क्या फिक़्ही इख्तलाफात मुसलमानों की एकता में रूकावट हैं?

फिक्ही या मस्लकी इख्तालाफात का ताना सेक्यूलर हज़रात की जैब में मौजूद वह सख्त तरीन कोढ़ा है जिसने इस्लाम के चाहने वालों की कमर को छलनी किया हुआ है। अभी किसी के मुँह से इस्लाम लागू करने की बात निकली नहीं कि ये कोढ़ा हरकत में आ जाता है। इस सिलसिले में हर किस्म के दलाइल एक ‘‘बम धमाके’’ के ज़िक्र से उड़न छू हो जाते है। पस इस मज़मून में एक मुदल्लल और उसूली जवाब तहरीर किया गया है। ताकि सेक्यूलर हज़रात को फिक्ही इख्तलाफात के सिलसिले में इस्लामी सियासत के तरज़े अमल के बारे में आगह भी किया जाय और साथ-साथ इस्लाम पसन्दों को भी एक नसीहत कि जाये क्योंकि सही मुस्लिम में मौजूद रसूल अल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की हदीस के मुताबिक दीन नसीहत है ‘‘अल्लाह, रसूल, और कुरान की खातिर, जनता और उन लीडरों के लिए’’ 

जम्हूरियत (Democracy) में इख्तलाफे राए के मसले का हल करने का तरीक़ा
सबसे पहले हम आज की दुनिया में हावी सरमायादारान निजाम (Capitalism/ पूंजीवाद) में देखते है कि इन्सान के ज़रिये इजाद किया गया सियासी निज़ाम ‘जम्हूरियत/लोकतंत्र’ (Democracy) कैसे इख्तिलाफे राए (राय/विचारों मे फर्क़) के मसले को हल करता है। आज पश्चिमी समाज में गर्भपात (abortion) से लेकर क्लोनिंग (cloning) तक (Stem Cell Research) से लेकर हम-जिन्स परस्ती (homosexuality/समलैंगिता) तक और इराक जंग से लेकर टेक्स इस्लाहात तक बेशुमार मसाइल में विभिन्न तरह के राय (opinion) मे अंतर पाये  पाई जाते है।

लेकिन यह उनके इंतिशार और फूट का कारण नहीं। इस की बुनियादी वजह यह की जम्हूरी निज़ाम (लोकतांत्रिक व्यवस्था) में एक मसले पर मौजूद इख्तिलाफ राए (राय/विचारों मे अंतर) में से एक राए को लागू करने का एक अपना तरीका है जो इस्लाम से अलग है। ये तरीका जनता के नुमाइन्दो की अक्सरीयत  राय (बहुसख्यक वर्ग की राय) की बुनियाद पर होता है। पस इस तरीके के मुताबिक वह अपने तमाम इख्तिलाफ को रियासती मामलात में हल कर लेते है। इसका मतलब ये नहीं है की तमाम लोग एक ही राय को इख्तियार कर लेते है बल्कि इसका मतलब सिर्फ ये है कि रियासत में एक राए लागू कर दी जाती है। और बकिया राए के हामिल लोग अपनी राए के निफाज़ के लिए सियासी तरीके से अपनी आवाज बुलन्द करते रहते है। ऐसा उस वक्त तक होता है जब तक इस राय के हक़ मे राय आम्मा (जनमत) तैयार हो जाती है। पस वह राए अक्सरियती राए की बुनियाद पर लागू हो जाती है। इसकी हालिया मिसाल अमरीका और बरतानिया में इन की नज़र में ‘‘दहशतगर्दी’’ या दूसरे लफ्ज़ों में इस्लाम के खिलाफ कवानीन का दोबारा से लागू करना है। जिसमें हुकुमत को राऐ आम्मा (public opinion/जनमत) बनाने में सख्त दुष्वारी का सामना है।
इस्लाम में इख्तिलाफ राए के मसले के हल का तरीकेकार
इस्लाम में इख्तिलाफ राए (विचारों मे अंतर) में से एक राए को लागू करने का तरीकेकार जम्हूरियत से अलग है। इस्लाम का इस सिलसिले में तरीकेकार यह है कि शरीयत से क़वी दलाइल की बुनियाद पर अखज़ किये जाने वाले कई इज्तिहाद में से खलीफा जिस इज्तिहाद को तबन्नी (Adopt/) कर ले या अपना ले तो उस पर अमल पेरा होना वाजिब होता है। खलीफा इबादात, ज़ाती मामलात और अक़ाइद की फरोई तफ्सीलात (शाखों/branches) में कोई मख्सूस इज्तिहाद लागू नहीं करेगा और लोगों को इजाज़त होगी की वह इन मामलात में से किसी भी मुजतहिद की तक़लीद करें। वह महज उन मसाइल में से एक इज्तिहाद को लागू करेगा जिनका ताल्लुक इज्तिमाई (सामुहिक) मामलात और व्यवस्था से है। मसलन खिराज (इस्लामी टिक्स), आर्थिक व्यवस्था, तालीमी पॉलिसी, इस्लाम की दावत वगैरा। इस सिलसिले में जो दलाइल कुरान व सुन्नत में आते है उन्हे मुलाहिज़ कीजिये:

‘‘ऐ ईमान वालों! अल्लाह और रसूल की इताअत करो और अपने उलिल अम्र (हुकमरान) की भी’’। ( सूर: निसा: 59 )

पस खलीफा इस्लामी दलाइल पर आधारित राए में से जिस राय को इख्तियार करने के बाद लागू करेगा इस पर तमाम मकातिबे फिक्र (मसलक) महज़ इसलिए अमल करेगे क्योंकि मुस्लिम आवाम के ज़रिये चुने गये खलीफा की इताअत उपर ज़िक्र की गई आयात और दीगर अहादीस की वजह से फर्ज़ है। इस दौरान जनता और दीगर मुज्तहीदीन (इस्लामी क़ानूनदान) अपनी-अपनी राय पर कायम रह सकते है और खलीफा को अपनी राए अपनाने के लिए मश्वरा भी दे सकते है। लेकिन इन इज्तिमाई मसाइल में पूरी उम्मत को खलीफा के अपनाए गए इज्तिहाद पर है अमल करना होगा। क्योंकि यह अल्लाह का हुक्म है। इस तरह समाज और रियासत की व्यवस्था बगैर इन्तिशार और फूट के चलाई जा सकती है। मशहूर फ़िकही काइदा है:
‘‘अमरूल इमाम यरफऊल खिलाफ’’  यानी ‘‘इमाम (खलीफा) का हुक्म इख्तिलाफ को खत्म करता है’’
और ‘‘अमरूल इमाम नाफीज़ ज़ाहीरन व बातीनन’’ यानी “इमाम का हुक्म ज़ाहिरन और बातिनन नाफीज़ किया जाता है।’’
इसी उसूल के तहत हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) ने अपनी खिलाफत के दौरान सहाबा (رضی اللہ عنھم) की अक्सरियते राए (बहुमत) को रद्द करते हुए अपनी राए नाफीज़ कि और ज़कात का इंकार करने वाले, झूठी नबूवतों के दावेदारों और रूमीयों के खिलाफ एक साथ लष्कर क़शी फरमाई। इसी तरह हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने इराक के मफतुह इलाकों पर खिराज नाफीज़ करने के अपने इज्तिहाद को नाफीज़ फरमाया। अगरचे हज़रत बिलाल (رضي الله عنه) और अकाबिर सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुमा) का इजतिहाद इन से अलग था। नीज़ जब हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) खलीफा थे तो उन्होंने तलाक़ और माल तक़सीम करने में अपने इज्तिहाद का निफाज़ किया। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने अपने दौरे खिलाफत में इन्हीं मसाइल पर मुख्तलिफ इज्तिहाद को लागू फरमाया।
हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) और हज़रत उमर (رضي الله عنه) के इस तरीकेकार पर तमाम सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुमा) का इजमाअ है जो हमारे लिए शरअी दलील है। चुनांचे मालूम हुआ की इज्तिहादी इख्तिलाफ हज़रत उमर (رضي الله عنه) और हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) की खिलाफत के दौरान भी रहा। लेकिन इसने उम्मत में तास्सुब या इन्तिशार या फूट पैदा नहीं किया। क्योंकि उम्मत को अपने इजतिहादी इख्तिलाफात हल करने का तरीका आता था।

इज्तिहादी इख्तिलाफ की इजाज़त की सुन्नते नबवी (صلى الله عليه وسلم) से दलील

सहाबा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के वक्त में इज्तिहाद किया करते थे और उनकी राय में इख्तिलाफ भी पाया जाता था। यह इज्तिहादी इख्तिलाफ रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के सामने पेश किया गया और आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस पर किसी की मलामत न फरमाई, हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर से मरवी है:

‘‘गज़वऐ अहज़ाब के खात्मे वाले दिन रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि ‘‘तुम में से कोई भी नमाज़ असर न पढ़ें सिवाए बनू कुरेज़ा पहुंच कर’’ कुछ हज़रत की असर की नमाज़ का वक्त रास्ते में ही हो गया। इनमें से कुछ सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुम) ने कहा हम (रास्ते में) नमाज़ नही पढ़ेंगे जब तक (बनू कुरेज़ा) पहुंच न जाए। बाज़ सहाबा (रजि.) ने कहा बल्कि हम (नमाज) पढ़ेगें। क्योंकि रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के इस फरमान से मुराद ये ना था। बल्कि इस हुक्म से जल्दी मतलूब थी। फिर जब रसूलल्लाह से ज़िक्र किया गया तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने दोनों में से किसी गिरोह की सरज़निश नहीं फरमाई (गलती पर नहीं बताया) । (बुखारी)

इस हदीस से वाज़ेह हुआ कि सहाबा (रजि.) की एक जमाअत ने रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के फरमान के मनतूक (लफज़ी मआनी) पर अमल किया और दूसरे गिरोह ने मफहूम  (implied meaning) पर और आप (صلى الله عليه وسلم) के फरमान के दोनों मअनी समझे जा सकते थे। यही वजह है कि ताबअीन और तबअे ताबअीन ने कभी भी इज्तिहादी इख्तिलाफ की बुनियाद पर किसी मुजतहिद की मलामत की और न ही कुफ्र का फतवा लगाया।
इसलिये इज्तिहाद की बुनियाद पर नमाज़ो की तरोक़े मे इख्तिलाफ, और दूसरे शरई अहमात मे इख्तिलाफ कोई फिरक़ा परस्ती और फूट की वजह नहीं है बल्कि इसको सहाबा से लेकर ओलमाये अकाबिर ने शरई और जाईज़ इख्तिलाफ क़रार दिया. यह इख्तिलाफ ज़न्नी (speculative) अहकामत मे जाईज़ है. हाँ जिन्होंने क़तई (definitive) अहकामात में इख्तिलाफ किया उन पर मुरतद होने (इस्लाम से फिर जाने) की वजह से रियासत ने कत्ल की हद जारी की। इसी तरह अमर बिन आस (رضي الله عنه) से रिवायत है कि उन्होंने रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को कहते सुना:
‘अगर एक क़ाज़ी इज्तिहाद करते हुए दुरूस्त फैसला दे तो उसके लिए दो अज्र है और अगर वह इज्तिहाद करते हुए गलत फैसले पर पहुंच जाए तो इस के लिए एक अज्र है’’ (बुखारी)
यानी अगर इजतिहाद की शराईत के बाद अगर वह गलत राए तक भी पहुंच जाये तो वह काबिले कुबुल है। इससे पता चला की दो मुज्तहिदों के नमाज़ के तरीक़े या किसी और शरई हुक्म या अहकाम मे फर्क़ पाया जाना के सबब कोई भी नमाज़ का तरीक़ा बातिल नहीं बल्कि बहतर इज्तिहाद पर अमल करने वाला दोहरे अज्र पायेगा और कमज़ोर इज्तिहाद पर अमल करने वाली एक दर्जा सवाब का मुस्तहिक़ है. इस मसले की इससे ज़्यादा और कोई हैसियत नहीं.

आज खिलाफत और खलीफा की ग़ैर मौजूदगी की वजह से मुसलमानों के दरमियान फिक्ही इख्तिलाफात में से एक राय को लागू करना मुमकिन नहीं। इस्लाम का अमली तरीकेकार हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) के दौर से शुरू होकर उस्मानी खिलाफत तक जारी रहा। खिलाफत तमाम मुसलमानों की एक रियायत का नाम है। और ये किसी खास मस्लक को लागू नहीं करेगी। बल्कि क़वी दलाइल (strong evidences) की बुनियाद पर किये जाने वाले इज्तिहाद में से दुरूस्त इज्तिहाद लागू किया जाएगा। ख्वाह वह किसी जदीद मुजतहीद की राए हो या इस्लाम के मशहूरे ज़माना तारीखी मुज्तहदीन (जैसे इमाम अबू हनिफा, इमाम शाफई वग़ैराह) की राए हो जिनका आज का ज़माना मुकल्लिद है।

बहरहाल इस उसूली बहस के बाद अगर इस मुआमले को थोड़ी से गहराई से मुताअला किया जाए तो ये हकीकत रोज़े रोशन की तरह साफ हो जाती है कि इस्लाम के क़तई अहकामात में किसी भी मस्लक या इजतिहाद में कोई फर्क नहीं चाहे इसका ताल्लुक मामलात से हो, इबादात से हो या हुक्मरानी के उमूर से। जैसे नमाज़ के फराईज़ जिन की दलील मुतवातिर और क़तई दलाईल पर आधारित है, किसी भी मसलक यानी शिया, सुन्नी, देवबन्दी, अहले हदीस मे फर्क़ नही (नियत, रुकू, सज्दा वग़ैराह). 
इसके अलावा वोह मामलात जिन का ताल्लुक़ रियासत से है उन मामलात मे उम्मत मे इख्तिलाफे राये तो क्या कोई दूसरी राय मौजूद ही नहीं है । मसलन तमाम मुसलमानों की एक रियासत होना, खलीफा की इताअत, खलीफा का उम्मत के मामलात का ज़िम्मेदार होना, रियासत की तरफ से जनता के तमाम बुनियादी ज़रूरीयत की गारंटी देना, कुफ्फार के साथ फौजी तआवुन का मना होना, मुसलमानों की कुफ्फार के मुकाबले में बेयारो मददगार न छोड़ना, (IMF) और ; (World Bank) वल्ड बैंक जैसे सम्राज्यवादी संस्थाओं से कर्ज़ा लेने की मनाही, संयुक्त राष्टृ संघ (United Nations) जैसे तागूत की रूकनियत का हराम होना, अवामी मिल्कियत (जन सम्पत्ती) जैसे तेल, कोयला, दरिया, रोड़ वगैराह की निजीकरण (privatization) का हराम होना, ज़मीन से मुताअल्लिक मुसलमानों का मारतेकुल आरा इसलाहात, करन्सी का सोने, चांदी या किमती धातु पर आधारित होना, हुदुद का निफाज़, नमाज़ का क़ायम करना, ज़कात की वसूली, परदा, खिराज़ व उशर, इस्लामी मकबूजा इलाकों का कुफ्फार के चंगुल से छुड़ाना, साइंस व टेक्नालोजी और इस्लामी सक़ाफत की प्रचार वगैराह-वगैराह।
जहां तक इबादात और बाज़ मसाइल की फरूआत (शाखों) और तफसीलात में इख्तिलाफ का ताल्लुक है तो इस इख्तिलाफ का उम्मत की वहदत (unity) के मामलात से केाई ताल्लुक नहीं, न हीं रियासत के मामलात पर इसका कोई असर पड़ता है. पस इस इख्तिलाफ के बाकी रहने में कोई क़बाहत नहीं, अगरचे सकारात्मक अन्दाज में इन मामलात पर बहस मुबाहिसे का कलचर परवान चढ़ा कर खिलाफत एक ऐसे समाज को परवान चढ़ाएगी जैसा कि सहाबा (रजि.), तआबीन और तबअे ताबअीन के वक्त मौजूद था।

इज्तिहाद से मुताल्लिक बुनियादी समझ ही तास्सुब और दीगर मकातीबे इस्लाम (मसलक/school of thoughts) से बुग्ज़ को दूर करती है। क्योंकि दीगर मकातीब भी दलाइज की बुनियाद पर एक शरअी मसले पर कारबन्द होते है। यही वजह है कि दौरे अव्वलीन के मुसलमानों में कई वार सियासी इख्तिलाफात के कारण कड़वापन तो जरूर हुआ लेकिन उन्होंने कभी भी फिक्ही इख्तिलाफात को बुनियाद बना कर जंग व जदल नहीं की। इसी तरह हमे तारीख से मुख्तलिफ मकातीब फिक्र (मसलकों) के दरमियान बेषुमार मुबसत (सकारात्मक) वैचारिक और फिक़ही बहसें मिलती है। जिनके नतीजे में कई मौको पर मुजतहिदीन ने अपने इज्तिहादात से रजूअ करके क़वी दलील पर आधारित इज्तिहाद को इख्तियार किया। नीज़ हज़ीरीने मजलिस को भी अपने फिक्ही इल्म में इज़ाफा करने के साथ दूसरे मकातीबे फिक्र के दलाइल समझने का मौका मिला मिलता। चुनाँचे मुख्तलिफ मकातिब (मसलकों) में एक दुसरे के लिए अहतराम पैदा होता और समाज में हमआहन्गी की फिज़ा जन्म देती थी।

मौजूद सूरतेहाल


आज हम इस बात के इज़हार में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं करते की आज उम्मत के कुछ मखसूस तबको में जो रहा सहा मसलकी तास्सुब था वह भी दम तोड़ता जा रहा है। आम मुसलमानों ने तो इसे खैर कभी कबूल ही नहीं किया। अगर जनता के दरमियान फिरकावारीयत होती तो अब तक इनमें कई फसादात हो चुके होते। लेकिन ये हकीकत हमारे सामने है कि जब भी मुस्लिम देशों मे बम धमाकों का कोई अफसोसनाक वाकिआ होता है (जिसके सबूत कभी मुन्ज़रे आम पर नहीं लाए जाते) तो उम्मत दूसरो मसलकों के बजाए उअन देशों की हुकूमत और विदेशी तत्वों पर ही शक करती है। क्योंकि उम्मत इस खेल को समझ चुकी है के आखिर इसके पीछे किन लोगों का हाथ है और वह कौन लोग हैं जो कुछ खास तत्वों को इस्तमाल करते है। इसके अलावा इराक़, अफग़ानिस्तान और दूसरे कई मुस्लिम देशों के अन्दर इन्तिहाई मुकद्दस मुकामात में धमाकों के बारे में इन्तिहाई वाज़ह दलीले मिडिया में आ चुकीं है। जिन से ज़ाहिर होता है कि अमरीका इस आग को भड़काने में किस कदर घिनौना किरदार अदा कर रहा है। लेकिन अल्लाह का अहसाने अज़ीम है कि इसे मुँह कि खानी पड रही हैं।

आखिर में उलमा की भी तवज्जोह दरकार है कि वह उम्मत में ‘‘सिर्फ हमारा मसलक दुरूस्त है’’ कि ज़हनीयत न डाले। बल्कि इनके सामने हकीकत को वाज़ेह करें कि कतई अहकामात में इख्तिलाफा राए नहीं हो सकता। जबकी ज़न्नी दलाइल में मुख्तलिफ मुज्तहदीन कुरान व सुन्नत से इज्तिहाद करते है। और हर मुज्तहिद की भरपूर कोषिश होती है कि वह अल्लाह के हुक्म तक पहुंच सके। पस इस सिलसिले में अगर इज्तिहाद का मुकम्मत तरीकेकार इख्तियार किया गया है तो बाकी मसालिक भी इसी तरह इस्लाम पर चलते हुए अल्लाह सुब्हानहु व ताला के हुक्म ही का इत्तबाअ कर रहे होते है जैसे कि इनके अपने मसलक के लोग.   
अल्लाह तआला कुरआन में फरमाते है: ‘‘और अल्लाह ने तुम्हारा नाम मुसलमान रखा है’’।

नतीज़ा
पस यह हकीकत सूरज की तरह रौशन हो चुकी है कि इज्तिहादी इख्तिलाफात मुसलमानों की एक इस्लामी रियासत और इत्तिहाद के रास्ते में हरगीज़ कोई रूकावट नहीं। बल्कि असल रूकावट वह हुक्मरान तबका (मुस्लिम शासक वर्ग) है जो इस मुद्दे (issue) को भड़का कर इस्लाम के रास्ते में रूकावटें डालते है ताकि सत्ता पर इनकी गिरफ्त ढिली न हो जाए और इन्हें अपने करतूतों का हिसाब न देना पड़े।

Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.