तरीक़े से मुताल्लिक़ इस्लामी अहकामात को बिगाड़ने में मग़रिबी तहज़ीबी का किरदार

इस्लाम के निफाज़ के तरीक़े को बिगाडने मे मग़रिबी तहज़ीब का किरदार
इस मौजूदा ज़माने की हक़ीक़त ये है कि मुसलमानों को मग़रिबी काफ़िरों की जानिब से ज़बरदस्त तहज़ीबी यलग़ार (intellectual invasion) का सामना हुआ जिसमें वो मुसलमानों की सोच पर मग़रिबी सोच को ग़लबा दिलाने की मुसलसल जद्दो-जहद कर रहे थे बिलआख़िर इसमें कुफ़्फ़ार मुसलमानों को इस्लाम के सही और वास्तविक समझ से दूर करने में कामयाब हुए । जिसके नतीजे में मुसलमान इस्लाम की ऐसी तावीलात (interpretion) करने लगे जो पश्चिमी विचारों के उन उसूल और क़वाइद (principles) की हिमायत करते थे जो उसूल और क़वाइद दीन को दुनिया से अलग करने के अक़ीदा के आधार पर मग़रिबी दुनिया को हासिल हुए थे । एक मर्तबा जब मुसलमानों में सोचने का ढंग मग़रिबी कुफ़्फ़ार की सोच से प्रभावित होकर उनकी राह पर चलने लगा तो मुसलमानों में इस फ़िक्री तब्दीली ने मग़रिब के लिए उसकी जंग का अगला मरहला आसान कर दिया जो उसने इस्लामी जीवन व्यवस्था के ख़िलाफ़ छेड़ी हुई थी ये दूसरा मरहला मुसलमानों की ज़िंदगी से इस्लाम को निकालना था। मुसलमानों की ज़िंदगी से इस्लाम को निकालने की अमली तदबीर थी कि इस्लामी निज़ाम ज़िंदगी को संघटित और पुख़्तगी देने वाली ख़िलाफ़त को बर्बाद कर दिया जाये, जिसमें वो कामयाब हुए और यूं मग़रिबी कुफ़्फ़ार एक ख़िलाफ़त को ध्वस्त करके उसको चालीस से ज़्यादा तथा कथित आज़ाद रियासतों में बांटने में कामयाब हुआ । फिर मग़रिब ने इनमें से हर रियासत में अपना एक पिठ्ठू हुक्मरान मुक़र्रर किया जो मग़रिब की मर्ज़ी से चलता था वो जैसा चाहते वो उसकी मुकम्मल तामील करता । मुसलमानों में से उन बाग़ी ग़द्दारों को इस बुनियाद पर हुक्मरान मुक़र्रर किया गया ताकि वो मग़रिब के मफ़ादात के लिए रियासत के संसाधनों पर मग़रिब के चौकीदार की हैसियत से क़ायम रहें और कोई संजीदा कोशिश जो इस ज़हनी और माद्दी गु़लामी (intellectual and materialistic slavery) के ख़िलाफ़ पैदा हो उसको कुचल कर रख दे, फिर मग़रिब ही ने इस हुक्मरान के लिए शासन व्यवस्था तैय्यार की और ज़राए इबलाग़ (means of propagations) को मुक़र्रर किया ताकि मग़रिब के विचारों के प्रचार और तशहीर के ज़रीये उसे लोगों में काबिले-क़बूल बनाया जाये, और फिर निज़ाम तालीम और तदरीसी निसाब (educational curricula) फ़राहम किया ताकि इस बात को निश्चित बनाया जाये कि हम मुसलमानों की नस्लों में से ऐसे अफ़राद पैदा हों जो विचारों में मग़रिब की ही पैरवी करते हों और उसको तरक़्क़ी याफ़्ता फ़िक्र ख़्याल करते हों या रोशन ख़्याली मानते हों यानी मग़रिब की फ़िक्री बरतरी को निश्चित बनाया गया । इन तमाम मंसूबों और दीगर हथकंडों से कुफ़्फ़ार मुसलमानों पर मुसल्लत हो गए और आज मुसलसल तौर पर इस्लाम को दुनिया में ज़िंदगी से दूर रखने में कामयाब नज़र आते हैं ।

इन हालात की वजह से मुसलमान हक़ को बातिल से अलग समझ नहीं पाते थे । उनके ख़्यालात और पश्चिमी विचारों से प्रभावित होते गए और मग़रिबी तर्ज़े-ज़िदंगी के नमूने पर उनके तर्ज़े-ज़िदंगी (way of life) की बुनियाद पड़ने लगी और मनफ़अत पर आधारित मग़रिबी तर्ज़े-ज़िदंगी को उन्होंने इख़्तियार कर लिया जिसमें माद्दा-परस्ती (भौतिकवाद/materialism) और मफ़ाद परस्ती ज़िंदगी के हर पहलू पर ग़ालिब हो गई यहाँ तक कि इस्लामी नज़रियाए हयात भी इससे प्रभावित हो गया । यूं उनके जज़्बात और एहसासात में वतनपरस्ती या क़ौमीयत, हुब्बुल-वतनी (patriotism), रुहानी जज़्बात तमाम शामिल होकर ख़लत-मलत हो गए, नतीजे में उनके और दीगर मुस्लिम क़ौमों के दरमयान आपसी रिश्ते और राब्ते टूट गए। मुसलमानों ने कुफ़्रिया निज़ामों की ताबेदारी क़बूल करी और जब इस्लामी रियासत मौजूद ना रही तो इसका उन्हें कोई हर्ज महसूस ना हुआ । इसके नतीजे में इस्लाम बाअज़ इन्फ़िरादी शरई अहकामात और निजी मामलात (पर्सनल लॉ) से संबधित बाअज़ अहकामात तक सिमट कर रह गया, दूसरे शब्दों में मुसलमानों की दुनियावी ज़िंदगी दीन से जुदा होने के लिहाज़ से अहले मग़रिब की तरह हो गई । यूं मुसलमानों का रिश्ता ज़मीन की ज़िंदगी से ज़्यादा गहरा हो गया और इनमें आसमान की ज़िंदगी की तलब ख़त्म हो गई।
 
इसका नतीजा ये हुआ कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) का क़ानून मुसलमानों के ख़िलाफ़ हरकत में आया जिससे कोई बच नहीं सकता, चुनांचे उनकी ज़िंदगीयां ग़ुर्बत से तंग हो गई, वो ज़ुल्म और मेहरुमी का शिकार हो गए, उनमें दीनी और दुनियावी दोनों क़िस्म के मामलात के बारे में जहालत आम हो गई । बुरे अख़्लाक़ और फ़ासिद ताल्लुक़ात में मुब्तिला हो गए ।
 
इस हक़ीक़त को सामने रखते हुए एक जमात पर लाज़िम है कि असल बीमारी और बीमारी के नुक़्सानदेह लक्षण के बीच में अंतर करे, जो उनके दर्मियान फ़र्क़ ना कर पाए और ये समझ बैठे कि ग़ुर्बत ही तमाम समस्याओं की जड़ है या यूं समझ ले कि बुनियादी मसला बुरे अख़ालक़ या जहालत है । तो ज़ाहिर है मुसलमानों के पास वो जुज़वी (आंशिक) काम की दावत यानी अधूरा हल ही लेकर आएगा जो मुसलमानों के असल मर्ज़ की बजाय इसके किसी एक नुक़्सानदेह लक्षण का ईलाज ढूंढेगा। जो (शख़्स या जमात) हालात को गहरी निगाह से देखेगा और बारीकबीनी से इसका अध्ययन करेगा तो उसके इल्म में ये बात आ जाएगी कि इस्लामी रियासत का ग़ैर मौजूद होना ही वो वाहिद बुनियादी समस्या है जिसके ख़ात्मे से मुसलमानों की ज़िंदगी से इस्लाम मिट गया और वो तबाह हुए, कुफ़्फ़ार के मातहत हो गए, उन पर इस समस्या के 
नुक़्सानदेह लक्षण जैसे जहालत, ग़ुर्बत और ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी फैल गए। मुसलमानों की अमली ज़िंदगी में इस्लाम को दुबारा लाने के लिए इस जमात की ज़िम्मेदारी है कि इस बात को जान ले कि इसने दारुल-कुफ़्र को दारुल-इस्लाम में तब्दील करना है जिसमें आज मुसलमान ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं इस दारुल-इस्लाम में जहां मुसलमान तमाम इस्लामी अहकामात की पाबंदी कर सकेंगे और पूरे इस्लाम में दाख़िल होंगे। इस पर लाज़िम है कि मौजूदा ग़ैर इस्लामी समाज को एक इस्लामी समाज में बदले जिसमें अफ़राद इस्लाम के अफ़्क़ार पर ईमान रखते हों और उनके जज़्बात और एहसासात इस्लाम से जुड़ते हों और उनकी ज़िंदगीयों के अमली क़ानून दरअसल इस्लामी अहकामात हों और वो अपने मामलात के फ़ैसला इस्लाम के निज़ाम के तहत करते हों तब तस्लीम किया जाएगा कि अल्लाह (سبحانه وتعالى) की ज़मीन में पूरा इस्लाम मुकम्मल क़ायम किया गया है।
 
चुनांचे अब सामने मक़सद वाज़ेह हो चुका होगा जो दारुल-इस्लाम को क़ायम करने की जद्दो-जहद है और एक ऐसी इस्लामी रियासत के क़याम की कोशिशें हैं जो इस इस्लामी अक़ीदे पर क़ायम होगी जिस अक़ीदे से ज़िंदगीयों को गुज़ारने के लिए इस्लाम के मुख़्तलिफ़ निज़ामे ज़िंदगी निकलते हैं जिन निज़ामों की हदों में रहते हुए मुसलमान इस्लाम के तरीक़े के मुताबिक़ दुनिया की अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ारते हैं जहां मुसलमान अल्लाह (سبحانه وتعالى)  के हुक्म और मना को बजा लाते हुए इस्लामी ज़िंदगी बसर करेंगे ।

जिस वक़्त एक जमात ने ये मक़सद निर्धारित कर दिया इसके बाद उसके लिए इस शरई तरीक़े पर बेहस करने की तरफ़ जाना मुम्किन हो सकेगा जिस पर कारबन्द होना इसके लिए लाज़िम है और इस तरह वोह शरई आमाल भी निर्धारित होगे जिनकी पाबंदी इस मक़सद को हासिल करने के लिए इस पर फ़र्ज़ आइद होती है। इसको समझने के लिए रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के उस दौर की तरफ़ नज़र डालना चाहिए जब आप  मक्का में रहा करते थे जो उस वक़्त दारुल-कुफ़्र हुआ करता था, जहां रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का तरीक़ा रौनुमा हो रहा था और आप (صلى الله عليه وسلم) की दावत धीरे धीरे खुले आम दावत बनने लगी थी, इसी दौर से आप (صلى الله عليه وسلم) के अफ़आल से एक जमात को अपना तरीक़ा, अमल और मराहिल (stages/चरण) मालूम हो सकते हैं ।
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