ख़लीफ़ा के मुआविनीन - मुआविन-ए- तनफीज़

मुआवनीन वो वज़ीर होते हैं जिन्हें ख़लीफ़ा ख़िलाफ़त के बोझ को उठाने और ज़िम्मेदारीयों को निभाने में अपनी मुआविनत (सहायता) के लिये मुक़र्रर करता है। ख़िलाफ़त पर कई भारी ज़िम्मेदारियों होती हैं खासतौर पर जब रियासत वसीअ-ओ-अरीज़ (विस्तृत और विशाल) हो और ख़लीफ़ा के लिये अकेले उसे संभालना मुश्किल काम हो,इसलिये उसे इस बोझ को उठाने और ज़िम्मेदारीयों को पूरा करने के लिये लोगों की ज़रूरत होती है । मुआवनीन को मुक़र्रर करना मुबाहात में से है।

वो मुआवनीन जिन्हें ख़लीफ़ा इस भारी काम में अपनी मदद के लिये मुक़र्रर करता है, दो किस्म के होते हैं:

- मुआविन-ए- तफ़वीज़
- मुआविन-ए- तनफीज़

मुआविन-ए- तनफीज़:
मुआविन-ए- तनफीज़ वो वज़ीर है जिसे ख़लीफ़ा अपने अहकामात के निफाज़ , निगरानी और तामील पर मुआविनत के लिये मुक़र्रर करता है। वो ख़लीफ़ा और रियासत के मुख़्तलिफ़ शोबों (विभागों), अवाम और दफ़्तर-ए-ख़ारिजा (विदेशी विभाग) के बीच राबिता (माध्यम) होता है वो ख़लीफ़ा के पैग़ामात को उन तक पहुंचाता है और उन के पैग़ामात को ख़लीफ़ा तक पहुंचाता है। नतीजतन वो अहकामात पर अमल दरआमद में ख़लीफ़ा का मुआविन होता है और वो लोगों पर हुक्मरान नहीं होता और ना ही उसे ये इख्तियारात हासिल होते हैं। इस का काम इंतिज़ामी नोईय्यत का होता है , हुकूमत करना नहीं । इस का शोबा वो विभाग होता है जिसे ख़लीफ़ा अंदरूनी और ख़ारिजा दफ़ातिर (विदेशी दफ्तरों) से मुताल्लिक़ अपने अहकामात की तनफीज़ के लिये इस्तिमाल करता है नीज़ मुआविन-ए-तनफीज़ ख़लीफ़ा को वो सब पहुंचाता है जो इन दफ़ातिर की तरफ़ से ख़लीफ़ा की जानिब इरसाल किया (भेजा) जाये। इस का शोबा (विभाग) ख़लीफ़ा और दूसरे शोबों के बीच पुल का काम देता है, वो ख़लीफ़ा की तरफ़ से उन शोबों को अहकामात जारी करता है और उन शोबों के पैग़ामात को ख़लीफ़ा तक पहुंचाता है।

ख़लीफ़ा हुक्मरान है जिस की ज़िम्मेदारीयों में हुकूमत करना , अहकामात को नाफ़िज़ करना और लोगों के उमूर (मुआमलात) की देख भाल करना शामिल है। हुकूमत करने, अहकामात को नाफ़िज़ करने और लोगों के उमूर की देख भाल के लिये इंतिज़ामी आमाल दरकार होते हैं। जो इस बात का तक़ाज़ा करते हैं कि ऐसा खास विभाग क़ायम किया जाये जो कामों को मुनज़्ज़म करने के लिये ख़लीफ़ा के साथ काम करे ताकि ख़लीफ़ा ख़िलाफ़त की ज़िम्मे दारीयों को निभा सके । लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ की ज़रूरत होती है जिसे ख़लीफ़ा इंतिज़ामी मुआमलात को अंजाम देने के लिये मुक़र्रर करता है और इस का काम हुकूमत करना नहीं होता। मुआविन-ए-तफ़वीज़ के बरअक्स मुआविन-ए-तनफीज़ हुकूमत करने का काम अंजाम नहीं देता। पस वो ना तो वालीयों या आमिलीन को मुक़र्रर करता है और ना ही लोगों के उमूर की देख भाल करता है । उस की ज़िम्मेदारी इंतिज़ामी नोईय्यत की होती है यानी हुकूमत के अहकामात, और ख़लीफ़ा या मुआविन-ए-तफ़वीज़ के जारी करदा इंतिज़ामी मुआमलात को नाफ़िज़ करना। यही वजह है कि उसे मुआविन-ए-तनफीज़ कहते हैं। फुक़हा ने इसे “वज़ीर-ए-तनफीज़” कहा है जिस का मतलब मुआविन–ए-तनफीज़ है क्योंकि लफ़्ज़ वज़ीर के लुगवी मानी मुआविन के ही हैं। उन्होंने कहा: ये वज़ीर ख़लीफ़ा और उस के अवाम और वालीयों के बीच वास्ते (माध्यम) का काम अंजाम देता है, ख़लीफ़ा के जारी करदा अहकामात को उन तक पहुंचाता है और इस के अहकामात का निफाज़ करवाता है। पस वो तमाम मुताल्लिक़ा अफ़राद को वालीयों के तक़र्रुर, अफ़्वाज की तैय्यारी और सरहदों पर उन की तैनाती से मतला (बाखबर) करता है। मुख़्तलिफ़ शोबों से जो कुछ भी हांसिल होता है और जो भी नए मुआमलात पैदा होते हैं और सूरत-ए-हाल जन्म लेती है, वो ख़लीफ़ा को इस से आगाह करता है ताकि ख़लीफ़ा जो भी अहकामात दे वो उन्हें नाफ़िज़ कर सके। ये बात उसे अहकामात के निफाज़ में ख़लीफ़ा का मुआविन बनाती है, वो लोगों पर हुक्मरान नहीं होता और ना ही उसे ये काम सौंपा जाता है।

मुआविन-ए-तफ़वीज़ की तरह मुआविन-ए-तनफीज़ भी सीधे तौर ख़लीफ़ा से मुंसलिक (जुडा) होता है। चूँकि वो ख़लीफ़ा के मुसाहबीन में से होता है और अगरचे उस का काम इंतिज़ामी नौईय्यत का होता है लेकिन वो हुक्मरानी से सीधे तौर मुंसलिक होता है लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ का औरत होना जायज़ नहीं, क्योंकि औरत के लिये हुक्मरान बनना या इस से मुंसलिक कोई काम अंजाम देना जायज़ नहीं। ये रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم की इस हदीस की बिना पर है जिसे बुख़ारी ने अबी बक्र से रिवायत किया:

))لن یفلح قوم ولّوا أمرھم امرأۃ((
वो क़ौम कभी फ़लाह नहीं पा सकती जो औरत को अपना हुक्मरान बना ले

मुआविन-ए-तनफीज़ के ओहदे पर किसी काफ़िर का मुक़र्रर करना भी जायज़ नहीं और ये लाज़िम है कि मुआविन-ए-तनफीज़ मुसलमान हो क्योंकि वो ख़लीफ़ा के साहेबीन में शामिल है। क्योंकि अल्लाह (سبحانه وتعال) ने इरशाद फ़रमाया:

يَـٰٓأَيُّہَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ بِطَانَةً۬ مِّن دُونِكُمۡ لَا يَأۡلُونَكُمۡ خَبَالاً۬ وَدُّواْ مَا عَنِتُّمۡ قَدۡ بَدَتِ ٱلۡبَغۡضَآءُ مِنۡ أَفۡوَٲهِهِمۡ وَمَا تُخۡفِى صُدُورُهُمۡ أَكۡبَرُ
ऐ ईमान वालो! अपने सिवा किसी को अपना राज़दार मत बनाओ ये लोग तुम में फ़ित्ना अंगेज़ी करने में कोई कोताही नहीं करते, चाहते हैं कि तुम्हें तकलीफ़ पहुंचे , बुग़्ज़ उन के मुँह से टपकता है और जो कुछ उन के दिलों में पोशीदा है वो तो इस से भी बढ़ कर है (आल ए इमरान: 118) 

ख़लीफ़ा की तरफ़ से किसी गैर मुस्लिम को अपने साहेबीन में दाख़िल करने की मुमानअत इस आयत से बिलकुल साफ है। लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ के लिये काफ़िर होना जायज़ नहीं बल्कि ये लाज़िम है कि वो मुसलमान हो क्योंकि मुआविन-ए-तफ़वीज़ की तरह वो भी ख़लीफ़ा के साथ सीधे तौर पर जुडा  होता है और ख़लीफ़ा से क़ुरबत (निकटता) रखता है । हुक्मरानी की ज़रूरियात के मुताबिक़ मुआविन-ए-तनफीज़ एक से ज़्यादा भी हो सकते हैं।

वो शोबे (विभाग) जिन में मुआविन-ए-तनफीज़ ख़लीफ़ा और दूसरे लोगों के दरमियान वास्ते (माध्यम) का काम अंजाम देता है, वो ये चार हैं ।
1) रियासत के इदारे
2) अफ़्वाज
3) उम्मत
4) आलमी उमूर (अंतर्राष्ट्रीय मुआमलात)
मुआविन-ए-तनफीज़ इन उन्वा के काम अंजाम देता है। चूँकि वो ख़लीफ़ा और दूसरे लोगों और इदारों के बीच राबते  का काम देता है इसलिये उस की हैसियत राब्ताकार शोबे की सी होती है। इस बिना पर वो रियासती इदारों से मतलूब कामों का जायज़ा लेता है।

ख़लीफ़ा अमली तौर पर हाकिम होता है वो बज़ात-ए-ख़ुद हुकूमत करता है अहकामात का निफाज़ करता है और लोगों के मुआमलात की देखभाल करता है लिहाज़ा वो हुकूमती ढाँचे ,बैनुल अक़वामी (अंतर्राष्ट्रीय) उमूर और उम्मत के साथ मुसलसल मुंसलिक (जुडा) होता है। वो अहकामात को जारी करता है, मुआमलात का फैसला करता है, हुकूमती ढाँचे की कारकर्दगी की निगरानी करता है और उसके दरपेश मुश्किलात को दूर करता है और उस की ज़रूरियात को पूरा करता है। उम्मत की तरफ़ से आने वाली शिकायात, मुतालिबात (demands/माँगों) और मसाइल से ख़लीफ़ा आगाही हासिल करता है और इस के साथ साथ वो आलमी सतह पर मुआविन-ए-तनफीज़ इन मुआमलात में ख़लीफ़ा का राबिता कार (माध्यम) होता है। यानी वो ख़लीफ़ा तक पैग़ामात पहूँचाने में ख़लीफ़ा का राबिता कार होता है। वो ख़लीफ़ा तक पैग़ामात को पहुंचाता है और ख़लीफ़ा से अहकामात दूसरों तक पहुंचाता है। चूँकि अहकामात के निफाज़ के लिये ख़लीफ़ा की तरफ़ से विभिन्न महकमों को भेजे जाने वाले अहकामात और हिदायात और जो इन शोबों से ख़लीफ़ा की तरफ़ भेजे जाते हैं , की पैरवी की ज़रूरत होती है, लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ पर लाज़िम होता है कि वो ये निगरानी अंजाम दे ताकि अहकामात की तनफीज़ का काम अच्छे तरीके से पाया-ए- तकमील तक पहुंच जाये। वो ख़लीफ़ा और रियासती इदारों के साथ मुआमलात का मुसलसल जायज़ा लेता रहता है और इस मुसलसल जायज़े के अमल को तर्क नहीं करता जब तक कि ख़लीफ़ा ख़ुसूसी तौर पर ऐसा ना कहे , इस सूरत में इस पर ख़लीफ़ा के हुक्म की इताअत लाज़िम है और वो इस मुआमले के मुसलसल जायज़े को तर्क कर देता है, क्योंकि ख़लीफ़ा हुक्मरान है और इस का हुक्म नाफ़िज़ होता है।

जहां तक अफ़्वाज और बैनुल अक़वामी (अंतर्राष्ट्रीय) सम्बन्धों का ताल्लुक़ है , ये आम तौर पर मख़फ़ी (खुफिया) रखे जाते हैं और ये ख़लीफ़ा के साथ मख़सूस होते हैं। लिहाज़ा मुआविन-ए-तनफीज़ इन मुआमलात में ख़लीफ़ा के अहकामात की तनफीज़ की मुसलसल पैरवी नहीं करता, मासवाए ख़लीफ़ा ख़ुद उसे ऐसा करने के लिये कहे। इस सूरत में वो सिर्फ़ इन मुआमलात का मुसलसल जायज़ा लेता है जिस के मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा इसे हुक्म दे और वो दूसरे मुआमलात का जायज़ा नहीं लेता।

जहां तक उम्मत का ताल्लुक़ है, तो उम्मत के मुआमलात की देख भाल करना, उस की ज़रूरियात को पूरा करना और उन से ज़ुल्म को दूर करना, ख़लीफ़ा की ज़िम्मेदारी है कि वो अपने नायबीन के साथ मिल कर इन कामों को अंजाम दे। ये मुआमलात मुआविन-ए- तनफीज़ के दायरा इख्तियार में नहीं आते। पस वो इन उमूर (मुआमलात) का मुसलसल जायज़ा लेने का काम नहीं करता मासवाए वो जिन के मुताल्लिक़ ख़लीफ़ा उसे ऐसा करने का हुक्म दे। इस सिलसिले में इस का काम सिर्फ़ अहकामात का निफाज़ होता है और वो मुआमलात का मुसलसल जायज़ा नहीं लेता। इस तमाम का इन्हिसार (भरोसा) ख़लीफ़ा के काम की नोईय्यत पर होता है , जिस के मुताबिक़ मुआविन-ए-तनफीज़ के काम की नोईय्यत का ताय्युन होता है।

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