रसूले अकरम صلى الله عليه وسلم की खुफिया व ऐलानिया दावत

रसूले अकरम صلى الله عليه وسلم की खुफिया व ऐलानिया दावत

आप صلى الله عليه وسلم की दावत दो मरहलों मे तक़्सीम थी: पहला मरहला तालीम, फिक्री, सक़ाफती और रूहनी तरबियत का मरहला था। दूसरा मरहला दावत को फैलाने, उसके के लिए जद्दोजहद का था। पहला मरहला इस्लामी अफ्कार (विचाधारा) की समझ पैदा करने, उन अफ्कार को मुसलमानों मे पैदा करने, और मुसलमानों की जमात को उन अफ्कार पर तश्‍कील देने का मरहला था। दूसरा मरहला उन अफ्कार को एक मुहर्रिक कुव्‍वत के तौर पर समाज़ तक पहुंचाने का था, ताके वोह जिन्दगी के हर मामले में नाफिज़ हो सके, क्योंकि बहरहाल जब तक यह अफ्कार दावत के ज़रिए समाज़ में नाफिज़ न हो वोह महज़ बेजान ‘‘मालूमात’’ की हैसियत रखतें हैं। और ऐसी मालूमात चाहे किताबो में हो या इन्सानी दिमागों में, बहरहाल वोह दफन ही रहेगी, जब तक के उनका समाज़ में अमली किरदार न हो। ऐसे अफ्कार की कोई अमली कीमत नही होती। अफ्कार को एक ऐसे मरहले से गुजरना पड़ता है, जिसमें वोह महज फिक्र न रह जाये बल्के समाज़ में एक जानदार कुव्‍वत बनकर और मोहर्रिक (बल) बनकर उभरे, जिसे लोग अपनायें, उसके सच और हक होने की शहादत दे, इसको फैलाये और इसके निफाज़ की जद्दोजहद करे। इसी फितरी तरीके से उन अफ्कार का निफाज़ यकीनी और कतई बनाया जा सकता है।

आपने मक्के में उसी अस्लूब पर मेहनत की और इन्ही दो मराहिल से गुज़रे। पहले मरहले में आप (صلى الله عليه وسلم) ने मक्के में दावते इस्लाम रखी, दावत के मानने वालों की फिक्री तरबियत (Culturing) की और उसके एहकाम की तलक़ीन की। पहला मरहला एक खुफिया मरहला था, जिसमें आप (صلى الله عليه وسلم) इस्लाम के मानने वालो की दारे अरकम में या किसी पहाड़ की वादी में या फिर उन्ही के घरों में कुछ लोगो के हल्के बनाते ताके उन लोगों की उस खास मनहज (Method) पर तर्बियत हो सकें ये सब कार्यवाही राज़दाराना तौर पर होती थी। इस तरह इन हल्को में शामिल मुसलमानों के ईमान, इस्लामी अकाईद रोज बरोज क़वीतर (ताकतवर) होते गये, आपस के ताल्लुकात मज़बूत होते और अपनी मुहीम, जो उन्हे दरपेश थी, इसका इदराक (समझ) उन पर आया होता रहता, यह हर कुर्बानी के लिए तैयार रहते। दावत ने इनके दिल व दिमाग मे घर कर लिया और ईस्लाम इनकी रगो का खून बन गया और वोह इस्लाम की चलती फिरती मिसाल बन गये। यह पैगाम कभी उन तक नही रह सकता था, बावजूद उनकी कोशिशों के, वो दावत को कुरेश की आंखो से ओझल रख सके।
ये लोग जिस किसी पर एतमाद करते, या जिस किसी में दावत की कबूलियत की इस्तिताअत देखते, उससे इस्लाम की बात करते, जिससे लोगो को दावत और इस जमात के वजूद का शउर हुआ। यह दावत का आगाज़ था। जब जमात तैयार हो गई तो यह फितरी तकाजा था के एक अब ये दावत अपने दूसरे मरहले में दाखिल हो चुनांचे हम देखते है के इसके बाद इस्लाम की दावत अपने दूसरे मरहले यानी तफाउल और जद्दोजहद में दाखिल हुई। इसमें बिना कोई फर्क़ किये लोगों को इस्लाम समझाना शामिल था, जिसमें से बाज़ ने मुसबत (Positive) मानते हुए कुबूल किया और इस जमात में शामिल हो गये और बाज़ ने उसे रद्द किया जिनसे अब तसादुम और टकराव फितरी बात थी। इन्सानी अक्‍़ले कितनी ही हट धर्म क्यो न हो, सहीह फिक्र के आगे कितने ही दरवाजे क्यो न बंद कर ले, बहरहाल सहीह फिक्र की ताक़त हावी होती ही है। चुनांचे तफाउल के मरहले का आगाज हुआ, जिसमें एक फिक्र का दूसरी फिक्र से तसादुम और मुलसमानों का काफिर से टकराव था। रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) अपने सहाबा के साथ निकले और इस तरह के पहले अरबो ने कभी ऐसा बनज्‍़म मंजर न देखा था, उन्होंने काबे का तवाफ किया और अपनी दावत का ऐलान आम लागों में, वाजे़ह, सरीह और चेलेन्ज की शक्ल में दिया।

अब कुरआनी आयत नाजिल हुई जिनमें अल्लाह सुबानहु तआला की वहदानियत का जिक्र था, कुफ्र और बुतपरस्ती की मलामत थी और उन लोगों पर हमला था जो आबा व अजदाद की अंधी पैरवी करते थे। वोह आयात आप (صلى الله عليه وسلم) पर नाजिल हुई जिनमें मुआश्‍रे में फैली फासिक (False) मुआमलात पर हमला किया गया जैसे सूद का लेन-देन और नापतौल में कमीबेशी। आप (صلى الله عليه وسلم) बेवक्त कुछ लोगों की एक जमात से मुलाकात करते, अपने करीबी अजीजो़ को घर बुलाते, खाने की दावत करते और इस्लाम की तरफ रग़बत दिलाते, लेकिन वोह लोग सबको रद्द करते रहे। अब आप (صلى الله عليه وسلم) ने कुरेश को सफा की चोटी पर बुलाया और इस्लाम का पैगाम दिया जिसको सब ने रद्द कर दिया खासकर अबू लहब ने बड़ी शिद्दत से उसे रद् किया। इसके बाद अहले इस्लाम की एक तरफ कुरेश से और दिगर अरबो से दूसरी तरफ मुखासमत गहरी हो गई। लेकिन इस वाकिये से एक बात ये भी हुई के जो इस्लाम अब तक लोगों के घरो में हल्को की शक्ल में, या पहाड़ियो के दामन या दारे अरकम में छुप-छुपकर सीखा और सीखाया जा रहा था वो इस वाक्य से मन्जरेआम पर आ गया।

इस गै़र-मामूली तब्दीली से जो बात अब तक कुछ खास लोगों को बताई जा रही थी, जो कबूल करने की इस्तिताअत रखते थे, अब इस बात की दावत हर एक को दी जाने लगी और इससे जैसे-जैसे कुरेश को दावत के खतरात नज़र आते गये, मुखासमत बड़ती गई। कुरेश ने महसूस किया के इस दावत को नज़रअन्दाज़ नही किया जा सकता और वो ऐसे इक्‍़दामात करने लगे जिससे इस्लाम का निपटारा किया जा सके। इस तरह आम दावत का असर भी मुख्तलिफ हुआ और दावत मक्के मे फैल गई, हर एक दिन कोई न कोई ईस्लाम के दायरे में दाखिल होता, जिसमें गरीब, मेहरूम और मज़लूम भी होते थे, शुरफाए मक्का भी और ताजिर भी, ऐसे ताजिर जिनकी तिजारत उन्हे हक़ शनासी से और आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत से ना रोक पाती। ये वो लोग थे, जिनके नफ्स, तहारत, पाकिज़गी, सज्जाई और दानाई से भरे हुए थे। ये शरीफ अलनफ्स खुद की अपनी बेकार की जिद और सरकशी को अपने उपर हावी नही होने देते। जैसे ही अल्लाह के दीन की दावत और उसका हक़ होना इन नेक तर्बियत पर ज़ाहिर हुआ, उन्‍होंने फौरन लब्बेक कहा। उनमे मर्द भी थे और औरते भी। हालांकि आम दावत की वजह से मुसलमानों को बड़ी मशक्कते भी झेलना पडी़ मगर इसके ज़रिए बहुत ज्यादा लोगों तक इस्लाम का पैगा़म पहुंच पाया और बड़े अच्छे नताइच सामने आऐ। इस कामयाबी ने अहले कुरेश को बहुत गज़बनाक बना दिया और उनके दिल गुस्से की आग में जलने लगे। रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने एक मुसलसल महाज खोले रखा जिसमें वो मक्के की आम बुराईयों जैसे नाइंसाफी, संगदिली और गुलामी की रस्मो पर तनक़ीद करते और उनके बिमार तसव्वुरात और रस्मो रिवाज़ को लोगों के सामने साफ अंदाज में बेनकाब करते थे।

यह एक निहायत ही शदीद और पुरतशद्दुत मुश्किलों से भरे मरहले की इबतिदा थी, एक तरफ आप (صلى الله عليه وسلم) और सहाबाहे इकराम रजि0 और दूसरी तरफ कुफ्फारे मक्का। दावत का दूसरा मरहला यानी मरहलाये तफावुन (interaction) निहायत सख्त और सब्र अज़मा होता है क्योंकि इसमें नताईज़ और हालात से बेपरवाह होकर अपनी बात सहीह तौर पर कहनी होती है लेकिन पहले और दूसरे मरहले के दरमियान का दौर एक बहुत ही नाजु़क दौर होता है, के इसमें सब्र के साथ दानाई, मामलो को गहराई से समझना, और बारीक बीनी से काम लेना पड़ता है, जिसके लिए मुसलमानों को पहले दौर में तर्बियत दी गई थी। इस दरमियानी मुद्दत में कुफ्फार से पहला सामना होता है और मुसलमनों के लिए, इसके ईमान के लिए एक सख्त इम्तिहान होता है। आप (صلى الله عليه وسلم) और असहाबे इकराम ने इस दरमियानी मरहले में जु़ल्म, तशद्दुत और जब्र की आजमाईशो को बर्दाश्‍त किया, जो एक पहाड़ को भी मुतज़लज़ल कर देती है। इस दौर में बाज़ सहाबा ने हबशा की तरफ हिज़रत की, बाज़ इन मजा़लिम और जब्र को सहते-सहते शहीद हो गए और बाज़ ये सब सउबते (आज़माईशे) बर्दाश्‍त करते रहे और अपनी दावत में इस्तिका़मत से लगे रहे हत्ता के मक्के की जु़लमत छठी और नूरे ईस्लाम से मक्का भी बिलआखिर मुतास्सिर हुआ। इस हक़ीक़त के बावजूद के आप (صلى الله عليه وسلم) दारे अरकम में निहायत राज़दारी से लगातार तीन साल तक मुसलमानों की फिक्री तरबियत में लगे रहे, मजी़द आठ साल तक आप (صلى الله عليه وسلم) को अहले कुफ्र के साथ जद्दोजहद और कशमकश करनी पड़ी और अपनी नबूवत के सबूत के तौर पर मौजजा़त दिखाने पड़े, कुरेश ने मुसलमानों को भी चेन से बैठने न दिया और न ही अपनी जंग में जरा सुस्ती आने दी के मुसलमान कुछ राहत पा ले। बहरहाल इस तफाउल की बदौलत और हज़ के काफलो के ज़रिए जजिरा नूमा अरब (Arab Condiment) में इस्लाम की दावत की खबर फैल चुकी थी और अरब में इसका चर्चा आम हो गया था। ये अरब कबाईल महज़ तमाशा देखने वाले बने हुए थे। कबूलियत में एक कदम न बडा़या था क्योंकि यह कबाईले अरब बहरहाल कुरेश से दुश्‍मनी मोल नही लेना चाहते थे। अब एक तरफ तो आप (صلى الله عليه وسلم) यह देख रहे थे कि कुरेश की हटधर्मी के थमने के कोई आसार नहीं है और दूसरी तरफ यह की ईस्‍लाम को ग़ालिब होना ही है। लेकिन चूंकि कुरेश अब भी ईस्‍लाम को रद्द कर रहे थे इसलिये यह इमकान नहीं था कि ईस्‍लाम मक्‍के में नाफिज़ हो सके। अहले मक्‍का के मजा़लिम इस बात में रूकावट थे के मुसलमान दावत के काम को और फैलाऐ, फिर कुरेश ने मुसलमानों के जख्मो पर नमक का काम किया था और आजमाईशो और मुसिबतो में ईजाफा ही हुआ था। अब ये सूरतेहाल किस काबिले कबुल न थी क्योंकि इस तरह उस तीसरे मरहले, यानी वो मरहला जिसमें इस्लाम नाफिज़ हो, में दाखला मुमकिन न था, चुनांचे अब वक्त आ गया था के इस थामी हुई सुरतेहाल को बदल डाला जाए। ताईफ मे बनी सखीफ की तरफ से इस्लाम को रद् कर देने के बाद मुसलमानों पर जु़ल्म और बड़ गये। उस वक्त हुआ जब हज के दौरान बनू अमिर, बनुकलब, बनु फनीफा और बनु किन्‍दा ने भी इस्लाम की दावत ठुकरा दी। इससे कुरेश के ताक़त पहुची और उन्होंने आप (صلى الله عليه وسلم) को और अलग-थलग कर दिया था ताके दावत आगे न बढ़ पाए और बाहर से भी कोई मदद न आ सकें। इस मुश्किल दौर में आप (صلى الله عليه وسلم) और मुसलमान अपने ईमान पर डटे रहे और उन्हें अल्‍लाह सुबानहु तआला की तरफ से कभी शक न हुआ। आप (صلى الله عليه وسلم) सामने दिखने वाले खतरात की परवाह किये वगैर  खतरात लाए बगैर, जहॉ तक मुमकिन हुआ दावत देते रहे और कबाईल से मिलते रहे। कुरेश के लड़के आवारा लड़के आप (صلى الله عليه وسلم) को तंग भी करते, लेकिन इससे आप (صلى الله عليه وسلم) के एतमाद में कभी फर्क नही आता। इनकी नफरतें बड़ती गई। लोग आप (صلى الله عليه وسلم) से कटते रहे लेकिन आप (صلى الله عليه وسلم) का अल्लाह तआला के वादो पर ईमान भी बड़ता गया के अल्लाह ताअला ज़रूर अपने दीन की हिमायत और उसकी हिफाज़त करेगा। आप (صلى الله عليه وسلم) ने अल्लाह की मदद का इन्तजा़र किया और दावत देते रहे।

अब हज का मौसम आया और जजीरा अरब के तमाम इलाको से कबाईल मक्का पहुंचने लगे। इन सब्र आज़मा हालात में अल्लाह तआला की तरफ से फतह की निशानी आ गई। मदीना के खज़रज कबीले के कुछ लोग हज़ के लिए मक्का आए। आप (صلى الله عليه وسلم) इन लोगो से मिले, बात की और इस्लाम की दावत उनके सामने रखी। ये लोग एक दूसरे को देखने लगे और कहा ‘‘अल्लाह की कसम ये तो वही नबी है जिनके बारे में (मदीना के) यहूदी हमे डराते रहते हैं। कही ऐसा न हो वो यहूदी आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत पर हमसे आगे बढ़ जायें’’। ये कहकर वो लोग दायराऐ इस्लाम में दाखिल हो गये। इन लोगों ने आप (صلى الله عليه وسلم) से कहा के ‘‘हमने अपने कबीले छोड़ दिये, नफरतों में इन जैसा कोई नही है, अब ये आप (صلى الله عليه وسلم) के ज़रिए ही से इत्तेफाक कर पायेगें और अगर ऐसा हो गया तो आप (صلى الله عليه وسلم) से ज्‍़यादा इज्‍़ज़त‍ वाला कोई न होगा’’। ये लोग मदीना वापस आये तो उन्होंने लोगों को रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के मुताल्लिक बताया और उन्हें इस्लाम कबूल करने की दावत दी और वो लोगों के दिल व दिमाग इस खोलने में नये के लिये में कामयाब हो गये। 
   
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