लोगों के मुआमलात की देख भाल के लिए ख़लीफ़ा का तरीका-ए-कार

ख़लीफ़ा को ये मुतलक़ (स्थाई) हक़ हासिल है कि वो अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ लोगों के उमूर की देख भाल करे। ताहम उसके लिए जायज़ नहीं कि वो मस्लिहत (मफाद) की बिना पर अहकाम-ए-शरीयत की ख़िलाफ़वरज़ी करे। मिसाल के तौर पर ख़लीफ़ा के लिए जायज़ नहीं कि वो मुक़ामी सनअत (स्थानीय उद्योग) के सुरक्षा के नाम पर लोगों को वस्तुओं की आयात से रोके, सिवाए जब ये वाक़्यतन रियासती मईशत (राज्य की अर्थव्यवस्था) के लिए नुक़्सान का कारण हो। इसी तरह ख़लीफ़ा इस्तिहसाल (शोषण) को बुनियाद बना कर वस्तुओं की क़ीमतें फिक्स नहीं कर सकता। और इस के लिए ये भी जायज़ नहीं कि वो रियासती मुश्किलात को आसान करने के लिए मालिकान को अपनी जायदाद किराए पर देने पर मजबूर करे, जब तक कि उस की ज़रूरत लाज़मी ना हो जाये। ख़लीफ़ा कोई ऐसी पालिसी नहीं बना सकता जो शरई अहकाम के ख़िलाफ़ हो पस उसके लिए जायज़ नहीं कि वो किसी मुबाह अमल को हराम क़रार दे दे, या किसी हराम अमल को जायज़ बना दे।


ख़लीफ़ा का ये इख्तियार इस वजह से है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:
))الإمام راع و ھو مسؤول عن رعیتۃ((
इमाम रखवाला होता है और वो अपनी रईयत पर ज़िम्मेदार होता है।


और ये उन अहकाम की बिना पर भी है जो शरीयत ने ख़लीफ़ा को दिए हैं, जैसे कि ख़लीफ़ा अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ बैतुलमाल (राजकोष) के अम्वाल का इंतिज़ाम कर सकता है और किसी मुआमले के मुताल्लिक़ लोगों को एक ख़ास राय पर मजबूर कर सकता है। ये हदीस उसे लोगों के मुआमलात की देख भाल के लिए अपने तमाम तर इख्तियारात इस्तिमाल करने का मुतलक़ हक़ अता करती है, ख़ाह वो बैतुलमाल का इंतिज़ाम हो या क़वानीन की तबन्नी , फ़ौज की तंज़ीम-ओ-तर्बीयत हो या वालीयों का तक़र्रुर, या फिर दूसरे इख्तियारात।

ख़लीफ़ा अपने इन तमाम इख्तियारात को इस्तिमाल करने में आज़ाद होता है। ये इस बात की दलील है कि ख़लीफ़ा किसी बंदिश के बगै़र अपनी राय के मुताबिक़ लोगों के उमूर की देख भाल करता है और इन तमाम मुआमलात में उस की इताअत करना फ़र्ज़ होता है और उस की नाफ़रमानी गुनाह होती है। ताहम इस पर लाज़िम है कि वो अहकाम-ए-शरीयत के मुताबिक़ लोगों के उमूर की देख भाल करे यानी ये शरई नुसूस के मुताबिक़ हो। अगरचे ख़लीफ़ा के इख्तियारात मुतलक़ होते हैं लेकिन उन पर शरई हदों का इतलाक़ होता है यानी उन का अहकाम-ए-शरीयत के मुताबिक़ होना ज़रूरी है। मिसाल के तौर पर अगरचे ख़लीफ़ा को ये इख्तियार हासिल है कि वो अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ वालीयों का तक़र्रुर कर सकता है ताहम वो किसी काफ़िर, नाबालिग़ या औरत को वाली नहीं बना सकता क्योंकि शरह ने इस से मना किया है। इसी तरह ख़लीफ़ा को इस बात का मुकम्मल इख्तियार हासिल है कि वो कुफ़्फ़ार मुमालिक को इस्लामी रियासत में अपने सिफ़ारत ख़ाने खोलने की इजाज़त दे ताहम ख़लीफ़ा के लिए ये जायज़ नहीं कि वो किसी ऐसे काफ़िर मुल्क को इस्लामी रियासत में अपना सिफ़ारत ख़ाना खोलने की इजाज़त दे जो इस सिफ़ारत ख़ाने को इस्लामी सरज़मीन पर कंट्रोल हासिल करने के लिए इस्तिमाल करने का इरादा रखता हो, क्योंकि शरह ने इस बात से मना किया है। इसी तरह अगरचे ख़लीफ़ा को ये मुकम्मल इख्तियार हासिल है कि वो बजट की तफ़सीलात तै करे और हर मद के लिए खास रक़म तय करने का फ़ैसला करे। ताहम इस के लिए ये जायज़ नहीं कि वो एक डैम बनाने के मंसूबे की मंज़ूरी दे जबकि बैतुलमाल  में मौजूद फ़ंड इस के लिए नाकाफ़ी हों औरवह डैम की तामीर के अख़राजात को पूरा करने के लिए लोगों पर टैक्स आइद करे। क्योंकि अगर डैम की तामीर नागुज़ीर (लाज़मी) ना हो तो शरह उस की तामीर की ख़ातिर लोगों पर टैक्स आइद करने को जायज़ क़रार नहीं देती ।


पस ख़लीफ़ा को इस के मुताबिक़ लोगों के उमूर की देख भाल का इख्तियार हासिल है, जिस की शरह ने इजाज़त दी है। और ये देख भाल शरई अहकामात के मुताबिक़ ही अंजाम दी जा सकती है। इलावा अज़ीं हुकूमत को चलाने में मुतलक़ इख्तियार रखने का मतलब ये नहीं कि ख़लीफ़ा रियासत के मुआमलात को चलाने के लिए जैसा क़ानून चाहे बना सकता है। बल्कि इस से मुराद ये है कि जो चीज़ उस की सवाबदीद पर छोड़ी गई है, वो ऐसे मुबाह उमूर हैं जिन में वो अपनी राय और मर्ज़ी के मुताबिक़ दखल अंदाज़ी कर सकता है। लिहाज़ा वो इन मुआमलात में क़वानीन की तबन्नी कर सकता है जिन में शरह ने उसे अपनी राय के मुताबिक़ अमल करने की इजाज़त दी है और उन क़वानीन की इताअत करना लोगों पर वाजिब होता है। क्योंकि ये शरह ही है जिस ने ख़लीफ़ा को इन मुआमलात में अपनी राय के मुताबिक़ अमल करने का इख्तियार दिया है और शरह ने ही हमें उस की इताअत करने का हुक्म दिया है।

लिहाज़ा ख़लीफ़ा को ये हक़ हासिल है कि वो अपनी तबन्नी शूदा आरा (राय) को लोगों पर बतौर-ए-क़ानून नाफ़िज़ करे और लोग इन क़वानीन की पाबंदी करें। मिसाल के तौर पर ख़लीफ़ा को ये इजाज़त है कि वो अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ बैतुलमाल  से मुताल्लिक़ उमूर का इंतिज़ाम करे और लोगों पर लाज़िम है कि वो उस की इताअत करें । पस उसे ये हक़ हासिल है कि वो बैतुलमाल  से मुताल्लिक़ क़वानीन का इजरा (संचालन) करे, जिन पर अमल किया जाये। उसे ये इख्तियार भी हासिल है कि वो अफ़्वाज (फौजों) की सरबराही करे और अफ़्वाज के मुआमलात अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ चलाए और उन क़वानीन का इजरा (संचालन) करे जिन के मुताबिक़ फ़ौज का इंतिज़ाम चलाए जाये और उन क़वानीन की पाबंदी लाज़िम क़रार पाएगी। ख़लीफ़ा को ये हक़ भी हासिल है कि वो मुख़्तलिफ़ इदारों (विभिन्न संस्थाओ) और उन के मुलाज़मीन के लिए क़वानीन का इजरा (संचालन) करे और ये क़वानीन भी लोगों के लिए वाजिब-ए-इताअत होंगे।

लिहाज़ा हर वो मुआमला जो कि ख़लीफ़ा की मार्ग दर्शन पर छोड़ा गया है कि वो इस में अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ फ़ैसला करे और इस का ताल्लुक़ ख़लीफ़ा के लाज़िमी इख्तियारात से हो, इन तमाम मुआमलात में ख़लीफ़ा को क़वानीन की तबन्नी करने और इन्हें नाफ़िज़ करने का इख्तियार हासिल है और उन क़वानीन के मुताबिक़ अमल करना लाज़िमी है ।

ये कहना दुरुस्त नहीं कि ये क़वानीन असालीब (शैली/ढंग) से मुताल्लिक़ हैं और तमाम असालीब मुबाहात में से होते हैं और तमाम मुसलमानों के लिए ये असालीब मुबाह हैं कि वो इन में से जिसे चाहे इख्तियार करें और ख़लीफ़ा के लिए ये जायज़ नहीं कि वो किसी मख़सूस उस्लूब को सहायक बनाए और लोगों के लिए इस पर अमल करने को वाजिब क़रार दे, क्योंकि ऐसा करना मुबाह अमल को लाज़िम बनाना है और किसी मुबाह अमल को लाज़िम करना उसे फ़र्ज़ क़रार देना है और ये बाक़ी असालीब से मना करना यानी उन्हें हराम क़रार देने के मुतरादिफ़ (प्रयायवाची) है, जो कि जायज़ नहीं। ये कहना इस लिए दुरुस्त नहीं क्योंकि अगरचे असालीब, असालीब होने के नाते, मुबाहात में से हैं; लेकिन मिसाल के तौर पर बैतुलमाल  का इंतिज़ाम करने के असालीब सिर्फ़ ख़लीफ़ा के लिए मुबाह हैं, बाक़ी लोगों के लिए नहीं। इसी तरह फ़ौज का इंतिज़ाम करने के असालीब ख़लीफ़ा के लिए मुबाह हैं, बाक़ी लोगों के लिए नहीं।


यही मुआमला इस्लामी रियासत के बाशिंदों के उमूर की देख भाल का है। ये सब सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़लीफ़ा के लिए मुबाह हैं। मुबाह पर अमल को लाज़िम क़रार देना मुबाह अमल को फ़र्ज़ बनाना नहीं, बल्कि ये इन मुआमलात में इताअत को लाज़िम क़रार देना है ,शरह ने ख़लीफ़ा को अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ जिन के तसर्रुफ़ का इख्तियार दिया है यानी वो लोगों के मुआमलात की देख भाल के लिए अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ उस्लूब इख्तियार करे। लिहाज़ा अगरचे ये असालीब मुबाहात में से हैं जिन के निफाज़ को ख़लीफ़ा लाज़िम क़रार देता है और वो बाक़ी असालीब से मना करता है, लेकिन ये सिर्फ़ ख़लीफ़ा के लिए मुबाह है कि वो लोगों के मुआमलात को इन असालीब के मुताबिक़ चलाए क्योंकि लोगों के उमूर की देख भाल करना ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी है और उमूर की देख भाल अवामुन्नास के लिए मुबाह नहीं है। लिहाज़ा उन मुबाहात की पाबंदी , जो ख़लीफ़ा लोगों के मुआमलात की देख भाल के लिए इख्तियार करता है और जिस में शरह ने उसे अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ अमल करने का इख्तियार दिया है, का मतलब ये नहीं है कि ख़लीफ़ा ने मुबाह को फ़र्ज़ बना दिया है और दूसरे मुबाहात को हराम कर दिया है। बल्कि ये इन मुआमलात में इताअत को लाज़िम बनाना है जिन में शरह ने ख़लीफ़ा को उस की राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ क़वानीन का इजरा (संचालन) करने की इजाज़त दी है।


लिहाज़ा हर उस मुबाह बात पर अमल करना रियासत के तमाम बाशिंदों पर लाज़िम होता है, जिसे ख़लीफ़ा लोगों के मुआमलात की देख भाल के लिए इख्तियार करे, इसी बिना पर उमर (رضي الله عنه) ने दीवान मुक़र्रर फ़रमाए और इसी बुनियाद पर खुलफा ने आमिलीन और रियाया के लिए ज़ाब्ते मुक़र्रर किए और उन्हें इन ज़वाब्त (क़वानीन) पर अमल करने का पाबंद किया और सिर्फ़ उन्हीं को इख्तियार करने पर कारबन्द किया। चुनांचे ख़लीफ़ा के लिए ये जायज़ है कि वो इंतिज़ामी क़वानीन और इसी नौईयत के दूसरे क़वानीन वज़ा करे। इन क़वानीन में ख़लीफ़ा की इताअत वाजिब होगी क्योंकि ये इन मुआमलात में ख़लीफ़ा की इताअत है जिसे शरह ने ख़लीफ़ा की सवाबदीद पर छोड़ा है।

ताहम ये सिर्फ़ उन मुबाहात से मुताल्लिक़ है जिन का ताल्लुक़ लोगों के मुआमलात की देख भाल से है यानी वो तमाम मुआमलात जिन्हें ख़लीफ़ा अपनी राय और इज्तिहाद के मुताबिक़ निबटा सकता है, जैसे कि रियासती इदारों का इंतिज़ाम व तनज़ीम ,अफ़्वाज की तंज़ीम और इस तरह के दूसरे मुआमलात। इस का इतलाक़ तमाम मुबाह उमूर पर नहीं होता, बल्कि सिर्फ़ उन मुबाहात पर होता है जो ख़लीफ़ा के लिए ख़लीफ़ा होने के नाते मुबाह हैं। जहां तक दूसरे अहकामात का ताल्लुक़ है जैसे फ़र्ज़ , मंदूब, मुबाह ,मकरूह और हराम ,ये तमाम लोगों के लिए हैं ,और ख़लीफ़ा इन में अहकाम-ए-शरीयत का पाबंद होता है और इस के लिए शरई अहकाम की ख़िलाफ़वरज़ी करना क़तअन हराम है, क्योंकि बुख़ारी और मुस्लिम ने आयशा (رضي الله عنها) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

))من أحدث في أمرنا ہذا مالیس منہ فہو رد((
जो कोई भी हमारे मुआमले (दीन) में कोई नई चीज़ दाख़िल करे जो इस का हिस्सा नहीं तो वो रद्द है।

ये आम नस है और इस का इतलाक़ ख़लीफ़ा समेत तमाम लोगों पर होता है।

ख़लीफ़ा क़वानीन को इख्तियार करने में अहकाम-ए-शरीयत का पाबंद होता है:

ख़लीफ़ा क़वानीन को इख्तियार करने में अहकाम-ए-शरीयत का पाबंद होता है लिहाज़ा इस के लिए हराम है कि वो किसी ऐसे हुक्म की तबन्नी करे जिसे शरई अदिल्ला (दलाईल) से सही तौर पर मुस्तम्बित (परीणाम प्राप्त) ना किया गया हो। वो अपने तबन्नी करदा क़वानीन पर अमल करने का भी पाबंद है और वो इस तरीक़े का भी पाबंद है जो इस ने इज्तिहाद के लिए इख्तियार किया। चुनांचे ख़लीफ़ा के लिए जायज़ नहीं कि वो कोई ऐसा क़ानून इख्तियार करे जिसे ऐसे तरीक़े से मुस्तंबित किया गया हो जो इस के तबन्नी करदा तरीक़े के टकराता हो और ना ही ख़लीफ़ा कोई ऐसा हुक्म जारी कर सकता है जो इन क़वानीन से टकराता हो, जिस की उस ने तबन्नी की है।

यहां दो बातें गौर करने की हैं (पहली): ख़लीफ़ा का क़वानीन की तबन्नी में अहकाम-ए-शरीयत का पाबंद होना यानी ख़लीफ़ा क़वानीन की तशरीअ और निफाज़ में इस्लामी शरीयत में मुक़य्यद होता है। इस के लिए जायज़ नहीं कि वो अहकाम-ए-शरीयत के ख़िलाफ़ कोई क़ानून इख्तियार करे क्योंकि कोई भी ऐसा क़ानून जो शरीयत के बरख़िलाफ़ हो वो कुफ्रिया क़ानून है। अगर वो जानबूझ कर किसी ऐसे क़ानून की तबन्नी करे जिसे शरीयत से अख़ज़ ना किया गया हो तो इस मुआमले का जायज़ा लिया जाएगा। अगर वो इस क़ानून पर एतिक़ाद (पूरा यक़ीन) रखता हो तो वो काफ़िर बन जाएगा। अगर वो इस क़ानून पर एतिक़ाद तो ना रखता हो मगर वो इस फ़हम की बुनियाद पर ऐसे क़ानून को इख्तियार करे कि ये क़ानून इस्लाम से टकराता नहीं,

जैसा कि उसमानी खुलफा ने अपने आख़री दौर में किया, तो ऐसा करना इस के लिए हराम होगा और वो काफ़िर नहीं बनेगा। ताहम अगर ख़लीफ़ा किसी शुबहा उल दलील की बुनियाद पर क़ानून की तबन्नी करे, जैसे कि ख़लीफ़ा किसी क़ानून का इजरा (संचालन) करे जिस की कोई शरई दलील ना हो लेकिन वो समझता हो कि इस में मस्लिहत है, और वो इस क़ानून के लिए (مصالح المُرسلۃ یا مآلات الافعال یا سدالذرائع) या इसी तरह के किसी और क़ाअदे को इख्तियार करे, तो अगर वो इन क़वाइद को शरई क़वाइद और शरई दलील तसव्वुर करता हो तो इस क़ानून का इजरा (संचालन) इस के लिए नाजायज़ ना होगा और ना ही वो ऐसा करने से काफ़िर बनेगा अलबत्ता वो ख़ता पर होगा। लिहाज़ा तमाम मुसलमानों की नज़र में ये एक शरई हुक्म होगा और अगर ख़लीफ़ा इस हुक्म की तबन्नी करे तो मुसलमानों पर उस की इताअत करना वाजिब होगा। ये इस वजह से है क्योंकि ये एक हुक्म शरई है जिस के लिए शुबह अल दलील मौजूद है। अगरचे ख़लीफ़ा ने दलील के मुआमले में ख़ता की पस वो उस शख़्स की मानिंद है जिस ने दलील से हुक्म के इस्तिंबात (deduction) में ग़लती की। ताहम ख़लीफ़ा के लिए लाज़िम है कि वो हर हाल में क़वानीन की तबन्नी में इस्लामी शरीयत की पाबंदी करे और वो तबन्नी करने में इन अहकाम-ए-शरीयत का पाबंद होता है जिन्हें शरई दलायल से सही तरीक़े से मुस्तंबित (deduce/प्राप्त)  किया गया हो। इस के दलायल दर्ज जे़ल हैं:

1: अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ख़लीफ़ा समेत तमाम मुसलमानों पर फ़र्ज़ किया है कि वो तमाम अफ़आल अहकाम-ए-शरीयत के मुताबिक़ अंजाम दें, अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

فَلاَوَ رَبِّکَ لَا یُؤمِنُوْنَ حَتّٰی یُحَکِّمُوْکَ فِیْمَا شَجَرَ بَیْنَھُمْ
(मुहम्मद صلى الله عليه وسلم) आप के रब की क़सम! ये उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकते जब तक ये आप صلى الله عليه وسلم को अपने बाहमी इख़तिलाफ़ात में फ़ैसला करने वाला ना बना लें
(अन्निसा: 65)

जब शारे के ख़िताब के मुतअद्दिद (कईं) मफ़हूम (अर्थ) हों यानी जब शरई अहकाम मुतअद्दिद हों तो अहकाम-ए-शरीयत के मुताबिक़ अमल करने के लिए लाज़िम है कि मुसलमान एक मुईन (स्थिर) हुक्म इख्तियार करे। लिहाज़ा जब मुसलमान किसी फे़अल का इरादा करे यानी जब वो किसी हुक्म को इख्तियार करना चाहते हों तो उस के लिए वाजिब है कि वो मुतअद्दिद अहकामात में से एक मख़सूस हुक्म को इख्तियार करे। ये बात ख़लीफ़ा पर भी वाजिब है, जब वो हुकूमत करने का फे़अल अंजाम दे।

2: ख़लीफ़ा को दी जाने वाली बैअत के अल्फाज़ इस पर लाज़िम करते हैं कि वो इस्लामी शरीयत की पाबंदी करे, क्योंकि ये बैअत किताब-ओ-सुन्नत पर बैअत है। लिहाज़ा इस के लिए क़ुरआन-ओ-सुन्नत को पस-ए-पुश्त डालना हराम है, और अगर वो इस पर एतक़ादन ऐसा ना करे तो तब भी वो फ़ासिक़ , ज़ालिम और गुनाहगार होगा।

3: ख़लीफ़ा का तक़र्रुर शरीयत के निफाज़ के लिए किया जाता है, लिहाज़ा ख़लीफ़ा के लिए ये जायज़ नहीं कि वो मुसलमानों पर हुकूमत के लिए शरीयत के इलावा किसी और चीज़ की तरफ़ रुजू करे। क्योंकि शरीयत ने इस बात को क़तअन हराम क़रार दिया है, इस हद तक कि जो शख़्स इस्लाम के इलावा किसी और बुनियाद पर हुकूमत करे इस के ईमान की नफ़ी की गई है जो कि इस हुक्म के क़तई होने का क़रीना है। इस के मआनी ये हैं कि ख़लीफ़ा क़वानीन की तबन्नी करने में सिर्फ़ अहकाम-ए-शरीयत का पाबंद होता है यानी वो क़वानीन के निफाज़ में सिर्फ़ और सिर्फ़ शरीयत का इल्तिज़ाम करने का पाबंद होता है और अगर वो शरीयत के इलावा कोई और क़ानून नाफ़िज़ करे और इस पर एतिक़ाद भी रखता हो तो वो एक कुफ्रिया अमल करेगा और अगर वो इस पर एतिक़ाद ना रखता हो तो वो गुनाहगार और ज़ालिम और फ़ासिक़ ठहरेगा । ये तीन दलायल पहली बात के ज़िमन में थे।

(दूसरी): जहाँ तक दूसरी बात का ताल्लुक़ है कि ख़लीफ़ा अपने तबन्नी शूदा क़वानीन और अपने लिए मुक़र्रर करदा तरीक़ा-ए-इस्तिंबात का पाबंद होता है, तो उस की दलील ये है कि ख़लीफ़ा जिस हुक्मे शरई को नाफ़िज़ करता है वो इस के लिए हुक्म शरई होता है और ये किसी दूसरे के हक़ में हुक्म शरई नहीं होता। दूसरे लफ़्ज़ों में ये वो हुक्म शरई है जिसे इस ने इसलिए इख्तियार किया ताकि वो अपने काम को इस हुक्म के मुताबिक़ अंजाम दे और ये महज़ कोई सा भी हुक्म शरई नहीं। यानी जब ख़लीफ़ा किसी हुक्म का इस्तिंबात करता है या किसी हुक्म की तक़लीद करता है तो ये हुक्म शरई इस के लिए अल्लाह का हुक्म होता है और वो इस हुक्म को तमाम मुसलमानों के लिए इख्तियार करने का पाबंद होता है और इस के लिए इस हुक्म के ख़िलाफ़ कोई क़ानून इख्तियार करना जायज़ नहीं होता। क्योंकि कोई और हुक्म ख़लीफ़ा के हक़ में अल्लाह का हुक्म नहीं होता यानी वो इसके लिए हुक्म शरई नहीं होता पस वो मुसलमानों के लिए भी हुक्म शरई नहीं होता।
लिहाज़ा ख़लीफ़ा अपनी रियाया के लिए जारी करदा क़वानीन में इन अहकाम-ए-शरई का पाबंद होता है, जिन्हें इस ने इख्तियार किया हो। पस इस के लिए जायज़ नहीं कि वो कोई ऐसा हुक्म सादर करे जो इस के तबन्नी करदा क़वानीन से मुतसादिम (उल्टा) हो क्योंकि ये हुक्म इस के हक़ में अल्लाह का हुक्म ना होगा। लिहाज़ा ये इस के लिए हुक्म शरई नहीं होगा और इस बिना पर ये मुसलमानों के लिए भी हुक्म शरई नहीं होगा। बल्कि ये ऐसी सूरत-ए-हाल होगी कि गोया इस ने हुक्म शरई के बरख़िलाफ़ हुक्म जारी किया। चुनांचे ख़लीफ़ा के लिए ये जायज़ नहीं कि वो अपने तबन्नी करदा क़वानीन के बरख़िलाफ़ कोई हुक्म जारी करे।



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