इस्लामी रियासत

 लेखक: शेख तक़ीउद्दीन अन-नबहानी
किताब: निज़ामुल हुक्म फिल इस्लाम
इस्‍लामी रियासत में खलीफा वो शख्सियत होती है जो शरीयत को नाफिज़ करती है। यह एक सियासी और तन्‍फीज़ी (executive) वजूद है जिसकी जिम्‍मेदारी है के वो इस्लाम के अहकामात को नाफिज़ करें, इन पर अमल करवाए और दावत व जिहाद के ज़रिए इस्लाम को पूरी दुनिया तक पहुँचाए। यह वो वाहिद तरीकेकार है जिसे इस्लाम में अपने निज़ामों और आम अहकामाते को जिन्‍दगी और समाज पर नाफिज़ करने के लिए जारी किया है। अमली जिन्‍दगी में इस्लाम के वजूद के लिए रियासत की हैसियत रूह की सी है। जिसके बगैर इस्लाम, नज़रियाऐ हयात और निज़ामे हयात के मकाम से घट कर महज़ रूहानी रसूमात और अख्‍लाक़ी इक़दार (नैतिक मूल्‍य) तक महदूद हो जाता है। चुनांचे यह एक मुस्तक़िल (स्थिर) वजूद है ना के एक आरज़ी (temporary) वजूद है।
इस्‍लामी रियासत सिर्फ इस्‍लामी अक़ीदे पर क़ायम होती है। पस इस्‍लामी अक़ीदा ही इस्‍लामी रियासत की बुनियाद होता है और इसे किसी भी हालात में रियासत से जुदा करना हराम है। जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मदीने में इक़्तिदार (ऑथोरिटी) क़ायम किया तो आप صلى الله عليه وسلم ने पहले दिन से हुकूमत की बुनियाद इस्‍लामी अक़ीदे पर रखी। उस वक्‍़त क़वानीन से मुताल्लिक आयात भी नाजिल नहीं हुई थी लिहाज़ा आप صلى الله عليه وسلم ने शहादत “लाईलाहा ईल्‍लल्‍लाह मुहम्‍मदुर रसूलुल्‍लाह “ को मुसलमानों की जिन्‍दगी, उनके आपसी ताल्लुक़ात, ज़ुल्‍म को दूर करने और झगडो़ को हल करने के लिए बुनियाद क़रार दिया। यानी यह तमाम जिन्‍दगी और हुकूमत व सत्‍ता की बुनियाद थी। 

फिर आप صلى الله عليه وسلم ने इसी पर ही इक्तिफा नहीं किया बल्कि जिहाद का हुक्‍म दिया और उसे मुसलमानों के लिए फर्ज़ क़रार दिया ताके वो इस अक़ीदे को पूरी दुनिया के लोगों तक पहुँचाए। बुखारी और मुस्लिम ने अब्‍दुल्‍लाह बिन उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया, जिन्‍होंने बयान किया के रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ईरशाद फरमाया :
((أمرت أن أقاتل الناس حتی یشھدو أن لا إلہ إلا اللّٰہ و أن محمداً رسول اللّٰہ و یقیموا الصلاۃ و ےؤتوالزکاۃ فإذا فعلواعصموا مني دماء ھم وأموالھم إلا بحقھا وحسابھم علی اللّٰہ))
''मुझे हुक्‍म दिया गया है के मैं लोगों के साथ क़िताल करू जब तक के वो इस बात की शहादत ना दे के मुहम्‍मद صلى الله عليه وسلم अल्‍लाह के रसूल है और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात अदा करें। अल्‍लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और जब उन्‍होंने ऐसा किया तो उन्‍होंने अपनी जान और माल को मुझसे मेहफूज़ बना लिया सिवाऐ जिसका अदा करना हक़ है और उनका हिसाब अल्‍लाह पर है''।

 आप صلى الله عليه وسلم ने रियासत की बुनियाद इस्‍लामी अक़ीदे पर रखने को मुसलमानों के लिए फर्ज़ क़रार दिया। आप صلى الله عليه وسلم ने मुसलमानों को हुक्‍म दिया के वो वाजे़ और सरीह (कुफ्रे बुवाह) ज़ाहिर होने पर किताल करें यानी जब इस्‍लामी अक़ीदा हुक्‍मरानी की बुनियाद ना रहे। जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم से ज़ालिम हुक्‍मरानो के बारे में सवाल किया गया के क्‍या हम उन्‍हें तलवार के ज़ोर पर निकाल बाहर ना करें, तो आप صلى الله عليه وسلم ने जवाब दिया :
((لا ما أقاموا فیکم الصلاۃ))
''नहीं, जब तक के वो तुम्‍हारे दरमियान नमाज़ क़ायम करें''।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अपनी बैअ़त में इस बात का इकरार कर लिया के मुसलमान साहिबे इक़्तिदार लोगों से झगडा़ नहीं करेंगे और जब तक के वो उनकी तरफ से खुले कुफ्र का इज़हार ना देख ले।
मुस्लिम ने औफ बिन मालिक ((رضي الله عنه) से बुरे ईमामों के ताल्‍लुक से रिवायत किया :
(۔۔۔قیل یا رسول اللّٰہ أفلا ننابذھم بالسیف فقال لا ما أقاموا فیکم الصلاۃ۔۔۔)
''. . . यह कहा गया ऐ अल्‍लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم  क्‍या हम इन्‍हें बज़ौरे शमशीर निकाल बाहर ना करें। आप صلى الله عليه وسلم  ने जवाब दिया : नहीं, जब तक वो तुम्‍हारे दरमियान नमाज़ क़ायम रखें' 

बुखारी ने उबादा बिन सामित (رضي الله عنه) से रिवायत किया : 

((و أن لا ننازع الأمر أہلہ، قال: إلا أن ترو کفراً بَواحاً عندکم من اللّٰہ فیہ برہان))
''और अहले अम्र के साथ झगडा़ ना करना जब तक के तुम उनकी तरफ से खुला हुआ कुफ्र ना देख लो जिससे मुताल्लिक़ तुम्‍हारे पास अल्‍लाह की तरफ से वाजे़ दलील मोजूद हो''। 
तिबरानी ये भी यह हदीस रिवायत की मगर यह अल्‍फाज़ बयान किये : ''सरीह यानी वाजे़, कुफ्र''। यह तमाम इस बात पर दलालत करता है के रियासत की बुनियाद इस्‍लामी अक़ीदे पर है। क्‍योंके रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने हुकूमत को इसी बुनियाद पर क़ायम किया और रियासत को इसी बुनियाद पर बरक़रार रखने के लिए मुसलमानो को लडने का हुक्‍म दिया और इस बात का भी हुक्‍म दिया के वो इस अक़ीदे को पूरी दुनिया तक पहुचाने के लिए जिहाद करें।

चुनांचे इस्‍लामी रियासत के लिए यह जाईज़ नहीं के उसका कोई भी तसव्‍वुर, फिक्र, कानून या मियार इस्‍लामी अक़ीदे से ना फूटता हो। यह बात काफी नहीं के सिर्फ अलामती तौर पर रियासत की बुनियाद इस्लामी अक़ीदे पर हो बल्‍के यह बात लाजिम है के रियासत के वजूद की बुनियाद इस्‍लामी अक़ीदे पर हो और इस अक़ीदे का ईज़हार रियासत के वजूद से ताल्‍लुक रखने वाली हर चीज़ और रियासत के तमामतर मुआमलात से होता हो। चुनांचे रियासत के लिए यह जाईज़ नहीं के वो जिन्‍दगी या हुकूमत के मुताल्लिक कोई ऐसा तसव्‍वुर इख्तियार करें जो इस्‍लामी अक़ीदे से ना फूटता हो या फिर उन तसव्‍वुरात से टकराता हो जो इस अक़ीदे से निकलते है। पस रियासत के लिए लोकतंत्र के तसव्‍वुर को इख्‍तियार करना जाईज़ नहीं क्‍योंके इस तसव्‍वुर का माखूज़ (स्‍त्रोत) इस्‍लामी अक़ीदा नहीं और यह उन तसव्‍वुरात से टकराता है जो इस्‍लामी अक़ीदे से फूटते है। 

इसी तरह रियासत के लिए कौमियत (राष्‍ट्रवाद) के तसव्‍वुर को इख्तियार करना जाईज़ नहीं क्‍योंकि यह तसव्‍वुर भी इस्‍लामी अक़ीदे से नहीं निकलता, इस्‍लामी अक़ीदे से फूटने वाले विचार इसकी नफी (इनकार) करते है, कुछ इससे दूर रहने का हुक्‍म देते है और इसके खतरात से आगाह करते है। और इसी तरह रियासत के लिए दुरूस्‍त नहीं के वो राष्‍ट्रवाद/वतनियत के विचारों को अपनाए क्‍योंकि यह इस्‍लामी अक़ीदे से माखूज़ नहीं और इस्‍लामी अक़ीदे से निकलने वाले तसव्‍वुरात से टकराता है। इस्‍लामी रियासत के ढांचे में उन वज़ारती महकमों (departments) का भी वजूद नहीं होता, जो लोकतंत्र में पाए जाते है इस तरह इस्‍लामी निज़ामें हुकूमत शहंशाही (monarchy), नोआबादियाती (उपनिवेशवाद) और लोकतांत्रिक अवधारणाओ से पाक होती है क्‍योंकि यह सब इस्‍लामी अक़ीदे से नहीं हैं और उन तसव्‍वुरात से टकराते है जो इस्‍लामी अक़ीदे से निकलते है। किसी व्‍यक्ति, जमाअ़त या गिरोह के लिए जाईज़ नहीं के वो इस्‍लामी अक़ीदे के सिवा किसी और बुनियाद पर रियासत की जवाबतलबी करें। और इस बात की भी ईजाज़त नहीं के कोई तहरीक, तन्‍जीम या हिज्‍़ब (दल), इस्‍लामी अक़ीदे के अलावा किसी और बुनियाद पर क़ायम की जाए। इस्‍लामी अक़ीदे का रियासत की बुनियाद होना ही उन तमाम मुआमलात को लाजिम ठहराता है, और हुक्‍मरान, और अवाम, दोनों के लिए इन अहकामात पर अमल करना वाजिब होता है। 

इस्लामी अक़ीदे को इस्लामी रियासत की बुनियाद बनाने का फर्ज़ इस बात का तकाज़ा करता है के रियासत का दस्‍तूर (संविधान) और क़वानीन क़ुरआन और सुन्‍नत से अखज़ किये जाए। अल्‍लाह (سبحانه وتعال) हुक्‍मरान को इस बात का हुक्‍म देता है के वो उन (अहकामात) के मुताबिक हुकूमत करें जो अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने अपने रसूल صلى الله عليه وسلم पर नाजिल किये है। जो अल्‍लाह की नाजिलकर्दा अहकामात के अलावा किसी और बुनियाद पर हुकूमत करें और वो इस बुनियाद पर ऐतमाद रखता हो या यह ऐतकाद रखता हो के जो (अहकामात) अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने अपने रसूल صلى الله عليه وسلم पर नाजिल किये है वो मौज़ूं (suitable) और मुनासिब नहीं है। अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने उसे काफिर क़रार दिया है अगर वो हुक्‍मरान अल्‍लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा के अलावा किसी और बुनियाद (आधार) पर हुकूमत करें लेकिन वो इस पर ऐतकाद ना रखता हो तो ऐसा शख्‍स गुनहगार, ज़ालिम या फासिक है। अल्‍लाह (سبحانه وتعال) का यह हुक्‍म है के हुक्‍मरान अल्‍लाह के नाजिलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक हुकूमत करें, क़ुरआन व सुन्‍नत से साबित है। अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने ईरशाद फरमाया :
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِىٓ أَنفُسِہِمۡ حَرَجً۬ا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمً۬ا
''(ऐ मोहम्‍मद स0) आपके रब की कसम है! यह उस वक्‍़त तक मोमिन नहीं हो सकते जब तक यह आप صلى الله عليه وسلم  को आपने आपसी इख्‍तिलाफ में फैसला करने वाला ना बना लें।'' (तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अन्निसा : 65)
 और ईरशाद फरमाया :

وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَہُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ
''और यह के {आप صلى الله عليه وسلم } इनके दरमियान अल्‍लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक फैसला करें''।(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अल माईदा : 49) 

क़वानीन को इख्तियार करने में रियासत अल्‍लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा अहकामात की पाबन्‍द है। अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने अपने नाजिलकर्दा (अहकामात) के अलावा किसी और बुनियाद (आधार) यानी कुफ्रिया अहकामात के ज़रिए हुकूमत करने से खबरदार किया है। ईरशादे रब्‍बुल आलमीन है

وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلۡكَـٰفِرُونَ
''और जो अल्‍लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक फैसला ना करें, तो ऐसे लोग ही काफिर है''।  (तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अल माईदा : 44)

और रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  ने ईरशाद फरमाया : 
))کل عمل لیس علیہ أمرنا فھو رد((
''हर वो अमल जो हमारे हुक्‍म के मुताबिक नहीं वो रद्द है''।

यह सब इस बात पर दलालत करता है के रियासत की तमामतर तशरीहात (व्याख्या) चाहे वो दस्‍तूर हो या क़वानीन, इस्लामी अक़ीदे से अखज़ होने वाले अहकामे शरीयत तक महदूद (सीमित) है, यानी जो अहकामात अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने किताब व सुन्‍नत में नाजिल किये और जिसकी तरफ क़ुरआन व सुन्‍नत रहनुमाई करते है यानी क़यास और ईज़माऐ सहाबा। ऐसा इसलिए है के शारे अल्‍लाह (سبحانه وتعال) का खिताब र्इन्‍सान के अफआ़ल से मुताल्लिक है और यह खिताब ईन्‍सानो पर लाजिम करता है के वो अपने तमामतर आमाल में इस खिताब की पाबन्‍दी करें, गोया ईन्‍सान के अफआ़ल (कार्यो) को संघगठित करना अल्‍लाह (سبحانه وتعال) की तरफ से है और इस्लामी शरीयत इन्‍सानो के तमामतर अफआ़ल और सम्‍बन्‍धो का इहाता करती है। चाहे यह अल्‍लाह की ज़ात से सम्‍बन्धित हो, खुद इन्‍सान की अपनी जान से सम्‍बन्धित हो या फिर इसका सम्‍बन्‍ध दुसरे इन्‍सानो से हो। लिहाज़ा इस्लाम में इस बात की कोई गुन्‍जाईश नहीं के लोग अपने मुआमलात को मुनज्‍़ज़म करने के लिए बज़ाते खुद रियासती क़वानीन ईज़ाद करें क्योंकि वो अपने सभी मुआमलात में अहकामें शरीयत के पाबन्‍द है। अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने ईरशाद फरमाया :
وَمَآ ءَاتَٮٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَہَٮٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُو
''और जो कुछ रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم तुम्‍हे दे वो ले लो और जिस चीज़ से मना करें उससे बाज़ रहो''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अल हशर : 7)
और अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने ईरशाद फरमाया :

وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٍ۬ وَلَا مُؤۡمِنَةٍ إِذَا قَضَى ٱللَّهُ وَرَسُولُهُ ۥۤ أَمۡرًا أَن يَكُونَ لَهُمُ ٱلۡخِيَرَةُ مِنۡ أَمۡرِهِمۡۗ 

''अल्‍लाह और उसका रसूल صلى الله عليه وسلم जब कोई फैसला करें तो किसी मोमिन मर्द या औरत के लिए इस फैसलें में कोई इख्तियार नहीं''। (तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अल अहज़ाब : 36)

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  ने ईरशाद फरमाया :
))إن اللّٰہ فرض فرائض فلا تُضیعوھا وحدّ حدوداً فلا تعتدوھا و نھی عن أشیاء فلا تنتھکوھا و سکت عن اشیاء رخصۃ لکم لیس بنسیان فلا تبحثوا عنھا((
''बेशक अल्‍लाह ने कुछ फराईज़ का हुक्‍म दिया है पस उन्‍हें पसे पुश्‍त ना डालो, और कुछ हदूद मुकर्रर किये है लिहाज़ा उनसे आगे मत बडो़, और कुछ चीज़ो से मना फरमाया है तो उनसे बाज़ रहो, और कुछ बातो पर ईजाज़त के तौर पर खामोशी इख्‍तियार की, और यह (खमोशी) निसयान (भूल) की वजह से नहीं, तो इसके मुताल्लिक सवाल ना करो”।

मुस्लिम ने उमर (رضي الله عنه) से रिवायत किया के रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ईरशाद फरमाया :

 ))و من أحدث فی أمرنا ھذا ما لیس منہ فھو ردّ((
''और जिसने हमारे इस मामले (दीन) में कोई ऐसी चीज़ शामिल की जो इसमें से नहीं वो रद्द है''।

चुनांचे अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ही क़वानीन को जारी करने वाला है ना के हुक्‍मरान। और अल्‍लाह ने अवामुन्‍नास (जनता) और हुक्‍मरान दोनों पर लाजिम किया है के वो अपने मुआमलात और अपने अफआ़ल में उन अहकामात की इत्तिबाह करें और उन अहकामात के पाबन्‍द रहे। इसके अलावा अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने इस बात से मना किया के वो इसके अलावा किसी और कानून की पैरवी करें। चुनांचे इस्लामी रियासत में इस बात की कोई गुन्‍जाईश नहीं के लोग अपने ताल्‍लुकात को मुनज्‍़ज़म (सुसंगठित) करने के लिए खुद ब खुद अहकामात गढ डाले, चाहे वो दस्‍तूर हो या क़वानीन। और ना ही हुक्‍मरान को इस बात की ईजाज़त है के वो लोगों को ऐसे क़वानीन की पाबन्‍दी पर मज़बूर करें या ऐसे क़वानीन पर अमरपैरा होने की ईजाज़त दे, जो मुआमलात को मुनज्‍़ज़म करने के लिए इन्‍सानों ने खुद गढ लिए हो। 

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जब मदीने में पहली इस्लामी रियासत क़ायम की तो आप صلى الله عليه وسلم  ने इस रियासत की बुनियाद, इसके सतून और ढांचे, इसके ईदारो, जै़श (फौज़), दाखिला और खारज़ी पॉलिसी (विदेश नीति) को तय और लागू किया। जो ही आप صلى الله عليه وسلم मदीने में तश्‍रीफ लाए आप صلى الله عليه وسلم मुसलमानों के हुक्‍मरां बने। आप صلى الله عليه وسلم ने इनके मुआमलात की देखभाल शुरू की, उनके मुआमलात का इन्‍तज़ाम किया और एक इस्लामी समाज तरतीब दिया। 

आप صلى الله عليه وسلم ने यहूद, बनू ज़ुमराह और बनू मुदलज और इसके बाद कुरैश, अयलाह, जरबा और अज़रह के लोगों के साथ मुआहिदे किये। आप صلى الله عليه وسلم ने लोगों से वादा किया के किसी को भी बैतुल्‍लाह के हज़ से नहीं रोका जायेगा और किसी को भी हुरमत के महीनो में खौफज़दा होने की ज़रूरत नहीं। आप صلى الله عليه وسلم ने हमज़ा बिन अब्‍दुल मुत्‍तलिब (رضي الله عنه), उबेदुल्‍लाह बिन हारिस (رضي الله عنه) और साद बिन अबी वक्‍कास (رضي الله عنه) को कुरैश के साथ जंगों में फौज़ का सिफेसालार बनाकर भेजा। आप صلى الله عليه وسلم ने जे़द बिन हारिस (رضي الله عنه), जाफर बिन अबू तालिब (رضي الله عنه), और अब्‍दुल्‍ला बिन रेवाहा (رضي الله عنه) को फौज़ देकर रोम के मुकाबले के लिए रवाना किया। आप صلى الله عليه وسلم ने खालिद बिन वलीद (رضي الله عنه) को जंग के लिए दोमतुल जन्‍दल भेजा। आप صلى الله عليه وسلم ने कई गज़वात में बज़ाते खुद फौज़ की क़यादत की और कई मारके लडे़। आप صلى الله عليه وسلم  ने सूबो पर वाली और मुख्‍तलिफ शहरो पर अम्माल(आमिल) मुकर्रर किये। । आप صلى الله عليه وسلم ने फतेह मक्‍का के बाद उताब बिन उसैद को मक्‍का का वाली मुकर्रर किया और बाज़ान बिन सासान को क़बूले इस्लाम के बाद यमन का वाली मुकर्रर किया। आप صلى الله عليه وسلم  ने मआज़ बिन जबल अल खज़रज़ी (رضي الله عنه) को जुन्‍द की विलायत अता की, खालिद बिन सईद बिल आस (رضي الله عنه) को सनआ पर आमिल मुकर्रर किया। आप صلى الله عليه وسلم ने कई गज़वात में सना का आमिल मुकर्रर किया और ज़ियाद बिन लुबेद बिन सअलबा अल अंसारी (رضي الله عنه) को हज़रे मौत पर मुकर्रर किया। आप صلى الله عليه وسلم  ने अबू मूसा अल अशकरी (رضي الله عنه) को जुबैद और अदन पर वाली बनाकर भेजा और अमरू बिन आस को अमान पर वाली मुकर्रर फरमाया। इसी तरह अबू दुज़ाना (رضي الله عنه) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की तरफ से मदीने पर हामिल मुकर्रर थे। आप صلى الله عليه وسلم उन लोगों को बतौर वाली मुन्‍तखिब फरमाते जो इस जिम्‍मेदारी को अच्‍छे तरीके से अन्‍जाम दे सकते हो और अपनी जनता के दिलो को ईमान से लबरेज़ कर दे। इन्‍हें भेजने से पहले आप صلى الله عليه وسلم उनसे मालूम फरमाते के वो किस अन्‍दाज़ से हुकूमत करेंगे। बहकी, अहमद और अबू दाउद ने माअज़ (رضي الله عنه) से रिवायत किया :

))أن رسول اللّٰہ ﷺ لما بعث معاذًا إلی الیمن قال لہ: کیف تقضي إذا عرض لک قضاء قال: أقضي بکتاب اللّٰہ قال: فإن لم تجدہ في کتاب اللّٰہ قال: أقضي بسنۃ رسول اللّٰہ قال: فإن لم تجدہ فی سنۃ رسول اللّٰہ قال: أجتھد برأیي لا آلو قال: فضرب بیدہ فی صدری و قال: الحمد للّٰہ الذي وفق رسول رسول اللّٰہ لما یرضي رسول اللّٰہ(( 

''जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने माअज़ को यमन भेजा तो आप صلى الله عليه وسلم  ने इनसे कहा “ अगर कोई मामला तुम्‍हारे सामने पेश हो तो तुम किस तरह इसका फैसला करोगे?” माअज़ (رضي الله عنه) ने कहा : “मै अल्‍लाह की किताब के ज़रिए फैसला करूंगा।“ आप صلى الله عليه وسلم  ने कहा  “अगर तुम उसे अल्‍लाह की किताब में ना पाओ तो?” मआज़ (رضي الله عنه) ने जवाब दिया “ मै अल्‍लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم  की सुन्‍नत के ज़रिए फैसला करूंगा।“ रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  ने कहा “ अगर तुम अल्‍लाह के रसूल की सुन्‍नत में उसे ना पाओ तो?” मआज़ (رضي الله عنه) ने जवाब दिया “ मै अपना इज्तिहाद करूंगा और उसमें कोई कसर नहीं छोडूंगा।“ आप صلى الله عليه وسلم  ने अपना दस्‍ते मुबारक माअज़ (رضي الله عنه) के सीने पर मारा और कहा : ''सब तारीफे अल्‍लाह ही के लिए है जिसने अल्‍लाह के रसूल के पयम्‍बर की इस चीज़ में मदद की जिससे अल्‍लाह का रसूल राज़ी हुआ''।

 इब्‍ने सआ़द ने अमरू बिन औफ से रिवायत किया है के रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अबान बिन सईद رضي الله عنه)  को बहरीन पर वाली बनाकर भेजा और उससे कहा :

))استوص بعبد القیس خیراً و أکرم سراتھم((
''अब्‍दुल क़ैस का ख्‍याल रखना और उसके सरदारों का अहतराम करना''।
 आप صلى الله عليه وسلم इस्लाम क़बूल करने वालों में से बेहतरीन लोगों को वाली मुकर्रर फरमाते। आप صلى الله عليه وسلم वालीयों को इस बात का हुक्‍म देते थे के वो नौ मुस्लिमों को इस्‍लाम की तालीम दे और लोगों से सदकात वसूल करें। कई मौको पर ऐसा हुआ के रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने वालीयों को महसूलात की वसूली की जिम्‍मेदारी देकर भेजा और उन्हें इस बात का हुक्‍म दिया के वो लोगों को अच्‍छे अन्‍दाज़ से तरगीब दे, उन्‍हें क़ुरआन की तालीम दे और दीन के फहम से परीचित करायें । आप صلى الله عليه وسلم इन्‍हे नसीयत फरमाते के वो हक़ के मामले में लोगों से नरमी बरते और जुल्‍म व नाईन्‍साफी के मामले में उन पर सख्‍ती करें। आप صلى الله عليه وسلم अपने वालीयों को इस बात का भी हुक्‍म देते के बाहम इश्‍तिआल (जोश और ग़ुस्से) की सूरत में वो लोगों को अपने कबीलों को मदद के लिए पुकारने से मना करें ताके उनकी पुकार खालिसतन अल्‍लाह वादहू लाशरीक के लिए हो जाए। और इनके माल का पांचवा हिस्‍सा वसूल करें और वो सदकात भी जो मुसलमानों पर फर्ज़ है। और ईसाईयो या यहुदियों में से जो शख्‍स सच्‍चे दिल से मुसलमान हो जाए और दीने इस्लाम के सामने अपने आपको सूपुर्द करे दे तो वो मोमिन मोमिनीन में से है। इसके वही अधिकार है जो बाकी मुसलमानों के है और उस पर वो तमाम फराईज़ लागू होते है जो बाकी मुसलमानों पर है। और जो बदस्‍तूर इसाई या यहूदी रहे तो उसे उसके दीन से वरगलाया ना जाए। मुस्लिम और बुखारी ने इब्‍ने अब्‍बास (رضي الله عنه) से रिवायत किया है की जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मआज़ (رضي الله عنه) को यमन भेजा तो आप صلى الله عليه وسلم  ने कहा : 

))إنک تقدم علی قوم أھل کتاب فلیکن أول ما تدعوھم إلیہ عبادۃ اللّٰہ عزوجلّ فإذا عرفوا اللّٰہ فأخبرھم أن اللّٰہ فرض علیھم خمس صلوات فی یومھم و لیلتھم فإذا فعلوا فأخبرھم أن اللّٰہ قد فرض علیھم زکاۃ تؤخذ من أغنیاءھم فترد علی فقراءھم فإذا أطاعوا فخذ منھم و توقّ کرائم أموالھم ))

''तुम्‍हे अहले किताब कबीलो पर मुकर्रर किया जाएगा। चुनांचे पहली बार जिसकी तरफ तुम उन्‍हे दावत दो वो यह है के वो अल्‍लाह की इबादत करें। अगर वो इसको क़बूल कर ले तो उन्‍हे इस बात से मुतला (इत्तलाअ) करों के अल्‍लाह ने उन पर दिन और रात में पांच नमाजे़ फर्ज़ की है। जब वो ऐसा करें तो उन्‍हें बताओ के अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने उन पर ज़कात को फर्ज़ किया है, जो उनके मालदार लोगों से वसूल की जायेगी और उनके फुकरा में तक्‍सीम की जायेगी। अगर वो ईताअ़त करें तो उनसे (ज़कात) वसूल कर लो और उनके बेहतरीन माल से दूर रहो''। 

एक दुसरी जगह रिवायत में उन्‍होंने मज़ीद बयान किया :

))واتّق دعوۃ المظلوم فإنہ لیس بینھا و بین اللّٰہ حجاب((

''मज़लूम की बद्दुआ से बचों क्‍योंके उसके और अल्‍लाह के दरमियान कोई पर्दा नहीं''।

 कई मौको पर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मख्‍सूस लोगों को माली (आर्थिक) मुआमलात पर नियुक्‍त फरमाया जैसे कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم हर साल अब्‍दुल्‍ला बिन रवाहा (رضي الله عنه) को खैबर के यहूदियो की तरफ उनके फलों की पैदावार का अन्‍दाज़ा लगाने के लिए भेजा करते थे। मूता (ईमाम मलिक) में बयान किया गया :

))أنہ علیہ السلام کان یبعث عبد اللّٰہ بن رواحۃ فیخرص بینہ و بینھم، ثم یقول: إن شئتم فلي، فکانوا ےأخذونہ((
''रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم अब्‍दुल्‍ला बिन रवाहा (رضي الله عنه) को अपने और उनके दरमियान फलों की बटवारे का अन्‍दाज़ा लगाने के लिए भेजा करते थे। फिर वो (इब्‍ने रवाह) कहते है अगर तुम्‍हे पसन्‍द हो तो यह तुम्‍हारे लिए है और अगर तुम पसन्‍द करो तो यह मेरे लिए है और वो (यहूद) इस बटवारे को क़बूल करते''।

सलमान बिन यसार बयान करते है के इन (यहूदियो) ने अपनी औरतो का कुछ जै़वर जमा किया और (अब्‍दुल्‍ला बिन रवाह से) कहा यह आपके लिए है और हमसे वसूल किए जाने वाले माल से कुछ कमी कर दे और बटवारे में कुछ नरमी बरते। अब्‍दुल्‍ला बिन रवाह (رضي الله عنه) ने कहा :
''ऐ यहूद तुम मेरे नज़दीक अल्‍लाह की मखलुकात में सबसे ज्‍़यादा काबिले नफरत हो। लेकिन यह बात मुझे इस बात पर माईल नहीं करेंगी कि मैं तुम पर जुल्‍म करूँ। जहॉ तक इस रिश्‍वत का ताल्‍लुक है जिसकी तुमने पेशकश की है, यह हराम माल है और हम उसे नहीं खाते (क़बूल नहीं करते)''। इस पर यहूदियों ने कहा “इस इंसाफ से ही ज़मीन और आसमान क़ायम हैं।
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم वालीयो और उनके अम्‍माल (आमिल) की जानिब के बारे में मालुमात फरमाया करते थे और उनसे मुताल्लिक मौसूल मालुमात हासिल होने वाली खबरों पर तवज्जो देते थे। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अला बिन खज़रमी जो बहरीन पर आप صلى الله عليه وسلم के आमिल थे, को उस वक्‍़त बरतरफ (dismiss) कर दिया जब अब्‍द केस के एक गिरोह ने इनसे सम्‍बन्धित शिकायत की। इब्‍ने सअद ने रिवायत किया है के हमें मुहम्‍मद बिन उमर ने बयान किया : '' . . . . बनू आमिर बिन लोई के हलीफ अमरू बिन औफ ने बयान  किया के रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  ने अला निब खज़रमी को बहरीन पर मुकर्रर किया फिर आप صلى الله عليه وسلم ने उसे माजू़ल (dismiss) करके अबान बिन सईद (رضي الله عنه) को बहरीन पर आमिल मुकर्रर किया। मोहम्‍मद बिन उमर कहते है ''रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने अला निब खज़रमी को लिखा के अब्‍द केस के बीस आदमियो के साथ मेरे पास पहुचो। चुनांचे वो बीस आदमियों के साथ आप صلى الله عليه وسلم की खिदमत में हाजिर हुआ जिनका सरदार अब्‍दुल्‍ला बिन औफ अल अशज़ी था और अला ने मन्‍ज़र बिन सावी को अपनी गै़र मौजूदगी में बहरीन पर आमिल मुक़र्रर किया। अब्‍द केस के वफ्द (delegation) ने अला से सम्‍बन्धित शिकायत की। चुनांचे रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने उसे बरतरफ (बर्खास्त) करके अबान बिन सईद बिन अलआस (رضي الله عنه) को मुकर्रर फरमाया और उससे कहा :

))استوص بعبد القیس خیراً و أکرم سراتھم((
''अब्‍द केस का ख्‍याल रखना और उनके सरदारो का ऐहतराम करना''।
रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  अम्‍माल से हिसाब किताब किया करते थे और मेहसूलात (प्राप्‍त होने वाले टेक्‍स) और खर्च की पूछगज फरमाते थे। बुखारी और मुस्लिम ने अबू हमीद साअदी (رضي الله عنه) से रिवायत किया :

))أن النبی ﷺ ٓاستعمل ابن الْلُّتبِیَّہ علی صدقات بني سلیم فلما جاء الی رسول اللّٰہ ﷺ و حاسبہ قال ھذا الذي لکم و ھذہ ھدےۃ أھدیت لی ، فقال رسول اللّٰہ : فھلّا جلست فی بیت أبیک و بیت أمک حتی تأتیک ھدیتک إن کنت صادقاً ، ثم قام رسول اللّٰہ ﷺ فخطب الناس و حمد اللّٰہ و أثنی علیہ ثم قال: أما بعد فإنی أستعمل رجالًا منکم علی امورٍ مما ولاّنی اللّٰہ فےأتی أحدکم فیقول ھذا لکم و ھذہ ھدےۃ اھدیت لی فھلّا جلس فی بیت أبیہ و بیت أمہ حتی تأتیہ ھدیتہ إن کان صادقاً، فو اللّٰہ لا ےأخذ أحدکم منھا شےءًا بغیر حق إلا جاء اللّٰہ یحملہ یوم القیامۃ ، ألا فلأعرفنّ ما جاء اللّٰہ رجلٌ ببعیرلہ رُغا ء أو ببقرۃ لھا خُوارأو شاۃٍ تیعر ، ثم رفع یدہ حتی رأیت بیاض إبطیہ : ألا ھل بلغت((
''रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इब्‍ने लुत्बिया को बनी सलीम से सदकात की वसूली पर आमिल मुकर्रर फरमाया। जब वो रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के पास वापस आया और हिसाब किताब किया, तो उसने कहॉ : “यह आपके लिए है और यह मेरे लिए (लोगों की तरफ से) हदीया है।“ रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  ने कहॉ : “क्‍यो ना तुम अपने मॉ बाप के घर में बैठो और फिर देखों के तुम्‍हे कोई तौहफा मिलता है या नहीं, अगर तुम वाकई सच्चे हो”। फिर रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم  खडे हुए और अल्‍लाह (سبحانه وتعال) की हम्‍द व सना करने के बाद कहा : “मैं तुम लोगों का चन्‍द मुआमलात में मुकर्रर करता हॅू जिस पर अल्‍लाह (سبحانه وتعال) ने मुझे इख्तियार बख्‍शा है। फिर तुममें से कोई मेरे पास आता है और कहता है के ये आपके लिए है और यह मेरे लिए तौहफा है। क्‍यो ना वो अपने मां-बाप के घर में ही बैठा रहे ताके उसे घर में ही तौहफे पहुच जाए अगर वो सच्‍चा है। अल्‍लाह की कसम! तुममें से कोई नहीं जो इन (सदकात) में से नाहक़ ले और क़यामत के दिन वो अल्‍लाह के पास इसका बोझ उठाता हुआ ना आए। मैं इस शख्‍स को क़यामत के दिन पहचान लूंगा जो अल्‍लाह के पास इस हालत में आएगा के इसकी गर्दन पर ऊँट बरबराता हुआ होगा, या गाय डकरा रही होगी, या बकरी मिमनाती हुई होगी।“ फिर आप صلى الله عليه وسلم  ने अपने हाथों को इतना बुलन्‍द किया के हमने आप صلى الله عليه وسلم  की बग़लो की सफेदी देखी। फिर फरमाया : “क्‍या मैंने (पैग़ामे हक़) पहुंचा नहीं दिया? 
और अबू दाउद ने बुरीदाह (رضي الله عنه) से रिवायत किया है के रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ईरशाद फरमाया :

))من استعملناہ علی عمل فرزقناہ رزقاً فما أخذ بعد ذلک فھو غلول((
''जब हमने किसी को एक काम के लिए मुकर्रर फरमाया और उसे माल अता किया तो उसके बाद जो कुछ उसने नाजाईज़ तौर पर हासिल किया वो गुलूल (गबन) है''।

जब अहले यमन से माअज़ (رضي الله عنه) की नमाज़ की तिवालत की शिकायत (नमाज़ के लम्‍बे होने की) तो आप صلى الله عليه وسلم ने मआज़ (رضي الله عنه) को इस बात से मना फरमाया। बुखारी और मुस्लिम ने अबू मसूद अल अंसारी (رضي الله عنه) से रिवायत किया है :

))قال رجل لا أکاد أدرک الصلا ۃ مما یطوّل بنا فلان، فما رأیت النبیﷺفی موعظۃ أشدّ غضباً من یومئذٍ فقال : یاأیھا الناس إنکم منفرون، فمن صلی بالناس فلیخفف فإن فیھم المریض و الضعیف و ذا الحاجۃ((

''एक शख्‍स ने (रसूलुल्लाह स0) से अर्ज़ किया के फला फला शख्‍स की वजह से (जो हमें बहुत लम्‍बी नमाज़ पडा़ता है, मैं (बा जमाअ़त) नमाज़ से रह जाता हॅू। (अबू मसूद رضي الله عنه बयान करते है) के मैने नबी صلى الله عليه وسلم  को उस दिन से ज्‍़यादा गुस्‍से में कभी नहीं देखा। आप صلى الله عليه وسلم  ने ईरशाद फरमाया : ''ऐ लोगो! तुममें से कुछ मुतनफ्फिर (नफरत) करने वाले हैं। तुममें से जो लोगों की ईमामत करे वो तखफीफ (नमाज़ छोटी पढाया) करें क्‍योंके उसकी इक़्तिदा में बिमार, कमज़ोर और हाज़तमन्‍द लोग होते है''।

और मुस्लिम ने जाबिर (رضي الله عنه) से यह अल्‍फाज़ रिवायत किये :

))...یا معاذ أفتّان انت...((
''ऐ माअज़ (رضي الله عنه) क्‍या तुम फितना परवर बनना चाहते हो?''।
आप صلى الله عليه وسلم लोगों के दरमियान मुआमलात का फैसला करने के लिए काज़ी मुकर्रर करते थे। आपने अली बिन अबी तालिब को यमन पर काज़ी मुकर्रर किया। आप صلى الله عليه وسلم ने माअज़ बिन जबल (رضي الله عنه) और अबू मूसा अल अश्‍अ़री दोनों को काज़ी बनाकर यमन की तरफ भेजा। आप صلى الله عليه وسلم ने इनसे फरमाया :

))بِمَ تحکمان فقالا: إن لم نجد الحکم في الکتاب و لا فی السنۃ قسنا الأمر بالأمر، فما کان أقرب إلی الحق عملنا بہ((

''तुम किस चीज़ के ज़रिए फैसला करोगे। उन्‍होने जवाब दिया : अगर हमें किताब और सुन्‍नत में हुक्‍म ना मिला तो फिर हम एक अम्र (हुक्‍म) का दुसरे अम्र से मवाज़ना (तुलना) करेंगे और जो हक़ के करीब होगा उसके मुताबिक अमल करेंगे''।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इस पर रज़ामन्‍दी का ईज़हार किया। यह इस बात पर दलालत करता है के आप صلى الله عليه وسلم काजियो को मुन्‍तखिब फरमाते थे और उनके फैसले के तरीकेकार का जाईज़ा लेते थे। आप صلى الله عليه وسلم  जनता के हित की देखभाल करते थे और लोगों के फायदे के इन्तिज़ाम के लिए आप صلى الله عليه وسلم ने ईदारो (institutes) के निगराह नियुक्‍त किये जो उन शोबो के ईंचार्ज या सरबराह थे। अली बिन अबी तालिब (رضي الله عنه) अमन (शांति) और दिगर मुआईदात (agreement) कलमबन्‍द करने पर नियुक्‍त थे। मुऐकेब बिन अबी फातिमा (رضي الله عنه) रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की मोहर और माले गनीमत पर जिम्‍मेदार थे। हुजे़फा बिन यमान (رضي الله عنه) हिजाज़ के फलो का हिसाब लगाने पर नियुक्‍त थे। सदके के माल का अन्‍दाज़ा करना जुबैर बिन अल अवाम (رضي الله عنه) के जिम्‍में था। मुग़ीरा बिन शोबा (رضي الله عنه) कर्ज़ो और लेन-देन का हिसाब रखते थे। शुरहबील बिन हसना (رضي الله عنه) दुसरी रियासतों को खत लिखने पर नियु‍क्‍त थे।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जनता के हित के हर शोबे पर एक सरबराह या director मुकर्रर किया चाहे यह शोबे कितने ही क्‍यो ना हो। आप صلى الله عليه وسلم अक्‍सर बेशतर सहाबा (رضي الله عنه) से मश्‍वरा लिया करते थे। आप صلى الله عليه وسلم उन लोगों से मश्‍वरा करने से इस्‍तेनाब (avoid) नहीं करते जो अहले राय और साहिबे बसीरत थे और उनकी अक्‍ल व फजिलत से आप बखबर थे और जिन्‍होने इस्लाम के लिए कुर्बानिया दी और ईमान की मज़बूती का सबूत दिया। आप صلى الله عليه وسلم  ने शूरा के लिए 14 अफराद का चुनाव किया। मश्‍वरे के लिए आप صلى الله عليه وسلم  उनकी तरफ रूज़ू फरमाते थे। आप صلى الله عليه وسلم ने इसलिए इन लोगों का चुनाव किया क्‍योंके लोगों में इनकी क़यादत मौजूद थी यानी वो लोगो के प्रतिनिधित्‍व करते थे। उनमें से सात महाज़रीन में से थे और सात लोग अन्‍सारी थे। अबू बक्र, हमज़ा, उमर, अली, जाफर, बिलाल, इब्‍ने मसूद, सलमान, अम्‍मार और अबू ज़र (رضي الله عنه) उन्‍ही में से थे। इनके अलावा आप صلى الله عليه وسلم बाकी लोगों से भी मश्‍वरा लेते थे लेकिन यह वो लोग थे जिनसे आप صلى الله عليه وسلم अक्‍सर मश्‍वरा फरमाते थे। पस यह लोग मज़लिसे शूरा के मानिन्‍द थे। आप صلى الله عليه وسلم मुसलमानों और गैर मुस्लिमों, उनकी ज़मीन, फलो और मवेशियों पर लागू टैक्‍स वसूल करते थे। इन अम्‍वाल में ज़कात, उशर, फै, खिराज़ और जिज़या शामिल थे। जंग से हासिल होने वाला माले ग़नीमत बैतुलमात में जमा कर दिया जाता था जबके ज़कात को उन आठ मदो के मुताबिक तक्‍सीम कर दिया जाता था जिनका क़ुरआन में जिक्र किया गया। ज़कात का माल इसके अलावा ना किसी को दिया जाता और ना ही उसे रियासती मुआमलात को चलाने के लिए खर्च किया जाता। वो अम्‍वाल (माल) जो लोगों के मुआमलात को चलाने के लिए इस्तिमाल किये जाते थे, वो फै, खिराज़, जिज़या और गनाईम (माले ग़नीमत का माल) की मद में जमा होने वाली दौलत थी। यह अम्‍वाल (founds) रियासत के मुआमलात को चलाने के लिए काफी होते थे पस रियासत को और अधिक माल की ज़रूरत मेहसूस नहीं होती थी। 

चुनांचे इस तरीके से रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने बज़ाते खुद इस्लामी रियासत का ढांचा क़ायम किया और अपनी जिन्‍दगी में ही उसे पाए तकमील तक पहुचा दिया। पस आप صلى الله عليه وسلم  रियासत के हुक्‍मरां थे और आप صلى الله عليه وسلم के माअविनीन (सहायक), वाली, काज़ी, फौज़, ईदारो के मुन्‍तज़मीन (संस्‍थाओ के मैनेज़र) और मज़लिसे शूरा मौजूद थी जिसकी तरफ आप صلى الله عليه وسلم  मश्‍वरे के लिए रूज़ू किया करते थे। रियासत का यह ढांचा और इसका काम शरई नूसूस में वारिद हुआ है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने मदीने में तश्‍रीफ लाने के दिन से लेकर आपनी वफात तक रियासत की हुक्‍मरानी का अमल अन्‍ज़ाम दिया और अबू बक्र (رضي الله عنه) और उमर (رضي الله عنه) आप صلى الله عليه وسلم  के माअ़वीन (सहायक) थे। आप صلى الله عليه وسلم की वफात के बाद सहाबा (رضي الله عنه) ने रियासत के लिए हुक्‍मरान मुकर्रर (नियुक्‍त) करने पर ईज़माह किया जो आप صلى الله عليه وسلم  के बाद फक़त रियासत का सरबराह होगा और नबूवत व रिसालत में आपका जाँनशीन नहीं होगा क्‍योंके आप صلى الله عليه وسلم पर नबूवत का खातमा हो गया। पस आप صلى الله عليه وسلم ने अपनी जिन्‍दगी के दौरान ही रियासत के तमाम ढांचे को मुकम्‍मल कर दिया और आप صلى الله عليه وسلم अपने पीछे रियासत की तयशुदा शक्‍़ल और ढांचे छोडकर गए जो बिल्‍कुल साफ था और लोग इससे बखुबी वाकिफ थे।

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