खिलाफते राशिदा सानी (IInd) पर 100 सवाल (37-38)

➡सवाल नं. (37): खिलाफत शियाओं को कैसे देखती हैं? 

🔴 इस्लामी इतिहास में, शिया-सुन्नी इख्तिलाफ का विषय कई बार सामने आया हैं, जिसमें खूनी जंगो से लेकर अलगाववादी आंदोलन भी चले और दोनों गिरोह ने एक दूसरे पर कुफ्र का फतवा भी लगाया। पश्चिम इस विवाद को लेकर यह साबित करने की कोशिश करता हैं कि एक उम्मत का तसव्वुर खत्म (मन्सूख) हो चुका हैं, जो अब नही चल सकता। अत: इस्लाम फिरकापरस्ती कि समस्या से नही निपट सकता ।

✳ शिया-सुन्नी इख्तिलाफ के इतिहास का बारीकी से अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि, शिया और सुन्नियों के इख्तिलाफ के कारणों में शिया और सुन्नी अलग-अलग राय नही रखते बल्कि एक ही राय रखते हैं और एक राय रखने का मतलब यही हैं कि उनमें इख्तिलाफ नही हैं। शिया-सुन्नी के बीच का राजनीतिक इख्तिलाफ, उनके बीच फिरकापरस्ती की बहुत बडी़ वजह नही हैं।

✔ खिलाफत शियाओं को जज़बाती या ऐतिहासिक नुक्ता ए नज़र से नही देखेगी क्योंकि शरई अहकाम अखज़ करने मे इन चीज़ो कि कोई जगह नही हैं। यहाँ तक कि फिक़्ह को शिया फिक़्ह या सुन्नी फिक़्ह मानना भी सही नही हैं, असल मुद्दा यह हैं कि क्या इस्लाम किसी मसले पर खास नुक्ता ए नज़र या राए रखने कि इजाज़त देता हैं कि नही ।
✔ शिया सुन्नी इख्तलाफ को इस नज़रिए से देखने कि ज़रूरत हैं कि क्या इस्लाम के माखुज़ (स्त्रोत) किसी मसलक को कोई राय रखने कि इजाज़त देते हैं कि नही, चाहे वोह राए सुन्नी फिक़्ह से आई हो या शिया फिक़्ह से।
आने वाली खिलाफत शियाओं का मामला शरई तौर से देखेगी। अगर शरीअत के तौर पर उनके दलायल सही होंगे तो उन्हें क़ुबूल किया जायेगा हैं। दलायल के ऐतबार से ही देखा जायेगा कि उनके साथ किस तरह का मामला करना हैं।

✔ सियासत और हुक्मरानी के ताल्लुक से शियाओं की राय यह हैं कि ईमाम महदी ही मुसलमानों के असली खलीफा होगें मगर इस वक़्त वह गायब हैं और गायब होने की स्थिति में उनके ऊपर इस्लामी निज़ाम होना चाहिए या नही इस बात पर उनमें आपस में ही मतभेद हैं।
🔶 एक गिरोह कहता हैं कि ज़रूर होना चाहिए क्योंकि अल्लाह की शरीअत तो एक दिन के लिए भी मुल्तवी नही होना चाहिए।
🔶 दूसरा गिरोह यह कहता हैं कि नही, जब तक ईमाम मेंहदी नही होगें तब तक शरीअत लागू नही हो पायेगी। ज़्यादातर लोग यही कहते हैं कि जब तक ईमाम मेंहदी नही आते तब तक विलायातुल फक़ीह होना चाहिये यानी जब तक ईमाम मेंहदी नही हैं तब तक एक मुज़्तहिद हुक्मरानी करेगा।

✔ इससे यह बात पता लगती हैं कि शिया मस्लक हक़ीक़त में एक मस्लक हैं ना कि इस्लाम से अलग कोई दीन हैं बल्कि इस्लाम दीन में अलग-अलग मज़हबों में से एक मज़हब हैं जैसे कि दूसरे मस्लक हैं। जब तक कोई मज़हब क़तई दलायल से टकराव नही रखता तब तक रियासत उसके मामलात में किसी तरह की दखलअंदाजी नही करेगी। जहॉ तक अगर कोई मज़हब क़तई दलायल से टकराव रखता हैं तो इस्लामी हुक्म के मुताबिक उनका मामला किया जायेगा।

✅ जैसा कि कुछ लोग मानते हैं कि हजरत अली नबी होते लेकिन गलती से अल्लाह के रसूल के पास फरिश्ता चला गया। यह बात क़तई तौर पर क़ुरआन के दलायल से टकराव रखती हैं
✅ और इसी तरह कुछ लोग यह कहते हैं कि हजरत अली खालिक (रब) हैं, जबकि खुद हज़रत अली ने अपने ही ज़माने में उनको मौत की सज़ा दी। जैसा कि बयान हो चुका हैं जो क़तई मामलात हैं उसमें अगर टकराव होगा तो हुक्मे शरई के मुताबिक फैसला किया जायेगा।


🔱🔱खिलाफते राशिदा सानी (IInd) पर 100 सवाल🔱🔱


➡सवाल नं. (38): खिलाफत किस तरह से काम कर पायेगी जबकि मुसलमानों में बहुत सारे इख्तिलाफ पाए जाते हैं?


👉मुस्लिम सरज़मीनों में पाए जाने वाले सभी इख्तिलाफ कृत्रिम और बनावटी हैं, जिन्हे पैदा किया गया एंव बढा़वा दिया गया हैं जैसे बॉडर, राष्ट्रीय झण्डें, राष्ट्रीय गीत, कौमियत इत्यादि।
✳ मुसलमानों के अक़ीदे में कोई इख्तिलाफ नही हैं सब एक ही कलमा पढ़ते हैं “लाईलाहा ईल्लल्लाह मोहम्मदुर रसूलुल्लाह” और अगर इख्तिलाफ हैं तो बहुत मामूली मसलों और आरा (राय) पर। इख्तिलाफ से विवाद और समस्या तब खडी़ होती हैं, जब लोगों के दरमियान ऐसी कोई व्यवस्था नही होती जो उनके इख्तिलाफात को सही रुख दे और उसका सही इस्तिमाल कर सके । खास तौर पर वह इख्तिालाफात जिनका समाज और सार्वजनिक जीवन से सीधा सम्बन्ध होता हैं।

✔मुस्लिम दुनिया को इस समय एक ऐसी शक्ति कि ज़रूरत हैं, जो उन्हें मुत्तहिद कर सके जो कि इस वक्त 62 मुस्लिम राज्य करने मे नाकाम हैं । दर असल यह मुस्लिम हुक्मरॉ अपनी सत्ता और कुर्सी बचाए रखने के लिए उम्मत के इख्तिलाफात से खेल कर उन्हें बाँटे रखते हैं । इस्लाम का ठीक तरीक़े से लागू होना ही एक ऐसा कारक (फेक्टर) होगा जो उम्मत को एक करेगा और सभी बनावटी इख्तिलाफात को हटा देगा।

✔ खिलाफत में खलीफा सबसे ऊंचे ओहदे पर होता हैं, सारे मामलात का ज़िम्मेदार वही होता हैं और सारे इख्तिलाफात आखरी फैसले के लिए उसी की तरफ लाए जाते हैं। चूँकि इस्लाम नें खलीफा को कोई एक इस्लामी राय कि तबन्नी (Adoption) करने और उसे समाज पर लागू करने का अधिकार दिया हैं, तो ऐसे में सभी मुसलमानों को एकमत होकर खलीफा की राय माननी पड़ेगी क्योंकि इस्लाम ने खलीफा कि इताअत को फर्ज़ करार दिया हैं। ऐसी व्यवस्था मुस्लिम दुनिया में नही होने के कारण यह समस्या सर उठाती हैं।
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