दावती जमात का होना फर्ज़ है

दावती ज़िम्मेदारी को अंजाम देने के लिए जमात की मौजूदगी की फ़र्ज़ीयत

बेशक शरअ की जानिब से जमात से मतलूब (demanded) और आइद शरई ज़िम्मेदारी की वज़ाहत हो जाने के बाद जमातों से संबधित अम्र बिल मारूफ व नही अनिल मुनकर को बयान किया जा सकता है। यहां हम इसका उन जमातों के बारे में गुफ़्तगु नहीं करेंगे जो आंशिक शरई अहकाम को अंजाम देने के लिए क़ायम की गईं हैं । जैसे फ़ुकरा और मसाकीन की इमदाद के लिए क़ायम की गईं फ़लाही जमीअतें और अंजुमनें, या वाज़ व इरशाद की ख़ातिर जमातें, मस्जिदें बनवाने के लिए जमातें या क़ुरआन की तालीम देने के लिए क़ायम की गईं जमाअते वग़ैरा। बल्कि हमारी बेहस का विषय उन जमातों की मौजूदगी से संबधित है जो दीन को मुकम्मल तौर पर क़ायम करने की ज़िम्मेदारी का ज़िम्मा अपने सर लेती हैं, जो ख़िलाफ़त के क़याम के ज़रीये क़ायम होता है जिसका किरदार मुसलमानों की ज़िंदगीयों में मुकम्मल इस्लाम का निफ़ाज़ करना होता है, चुनांचे ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी होती है कि समाज में उन तमाम भलाइयों को पैदा करना जिनका उसे शरअ ने हुक्म दिया है और ऐसे तमाम मुनकिरात को ख़त्म करना जिनसे शरअ ने मना किया है लिहाज़ा वो इंसानों की ज़िंदगीयों में अपना किरदार अदा करती है यानी इस्लामी रियासत में लोगों की ज़िंदगीयों में इस्लाम को मुकम्मल तौर पर नाफ़िज़ करना और ख़ारिजी तौर पर इस्लाम को एक भलाई की दावत के तौर पर पूरी दुनिया के सामने पेश करना है।

शरअ ने इस्लामी रियासत के ज़िम्मे कई अज़ीमतरीन फ़राइज़ मुक़र्रर किए हैं जो रियासत की मौजूदगी में अदा होते हैं और रियासत मौजूद नहीं हो तो ये फ़राइज़ अदा नहीं होते यहाँ तक कि लोगों की ज़िंदगीयों से निकल जाते हैं चुनांचे इस्लाम में इस जमात की मौजूदगी की एहमीयत उन शरई फ़राइज़ की एहमीयत से ज़ाहिर होती है जिन फ़राइज़ को वो अंजाम देना चाहती है, आज हमारे वक़्त में इस्लामी रियासत के क़याम के ज़रीये इस्लामी ज़िंदगी की वापसी के लिए काम करने वाली कोई जमात नहीं है तो इसका मतलब ये है कि मुसलमानों ने इन तमाम फ़राइज़ से रुख़ मोड़ा और ग़फ़लत बरती है जिन्हें अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने इस्लामी रियासत के सपुर्द किया है और इन फ़राइज़ और ज़िम्मेदारीयों की तादाद कई है जिसका नतीजा ये हुआ है कि इस फ़रीज़े को अंजाम ना देने से अज़ीम गुनाह आज कोई नहीं है ।

अब वो मुसलमान जो इस्लामी ज़िंदगी की वापसी के लिए काम नहीं करते हैं वो एक ज़ानी के कहीं भी ज़िना करने की वजह से गुनहगार हैं, किसी चोर का चोरी की वारदात करने से इसका गुनाह उनके सर चढ़ता है, किसी हाकिम के ज़ुल्म करने से वो गुनाह में मुब्तिला होते हैं, जब औरतें अधनंगी होकर सड़कों पर निकल आती हैं, फ़साद बरपा होने की वजह से, जिहाद ना होने की वजह से, कुफ़्फ़ार के मुसलमानों पर मुसल्लत होने की वजह से और इस वजह से भी कि मुनकर मज़ीद फैल रहा है और मारूफ़ नापायदार होता जा रहा है इनके नतीजे में वो मुसलसल अपने गुनाह का बोझ बढ़ा रहें हैं । क्योंकि ये फ़ित्ना इस वजह से फैलता जा रहा है कि मुसलमानों ने इस फ़र्ज़ की अदायगी से रुख़ मोड़ा जिसको अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने उन पर फ़र्ज़ किया था, वो फ़र्ज़ ख़िलाफ़ते-राशिदा के क़याम के लिए काम था जिससे अल्लाह (سبحانه وتعالى)  राज़ी होता है, ये ख़िलाफ़त ही है जो तमाम मामलात को उनके दरुस्त मुक़ाम पर लाती है और मुसलमानों की ज़िंदगीयों में शरअ को क़ायम करती है और मुसलमानों पर आइद करदा इज्तिमाई फ़राइज़ (collective obligations) को अदा करती है, ईमान को उनके दिलों में बोती है और इस तरह ईमान से हासिल होने वाले फल जैसे तक़्वा और एहसान, ख़िलाफ़त की निगरानी और नशोनुमा में परवान चढ़ते हैं । चुनांचे ये इज्तिमाई काम वो शरई फ़रीज़ा है जिस पर बिगड़े हुए हालात की तब्दीली और उसकी दरूस्तगी निर्भर करती है। इसी फ़रीज़े की मदद से उम्मत ख़ुद को पस्ती के इस घड़े से निकाल पाएगी जिसमें वो गिर चुकी है और इसके ज़रीये उम्मत अपनी खोई हुई अज़मत व ताक़त और शानो-शौकत दुबारा हासिल करेगी और एक हिदायत याफ़्ता व रहनुमाई करने वाली उम्मत बन कर क़ौमों की सरदार बनेगी।


मुसलमान को मिलने वाले अज्र का आज क्या अंदाज़ा है जो उसे इस अज़ीम इज्तिमाई काम के मुक़ाबले में हासिल हो सकता है? जिसके अंजाम देने के नतीजे में उम्मत इन बातिलकुन हालात से निजात पाकर महफ़ूज़ हो जाएगी। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का इरशाद है:

((لأن يهدي الله بك رجلاً خيرٌ لك من أن تكون لك حُمْرُ النعم))

“तो उस शख़्स को कितना बड़ा अज्र मिलेगा जो तमाम मुसलमानों की इस्लाह करे और उनको हलाकत से बचाने के लिए काम करे ।”

इससे बढ़ कर अज्र का अमल क्या होगा कि उम्मत के तमाम मुसलमानों को इस बुरी हालत से निकालने और तबाही से बचाने और आख़िरत में उनकी निजात के लिए कोशिश की जाये और अपने इस अमल के ज़रीये लोगों के लिए फ़ौज दर फ़ौज इस्लाम में दाख़िल होने की राह तैयार करे । रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से जब पूछा गया कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) के रास्ते में जिहाद के बराबर कौनसा अमल है? तो फ़रमाया:

((لا أجده. قال: هل تستطيع إذا خرج المجاهد أن تدخل
مسجدك فتقوم ولا تفتر وتصوم ولا تفطر)) 
“नहीं, मैं ऐसा कोई अमल नहीं पाता जो इसके बराबर भी हो, फिर आप ((صلى الله عليه وسلم) ने पूछने वाले से सवाल किया, क्या तुम जब मुजाहिद जिहाद के लिए निकलें, अपनी मस्जिद में जाकर ऐसा क़याम कर सकते हो जिसमें कोई वक़फ़ा ना हो? और क्या तुम ऐसा रोज़ा रख सकते हो जिसमें इफ़्तार ना हो? उस शख़्स ने अर्ज़ किया कि ऐसा कौन कर सकता है? ” (बुख़ारी)

अल्लाह (سبحانه وتعالى) के नज़दीक देखिए जिहाद का कितना बड़ा मर्तबा है ।  फिर रसूलुल्लाह   (صلى الله عليه وسلم) ने ये इरशाद भी फ़रमाया:

((أفضل الجهاد كلمة حق عند سلطان جائر))۔

“जाबिर हुक्मरान के सामने हक़ बात कहना अफ़ज़ल तरीन जिहाद है ।” मज़ीद फ़रमाया:


((سيد الشهداء حمزة بن عبد المطلب ورجل قام إلى إمام جائر
فأمره و نهاه فقتله))۔
 
“शुहदा के सरदार हम्ज़ा बिन अबदुल-मुत्तलिब है और वो शख़्स जो जाबिर हुक्मरान के सामने खड़े होकर अमर बिल मारुफ़ व नही अनिल मुनकर करे और वो हुक्मरान उसको क़त्ल कर डाले ।” (अल-हाकिम)
क्या मुसलमान के लिए ये जायज़ है कि वो मुसलमानों की मौजूदा हालत का मुशाहिदा करने के बावजूद उनको हलाक होने के लिए छोड़ दे और उन्हें बचाने की कोई कोशिश ना करे? या फिर ऐसा मुसलमान मुसलमानों के जिस्म का हिस्सा है? जैसा कि इरशाद है:
((مثل الجسد إذا اشتكى منه عضو تداعى له سائر الجسد
بالسهر و الحمى))۔
 “मुसलमान एक जिस्म की मानिंद हैं अगर इसके एक उज़ू को तकलीफ़ पहुंचे तो पूरा जिस्म बेख़ाबी और बुख़ार का शिकार हो जाता है ।” (मुस्लिम)

तो क्या ये मुसलमान दूसरे मुसलमानों के साथ एक इमारत का हिस्सा बनेगा जिसका एक हिस्सा दूसरे को सहारा देता है?


जैसा कि फ़रमाया:


کالبنیان یستد بعضہ بعضا۔


“मुसलमान आपस में एक इमारत की तरह हैं जिसका एक हिस्सा दूसरे को सहारा देता है ।” (मुस्लिम)




पस इस काम की वजह से मुसलमानों के लिए या तो अज्रे अज़ीम है या अंजाम ना देने की सूरत में गुनाहे अज़ीम और इस्लाम में ये फ़र्ज़ भी दूसरे दीगर फ़राइज़ की तरह है जिसके करने वाले को अज्र और छोड़ने वाले को सज़ा मिलेगी ।
हम एक बार फिर याददेहानी करवाते हैं कि यहां दावत के नाम से हरगिज़ हमारी मुराद वो जमाती काम नहीं जो इस्लाम के आंशिक या कुछ अजज़ा (अंशो/हिस्सो) के लिए हो । बल्कि दावत के काम से हमारी मुराद यहां ऐसा इज्तिमाई काम है जिसका मक़सद पूरे दीन इस्लाम का क़याम है जो कि सिर्फ़ ख़िलाफ़त के क़याम के ज़रीये हासिल होता है ।

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