हुक्मरानों का एहतिसाब करना मुसलमानों पर फर्ज़ है

हुकमरानों का मुहासिबा करना मुसलमानों पर फ़र्ज़ है । हुक्मरान के ज़ुल्म करने और लोगों के हुक़ूक़ हडप करने के बावजूद उस की इताअत के वाजिब होने का मतलब ये नहीं कि मुसलमान इस के इस अमल पर ख़ामोश रहें । बल्कि इस से मुराद ये है कि हुक्मरान की इताअत करना फ़र्ज़ है और इस के अफ़आल पर इन का एहतिसाब करना भी फ़र्ज़ है।

अल्लाह (سبحانه وتعال) ने मुसलमानों को अपने हुक्मरानों का एहतिसाब करने का हुक्म दिया है और सख़्ती से इस बात का मुतालिबा किया है कि अगर हुक्मरान लोगों के हुक़ूक़ ग़सब करें या अवाम से मुताल्लिक़ आइद होने वाली ज़िम्मेदारीयों को पूरा ना करें या उम्मत के मुआमलात से ग़फ़लत बरतें या इस्लाम के हुक्मों को तोड़ें या अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के अलावा कोई और चीज़ नाफ़िज़ करें तो मुसलमान उन्हें चैलेंज करें और उन का मुहासिबा करें। मुस्लिम ने उम्मे सलमा رضي الله عنها    से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((ستکون أمراء فتعرفون وتنکرون، فمن عرف برء، ومن أنکرسلم، ولکن من رضي وتابع، قالوا أفلانقاتلھم؟قال:لا،ماصلّوْا))

ऐसे अमीर होंगे जिन के (बाअज़ कामों को) तुम मारूफ़ पाओगे और (बाअज़ को) मुनकिर। तो जिस ने (इन कामों को) पहचान लिया वो बरी हुआ और जिस ने इनकार किया वो (गुनाह से) महफ़ूज़ रहा। लेकिन जो राज़ी रहा और ताबेदारी की (वो बरी हुआ ना महफ़ूज़ रहा)। पूछा गया: या रसूलुल्लाह  صلى الله عليه وسلم क्या हम उन्हें तलवार के ज़रीए बाहर ना निकाल फेंकें?  आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया : नहीं, जब तक कि वो नमाज़ पढ़ते रहें

मुस्लिम की एक और हदीस में है :
(( فمن کرہ فقد برء، و مَن أنکر فقد سلم، و لکن مَن رضي و تابع))

तो जिस ने बुरा जाना वो बरी हुआ और जिस ने इनकार किया वो (गुनाह से) महफ़ूज़ रहा। लेकिन जो राज़ी रहा और ताबेदारी की (वो बरी हुआ ना महफ़ूज़ रहा)

ये रिवायत गुज़शता रिवायत की वज़ाहत करती है । रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ऐसे  हुक्मरान के इस काम का इंकार करने का हुक्म दिया और इस बात को वाजिब क़रार दिया ख़ाह इस का इज़हार किसी भी तरीके से किया जाये, सिवाए ये कि हुक्मरान के ख़िलाफ़ हथियार उठाए जाएं। यानी जब तक हुक्मरान से कुफ्रे बुवाह ज़ाहिर ना हो उसके ख़िलाफ़ हथियार ना उठाए जाएं और अपनी ज़बान से इस के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की जाये । और अगर कोई शख़्स इस के ख़िलाफ़ हाथ या ज़बान इस्तिमाल करने की इस्तिताअत ना रखता हो तो वो दिल में इस अमल को बुरा जाने । आप صلى الله عليه وسلم   ने उस शख़्स को हाकिम के गुनाह में शरीक क़रार दिया जो इस के आमाल का इनकार ना करे क्योंकि आप ने ये बताया कि अगर कोई शख़्स हुक्मरान के बुरे आमाल को क़बूल करे और इस अमल में उस की इत्तिबा करे तो वो बर्बाद हो जाएगा और गुनाह से बरी ना होगा।
मारूफ़ का हुक्म देने और मुनकिर से मना करने से मुताल्लिक़ नुसूस हुक्मरान का मुहासिबा करने पर भी दलालत करती हैं । क्योंकि ये नुसूस आम हैं जिस में हुक्मरान और दूसरे लोग सब शामिल हैं।  अल्लाह (سبحانه وتعال) ने नेकी का हुक्म देने और बुराई से मना करने का हुक्म  क़त्ई अंदाज़ में दिया है। चुनांचे इरशाद हुआ:

وَلۡتَكُن مِّنكُمۡ أُمَّةٌ۬ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلۡخَيۡرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۚ وَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ
और तुम में एक जमात ऐसी ज़रूर होनी चाहिए जो ख़ेर की तरफ़ दावत दे । और अम्र   बिल मारुफ़ और नहीं  अनिल मुंकर का काम करे । और दरहक़ीक़त यही लोग कामयाब हैं

(आल-ए-इमरान:104)
और फ़रमाया:

كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ أُخۡرِجَتۡ لِلنَّاسِ تَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَتَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنڪَرِ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِۗ
तुम बहतरीन उम्मत हो जो लोगों के लिये उठाए गए हो तुम नेकी का हुक्म देते हो और बुराई से मना करते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो
(आल-ए-इमरान:110)

और फ़रमाया:
ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلرَّسُولَ ٱلنَّبِىَّ ٱلۡأُمِّىَّ ٱلَّذِى يَجِدُونَهُ ۥ مَكۡتُوبًا عِندَهُمۡ فِى ٱلتَّوۡرَٮٰةِ وَٱلۡإِنجِيلِ يَأۡمُرُهُم بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡہَٮٰهُمۡ عَنِ ٱلۡمُنڪَرِ
जो लोग ऐसे रसूल नबी उम्मी की इत्तिबा करते हैं जिन के मुताल्लिक़ वो अपने पास तौरात-ओ-इंजील में लिखा हुआ पाते हैं वो उन्हें नेक बातों का हुक्म देते हैं और बुरी बातों से मना करते हैं
(अल आराफ़:157)

और फ़रमाया:
ٱلتَّـٰٓٮِٕبُونَ ٱلۡعَـٰبِدُونَ ٱلۡحَـٰمِدُونَ ٱلسَّـٰٓٮِٕحُونَ ٱلرَّٲڪِعُونَ ٱلسَّـٰجِدُونَ ٱلۡأَمِرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَٱلنَّاهُونَ عَنِ ٱلۡمُنڪَرِ وَٱلۡحَـٰفِظُونَ لِحُدُودِ ٱللَّهِۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ
तौबा करने वाले, इबादत करने वाले, हम्द करने वाले, रोज़ा रखने वाले, रुकू और सजदा करने वाले, नेक बातों का हुक्म देने वाले और बुरी बातों से रोकने वाले और अल्लाह (سبحانه وتعال) की हदूद का ख़्याल रखने वाले , और ऐसे मोमिनीन को आप ख़ुशख़बरी दे दीजिए
(अत्तौबा:112)

और फ़रमाया:
ٱلَّذِينَ إِن مَّكَّنَّـٰهُمۡ فِى ٱلۡأَرۡضِ أَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّڪَوٰةَ وَأَمَرُواْ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَنَهَوۡاْ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۗ
ये वो लोग हैं कि अगर हम उन्हें ज़मीन में इक़तिदार अता करें तो ये नमाज़ क़ायम करें ज़कात दें और नेकी का हुक्म दें और बुराई से मना करें
(अल-हज्ज:41)

इन तमाम आयात में मारूफ़ का हुक्म देने और मुन्किर से मना करने की तलब मौजूद है और इस तलब को ऐसे क़राईन से मुंसलिक किया गया है जो इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि ये तलब क़तई है । क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

            وَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ
और यही लोग फ़लाह पाने वाले हैं
 كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ
तुम बहतरीन उम्मत हो
और
وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ
मोमिनीन के लिये बशारत है

ये सब क़राइन ये बताते हैं कि अम्र बिल मारुफ़ और नहीं अनिल कर की तलब, तलब-ए-जाज़िम है यानी ये काम फ़र्ज़ है। हुक्मरानों का एहतिसाब करना मारूफ़ का हुक्म देना और मुंकर से रोकना है, पस ये अमल फ़र्ज़ है।

इसके अलावा मुतअद्दिद (कईं) अहादीस वारिद हुई हैं जो कि अम्र बिल मारुफ़ और नहीं  अनिल मुंकर की फ़र्ज़ीयत पर दलालत करती हैं । हुज़ैफ़ा बिन यमान (رضي الله عنه) ने रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((والذي نفسي بیدہ لتأمرنّ بالمعروف فإن ولتنھَوُنَّ عن المنکر، أو لیوشکنَّ اللّٰہ أن یبعث علیکم عقاباً من عندہ، ثم لتدعنَّہ فلا یستجیب لکم))
उस ज़ात की क़सम जिस के क़ब्ज़े में मेरी जान है तुम ज़रूर बिल ज़रूर अम्र बिल मारुफ़ और नहीं अनिल मुंकर करोगे वरना ख़तरा है कि अल्लाह तुम पर अपनी तरफ़ से अज़ाब नाज़िल कर दे फिर तुम उसे पुकारो लेकिन वो तुम्हारी दुआ क़बूल ना करे

अबू सईद ख़ुदरी (رضي الله عنه) फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह (स0) ने इरशाद फ़रमाया:

((من رأی منکم منکراً فلیغیرہ بیدہ فإن لم یستطع فبلسانہ، فإن لم یستطع فبقلبہ و ذلک أضعف الایمان))
तुम में से जो कोई भी किसी मुनकिर को देखे तो उसे हाथ से तब्दील कर दे और अगर उस की इस्तिताअत ना रखता हो तो अपनी ज़बान से तब्दील कर दे और अगर उस की भी ताक़त ना रखता हो तो उसे दिल से (बुरा जाने) और ये ईमान का कमज़ोर तरीन दर्जा है
(मुस्लिम ने इस हदीस को रिवायत किया)

अहमद ने अदी बिन अदी इब्ने उमेरा अल किन्दी  से रिवायत किया कि मैंने रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم को ये फ़रमाते हुए सुना:

((ان اللّٰہ عزّوجلّ لا ےُعذب العامۃ بعمل الخاصۃ ، حتی یروا المنکر بین ظھرانیھم و ھم قادرون علی أن ینکروا فلا ینکرونہ فإذا فعلوا ذلک عذب اللّٰہ الخاصۃ والعامۃ))
बेशक अल्लाह चंद मख़सूस लोगों के अमल के नतीजे में सब लोगों को सज़ा नहीं देता जब तक कि वो अपने दरमियान मुनकिर देखें और वो इस का इनकार करने की क़ुदरत रखते हों मगर वो 
इनकार ना करें । जब उन्होंने ऐसा किया तो अल्लाह आम और ख़ास दोनों को सज़ा देगा

ये तमाम अहादीस अम्र बिल मारुफ़ और नहीं अनिल मुंकर की फ़र्ज़ीयत पर दलालत करती हैं। ये अहादीस इस बात पर भी दलालत करती हैं कि हुक्मरान को मारूफ़ का हुक्म देना और उसे मुनकिर से मना करना फ़र्ज़ है। और इस में कोई शक नहीं कि इस का मतलब ये है कि हुक्मरान का मुहासिबा किया जाये । इलावा अज़ीं इसी अहादीस भी वारिद हुई हैं जो बिलख़सूस हुक्मरानों से मुताल्लिक़ हैं ,जो हुक्मरानों का एहतिसाब करने की फ़र्ज़ीयत की तौसीक़ करती हैं और उन्हें मारूफ़ का हुक्म देने और मुनकिर से मना करने की अहमियत को वाज़िह करती हैं । अहमद ने अबू सईद ख़ुदरी (رضي الله عنه) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह (स0) ने इरशाद फ़रमाया:

((أفضل الجھاد کلمۃ حق عند سلطان جائر))
बहतरीन जिहाद जाबिर हुक्मरान के सामने कलिमा हक़ कहना है

अबू अमामा (رضي الله عنه) ने रिवायत किया:
((عرض لرسول اللّٰہ ﷺ رجل عند الجمرۃ الأولی فقال: یا رسول اللّٰہ أيُّ الجھاد أفضل؟ فسکت عنہ، فلما رمی الجمرۃ الثانےۃ سألہ، فسکت عنہ فلما رمي جمرۃ العقبۃ، ووضع رجلہ في الغَرْز لیرکب قال:((أین السائل؟)) قال : أنا یا رسول اللّٰہ، قال:((کلمۃ حق عند ذي سلطان جائر))

एक शख़्स रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के पास आया जब आप (स0) पहले जुमरा की तरफ़ कंकरियां फेंकने वाले थे, और कहा: या रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم! कौनसा जिहाद सब से अफ़ज़ल है । रसूलुल्लाह (स0) ख़ामोश रहे । जब आप صلى الله عليه وسلم ने दूसरे जुमरा पर कंकरियां फेंकी और उस शख़्स ने फिर सवाल किया लेकिन रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ख़ामोश रहे । जब रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने जुमरा उक़बा पर कंकरियां फेंकीं और रकाब में अपना पांव रखा तो आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया: सवाल करने वाला शख़्स कहाँ है । उस शख़्स ने जवाब दिया : ऐ अल्लाह के रसूल वो मैं हूँ। आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: ज़ालिम हुक्मरान के सामने कलिमा हक़ कहना
(अहमद और इब्ने माजा ने इस हदीस को रिवायत किया)

ये नुसूस हुक्मरानों के मुताल्लिक़ वाज़िह हैं और उन के सामने हक़ बात कहने की फ़र्ज़ीयत को साफ़ तौर पर बयान करती हैं। इस में हुक्मरानों का मुहासिबा करना, उसे हुक्मरानों के ख़िलाफ़ जद्द-ओ-जहद करना जो लोगों के हुक़ूक़ ग़सब करें या उम्मत से मुताल्लिक़ अपनी ज़िम्मेदारीयों से ग़फ़लत बरतें या उन के कुछ मुआमलात को नज़रअंदाज करें , शामिल है। ये एक फ़र्ज़ अमल है क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उसे फ़र्ज़ ठहराया और उसे जिहाद की मानिंद क़रार दिया , बल्कि बहतरीन जिहाद गरदाना , जब रसूलुल्लाह (स0) ने इरशाद फ़रमाया:

अल्लाह के नज़दीक बहतरीन जिहाद ज़ालिम हुक्मरानों के ख़िलाफ़ जद्द-ओ-जहद करना है। सिर्फ़ ये बात ही हुक्मरानों का मुहासिबा करने के वजूब की दलालत के लिये काफ़ी है।

रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने ज़ालिम हुक्मरान के ख़िलाफ़ जद्द-ओ-जहद करने की तरग़ीब दी है , ख़ाह इस राह में कितनी ही तकालीफ़ और अज़ियतें बर्दाश्त करनी पड़ें और ख़ाह इस का नतीजा जान की क़ुर्बानी ही क्यों ना हो। हाकिम ने जाबिर (رضي الله عنه) से  रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((سید الشہداء حمزۃ بن عبد المطلب، ورجل قام إلی إمام جائر فأمرہ و نھاہ فقتلہ))
शुहदा के सरदार हमज़ा बिन अब्दुल मुतल्लिब (رضي الله عنه) हैं और वो शख़्स भी जो जाबिर हुक्मरान के सामने खड़ा हो और उसे (नेकी का) हुक्म दिया और (बुराई से) मना किया और इस (हुक्मरान) ने उसे क़त्ल कर दिया

ये हक़ बात कहने , हुक्मरान का मुहासिबा करने और ज़ालिम हुक्मरानों के ख़िलाफ़ जद्द-ओ-जहद में अज़ियत बर्दाश्त करने की तरग़ीब के लिये बेहद साफ अल्फाज़ हैं।

वो हुक्मरान जिस से कुफ्र बुवाह ज़ाहिर हो इस से क़िताल करना वाजिब है:

हुक्मरान की इताअत से एक सूरते हाल मुस्तसना (बरी) है , और वो ये है जब हुक्मरान मासियत (गुनाह) का काम करने का हुक्म दे । इसी तरह हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज ना करने और इस के ख़िलाफ़ हथियार ना उठाने से एक सूरत-ए-हाल मुस्तसना है और वो ये है कि जब हुक्मरान से कुफ्र बवाह का ज़हूर हो। उसी सूरत-ए-हाल में हुक्मरान के ख़िलाफ़ लड़ना वाजिब है क्योंकि इस के मुताल्लिक़ शरई नुसूस वारिद हुई हैं। औफ़ बिन मालिक अलअशजई से मर्वी है कि मैंने रसूलुल्लाह  صلى الله عليه وسلم को ये फ़रमाते हुए सुना:

((خیارأ ئمتکم الذین تحبونھم ویحبونکم ‘ وتصلون علیھم ویصلون علیکم‘ وشرار أئمتکم الذین تبغضونھم ویبغضونکم وتلعنونھم ویلعنونکم، قال: قلنایارسول اللّٰہ أفلا ننابذھم عند ذلک؟ قال:لا، ما أقاموا فیکم الصلاۃ))

तुम्हारे लिए बेहतरीन इमाम वो हैं जिन से तुम मुहब्बत करो और वो तुम से मुहब्बत करें। वो तुम्हारे लिए दुआएं करें और तुम उन के लिए दुआएं करो और तुम्हारे बदतरीन इमाम वो होंगे जिन से तुम नफ़रत करो और वो तुम से नफ़रत करें और तुम उन पर लानत करो और वो तुम पर लानत करें । हम ने पूछा: ऐ अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم! हम उन के ख़िलाफ़ जंग ना करें । आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: नहीं, जब तक कि वो तुम्हारे दरमियान नमाज़ को क़ायम रखें
(मुस्लिम ने इस हदीस को रिवायत किया)

नमाज़ को क़ायम करने से मुराद इस्लाम के मुताबिक़ हुकूमत करना यानी अहकाम-ए-शरीयत को नाफ़िज़ करना है । यहां जुज़ को बोल कर कुल मुराद लिया गया है और अरबी ज़बान में ये अंदाज़-ए-बयान आम है। मिसाल के तौर पर अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:  (فَتَحْرِےْرُ رَقَبَۃٍ) गर्दन को आज़ाद करो जिस से मुराद है कि ग़ुलाम को आज़ाद करो यानी पूरे के पूरे ग़ुलाम को आज़ाद करो ना कि सिर्फ़ उस की गर्दन को। इस हदीस में रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया: 
                                           ((ما أقامو فیکم الصلاۃ))
जब तक कि वो तुम्हारे दरमियान नमाज़ को क़ायम रखें

इस से मुराद है कि तमाम शरई अहकामात को नाफ़िज़ करें ना कि सिर्फ़ नमाज़ के हुक्म को । ये मजाज़ी मआनी की क़िस्म है , जब जुज़ बोला जाता है और उस से मुराद कुल होता है। और मुस्लिम ने उम्मे सलमा (رضي الله عنها) से रिवायत किया कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه  وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

((ستکون أمراء فتعرفون وتنکرون، فمن عرف برء، ومن أنکرسلم، ولکن من رضي وتابع، قالوا أفلانقاتلھم؟قال:لا،ماصلّوْا))
 ऐसे उमरा होगें जिन के (बाअज़ कामों को) तुम मारूफ़ पाओगे और (बाअज़ को) मुनकिर। तो जिस ने पहचान लिया वो बरी हुआ और जिस ने इनकार क्या वो (गुनाह से) महफ़ूज़ रहा। लेकिन जो राज़ी रहा और ताबेदारी की (वो बरी हुआ ना महफ़ूज़ रहा) । पूछा गया: या रसूलुल्लाह (स0) ! क्या हम उन के ख़िलाफ़ क़िताल ना करें? आप (स0) ने फ़रमाया : नहीं, जब तक कि वो नमाज़ पढ़ते रहें

यानी वो अहकाम-ए-शरीयत को क़ायम करें जिन में से एक नमाज़ भी है । यहां जुज़ बोल कर कुल मुराद लिया गया है । और उबादा बिन सामित (رضي الله عنه) से  रिवायत है:

((دعانا رسول اللّٰہ ﷺ فبایعناہ فکان فیما أخذ علینا أن باےَعنا علی السمع و الطاعۃ فی منشطنا، ومکرھنا، وعُسرنا، وےُسرنا، وأثرۃ علینا، وأن لا ننازع الأمر أہلہ،قال: إلا أن تروا کفراً بَواحاً عندکم من اللّٰہ فیہ برہان))
रसूलुल्लाह (स0) ने हमें बुलाया तो हम ने आप صلى الله عليه وسلمके हाथ पर बैअत की। (उबादा ने) कहा कि रसूलुल्लाह (स0) ने हम से इन बातों पर बैअत ली कि हम पसंदीदा और ना पसंदीदा (अवामिर में ), मुश्किल और आसानी (की हालत ) में और अपने आप पर दूसरों को तरजीह दिये जाने की सूरत में भी सुनेंगे और इताअत करेंगे और हम अहले अम् के साथ तनाज़ा नहीं करेंगे। (इस पर आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया): मगर जब तक कि तुम कुफ्रे बुवाह (खुल्लम खुल्ला कुफ्र) देखो जिस के बारे में अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से तुम्हारे पास कोई बुरहान (क़तई दलील) मौजूद हो
(मुस्लिम ने इस हदीस को रिवायत किया )
इन तीनों अहादीस, यानी औफ़ बिन मालिक (رضي الله عنه) वाली हदीस, उम्मे सलमा (رضي الله عنها) और उबादा बिन सामित (رضي الله عنه) वाली हदीस ,का मौज़ू हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज है । ये अहादीस हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज से क़तई अंदाज़ में मना करती हैं:
((أفلا ننابذھم بالسیف ؟ قال : لا))

क्या हम उन्हें तलवार के ज़रीए निकाल बाहर ना करें। आप (स0) ने इरशाद फ़रमाया: नहीं
(( أفلا نقاتلھم ؟ قال: لا))

क्या हम उन से क़िताल ना करें। आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फ़रमाया: नहीं
(( و أن لا ننازع الأمر أہلہ))
और हम अहले अम्र के साथ तनाज़ा ना करेंगे

ये तमाम अहादीस बताती हैं कि हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज क़तअन मना है यानी उस की इजाज़त नहीं। इस के साथ ख़ुरूज की मुज़म्मत की गई है जो कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की इस हदीस से ज़ाहिर है:

((من خرج من الطاعۃ و فارق الجماعۃ فمات، مات میتۃ جاھلےۃ))
जिस ने हुक्मरान की इताअत से हाथ खींचा और जमात से जुदा हुआ तो वो जाहिलियत की मौत मरा
(इस हदीस को नसाई ने अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से  रिवायत किया)

लिहाज़ा ये मुमानअत क़तई है क्योंकि इस हदीस में बयान किया गया कि जो हुक्मरान की इताअत से हाथ खींचता है और इस के ख़िलाफ़ ख़ुरूज करता है उस की मौत जाहिलियत की मौत है। ये इस बात का करीना है कि इस फे़अल की मुमानअत क़तई है । पस ये अहादीस इस बात की दलील हैं कि हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज हराम है

ताहम एक मुआमले को इस से बरी रखा गया है जो कि पहली और दूसरी हदीस में बयान किया गया यानी नमाज़ को क़ायम ना करना और नमाज़ ना पढ़ना यानी अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ हुकूमत ना करना यानी कुफ्रिया क़वानीन के ज़रीए हुकूमत करना ,जो एक ऐसा मुआमला है जिस के नतीजे में हुक्मरान से बिला शक व शुबाह कुफ्र का ज़हूर हो जाता है। और कलिमा “कुफ्रन बुवाहन” जो हदीस में वारिद हुआ , “नकरह मोसूफह” है जिस का इतलाक़ हर तरह के खुल्लम खुल्ला कुफ्र पर होता है। पस अगर हुक्मरान की तरफ़ से खुल्लम खुल्ला कुफ्र ज़ाहिर हो जिस के मुताल्लिक़ अल्लाह (سبحانه وتعال) की तरफ़ से वाज़िह दलील मौजूद हो तो इस के ख़िलाफ़ ख़ुरूज करना वाजिब है ख़ाह ये कुफ्र क़वानीन यानी अल्लाह के नाज़िल करदा अहकामात के अलावा किसी चीज़ से हुकूमत करना हो या हुक्मरान कुफ्रिया क़वानीन के ज़रीए हुकूमत तो ना करे मगर इस्लाम के ख़िलाफ़ इर्तिदाद ज़ाहिर होने पर ख़ामोश रहे और मुर्तदीन को खुल्लम खुल्ला अपने कुफ्र का इज़हार करने की इजाज़त दे या इसी तरह का कोई और मुआमला जो खुल्लम खुल्ला कुफ्र के ज़हूर के ज़ुमरे में आता हो। ये सब कुफ्रे बुवाह हैं और इस हुक्म में हर तरह का कुफ्रे बुवाह शामिल है। कुफ्रे बुवाह का ज़ाहिर हो जाना वो सूरत-ए-हाल है जिस में हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज वाजिब हो जाता है।

इस हदीस में जो बात उसी सूरत-ए-हाल पैदा होने पर हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज के वाजिब होने पर दलालत करती है वो ये है कि रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने हमें हुक्मरानों के ख़िलाफ़ लड़ने , उन से क़िताल करने और हुक्मरानी पर उन के साथ तनाज़ा करने से मना फ़रमाया जबकि इस सूरत-ए-हाल को इस से मुस्तसना (बरी) क़रार दिया । जिस के मआनी ये हैं कि आप صلى الله عليه وسلم ने इस सूरत-ए-हाल को मुमानअत के हुक्म से ख़ारिज क़रार दिया , जिस का मफ़हूम ये है कि दरअसल आप صلى الله عليه وسلم ने इस बात का हुक्म दिया । तो ये हदीस इस मफ़हूम की तरफ़ इशारा करती है कि उसी सूरत-ए-हाल में हुक्मरान के ख़िलाफ़ लड़ा जाये और इस से तनाज़ा किया जाये। और किसी हुक्म के सबूत में मफ़हूम की दलालत , मंतूक़ (लफ़्ज़ी मआनी/तर्क) की दलालत की तरह ही है। पस ये इस बात की दलील है कि शारे ने मुसलमानों को हुक्म दिया है कि अगर हुक्मरानों की तरफ़ से कुफ्रे बुवाह ज़ाहिर हो तो वो उन के ख़िलाफ़ लड़ें और उन की अथार्टी को चैलेंज करें।

जहां तक इस बात का ताल्लुक़ है कि वो कौनसा करीना है जो इस हुक्म को क़तई यानी फ़र्ज़ क़रार देता है तो वो ये है कि शरेह ने इस हुक्म के मौज़ू की ताकीद की है। शारे ने इस्लाम के ज़रीए हुकूमत करने को वाजिब क़रार दिया है और ये मंदूब नहीं और कुफ्रे बुवाह का ज़ाहिर होना शरअन हराम है और ये सिर्फ मकरूह नहीं। पस इस हुक्म का मौज़ू इस बात का करीना है कि ये हुक्म-ए-क़त्ई है। और ऐसी इस्तसनाई सूरत-ए-हाल में हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज करना सिर्फ़ जायज़ ही नहीं बल्कि मुसलमानों पर ऐसा करना वाजिब है।

ताहम ये बात जानना अहम है कि कुफ्रे बुवाह के ज़ाहिर होने से मुराद ये है कि ऐसा कुफ्र जिस के मुताल्लिक़ क़तई दलील मौजूद हो कि ये कुफ़रीया अमल है। रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم ने सिर्फ़ “कुफ्रन बुवाहन” कहने पर इकतिफ़ा (संतोष) नहीं किया बल्कि मज़ीद इरशाद फ़रमाया:

((عندکم من اللّٰہ فیہ برھان))

जिस के मुताल्लिक़ तुम्हारे पास अल्लाह (سبحانه وتعال) की वाज़िह बुरहान मौजूद हो बुरहान का लफ़्ज़ सिर्फ़ और सिर्फ़ क़तई दलील के लिये इस्तिमाल होता है। लिहाज़ा कुफ्रे बुवाह के सबूत में क़तई दलील का होना ख़ुरूज की शर्त है। अगर इस बात के कुफ्र होने में शक हो, या उस की दलील ज़न्नी हो अगरचे वो दलील सहीह ही क्यों ना हो, तो ख़ुरूज करना हराम होगा। क्योंकि ख़ुरूज सिर्फ़ उस वक़्त जायज़ है जब इस बात की क़तई दलील मौजूद हो कि ये कुफ्र है।

कुफ्रे बुवाह से मुराद वो कुफ्र है जिस के कुफ्र होने में कोई शक-ओ-शुबाह ना हो और इस का कुफ्र होना क़तई दलायल से साबित हो। अगर हुक्मरान किसी ऐसे अमल के करने का हुक्म दे जिस के कुफ्र होने के मुताल्लिक़ शक हो तो ऐसी सूरत-ए-हाल में हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज करना जायज़ ना होगा क्योंकि इस अमल के कुफ्रे बुवाह होने में शुबाह है। मिसाल के तौर पर अगर हुक्मरान यूनीवर्सिटीयों में डायलेक्टीकल मैटीरियल अज़्म की थ्योरी या दूसरे कुफ्रिया अक़ाइद की तालीम-ओ-तदरीस का हुक्म दे लेकिन कोई शख़्स ये तसव्वुर करे कि इन कुफ्रिया अक़ाइद की तदरीस कुफ्र की तरफ़ ले जाएगी , तो फिर भी इस के लिये हुक्मरान की इताअत करना और उन अक़ाइद की तदरीस करना वाजिब होगा और हुक्मरान के ख़िलाफ़ इस बिना पर ख़ुरूज जायज़ ना होगा कि इस से कुफ्रे बुवाह का ज़हूर हुआ है। क्योंकि हुक्मरान के पास इस बात की दलील मौजूद है कि कुफ्रिया अक़ाइद के मुताल्लिक़ मार्फ़त हासिल करना जायज़ है क्योंकि क़ुरआन में कुफ्रिया अक़ाइद को बयान किया गया , अल्लाह (سبحانه وتعال) ने उन्हें बयान किया और उन्हें रद्द किया।


इस से ये ज़ाहिर हो जाता है कि हर वो चीज़ जिस के कुफ्र ना होने के मुताल्लिक़ दलील या शुबाह तुल दलील मौजूद हो या इस के इस्लाम से होने के मुताल्लिक़ दलील या शुबाह तुल दलील मौजूद हो और हुक्मरान इस का हुक्म दे या इस के मुताबिक़ अमल करे तो उसे कुफ्रिया अहकामात तसव्वुर नहीं किया जाएगा और ना ही उसे कुफ्रे बुवाह का ज़हूर समझा जाएगा । ये उस इस्तसनाई हुक्म में शामिल नहीं और उस की बुनियाद पर हुक्मरान के ख़िलाफ़ ख़ुरूज करना जायज़ नहीं बल्कि उस की इताअत वाजिब है।
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