारी रखना फ़र्ज़ है और इस का इज़हार खुल्लम खुल्ला होना चाहिये ताकि दुश्मनों और रियासत में मौजूद मुनाफ़क़ीन के दिलों पर रोब-ओ-हैबत तारी हो। इरशाद होता है (تُرۡهِبُونَ بِه) जो कि जंगी तैय्यारी की इल्लत (वजह) है। और ये तैय्यारी उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं होगी जब तक वो इल्लत जो शरह में वारिद हुई है, पूरी ना हो जाये यानी दुश्मनों और मुनाफीक़ीन को दहश्त ज़दा करना। यहीं से इस बात की फ़र्ज़ीयत निकलती है कि फ़ौज को इस तमाम असलेह, जंगी आलात, अस्करी सहूलियात और साज़ो सामान से लैस करना ज़रूरी है जो रोब-ओ-दहश्त पैदा करने के लिये ज़रूरी हों और इस से बढ़ कर ये कि इस के ज़रीए फ़ौज इस्लाम की दावत को फैलाने के लिये जिहाद के फ़र्ज़ को पूरा कर सकेगी। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने तैय्यारी का हुक्म दिया है और ये बयान किया है कि इस तैय्यारी की इल्लत ज़ाहिरी और खुफिया दुश्मनों पर रोब-ओ-दहश्त डालना है। चुनांचे इरशाद हुआ:

وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٍ۬ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّڪُمۡ وَءَاخَرِينَ مِن دُونِهِمۡ لَا تَعۡلَمُونَهُمُ ٱللَّهُ يَعۡلَمُهُمۡ
तुम अपनी मक़दूर भर क़ुव्वत और घोड़ों को उन के लिये तय्यार करो ताकि इस से तुम अल्लाह के और अपने दुश्मनों को ख़ौफ़ज़दा करो और इस के सिवा उन्हें भी जिन्हें तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है
(अल अनफ़ाल:60)


इस आयत में मौजूद दकी़क़ (बारीक) नुक़्ते को समझने की ज़रूरत है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इस आयत में मुसलमानों को लड़ने के लिये तैय्यारी करने का हुक्म नहीं दिया बल्कि ये कहा कि इस का मक़सद दुश्मन को दहश्त ज़दा करना है, जो कि ज़्यादा अहम है। क्योंकि मुसलमानों की क़ुव्वत व ताक़त के मुताल्लिक़ दुश्मन का गुमान, दुश्मन को मुसलमानों पर हमला करने और मुसलमानों का मुक़ाबला करने से बाज़ रखेगा। ये जंग जीतने और फ़तह हासिल करने का ज़बरदस्त तरीक़ा  है।
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